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मंगल और प्रस्तावना

  कथा 

कथा :

श्रीवर्धमान भगवान को नमस्कार है, जो धर्मीतीर्थ के प्रवर्तन करानेवाले और तीन लोक के स्वामी हैं, तथा संसार के बन्धु और अनन्त सुखमय हैं और कर्मों का नाश कर जिन्होंने अविनाशी सुख का स्थान मोक्ष प्राप्त कर लिया है ।

श्री आदिनाथ भगवान को नमस्कार है । धर्म ही जिनका आत्मा है, जो बैल के चिह्नट से युक्त हैं और युग की आदि में पवित्र धर्मतीर्थ के प्रवर्तक हुए हैं ।

इनके सिवा और जो तीर्थंकर हैं, उन्हें भी मैं नमस्कार करता हूँ । वे संसार के जीवों का उपकार करनेवाले और सबके हितू हैं, अविनाशी लक्षमी से युक्त और देवों द्वारा पूज्य हैं तथा जगत के स्वामी हैं ।

सिद्ध भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ, जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, अगुरुलघु, अवगाहना आदि आठ गुणों से युक्त और आठ कर्मों तथा शरीर से रहित हैं, अन्तरहित और लोक-शिखर के ऊपर विराजमान हैं ।

श्री सुदर्शन मुनिराज को मैं नमस्कार करता हूँ, जो कर्मों को नाशकर सिद्ध हो चुके हैं, जिनके अचल ब्रह्मचर्य को नष्ट करने के लिए अनेक उपद्रव किये गये तो भी जिन्हें किसी प्रकार का क्षोभ या घबराहट न हुई । मेरु की तरह जो निश्चल बने रहे ।

उन आचार्यों को मैं नमस्कार करता हूँ, जो स्वयं मोक्ष-सुख की प्राप्ति के लिये पंचाचार पालते हैं और अपने शिष्यों को उनके पालने का उपदेश करते हैं तथा सारा संसार जिन्हें सिर नवाता है ।

उन उपाध्यायों को भक्तिपूर्वक नमस्कार है, जो ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का स्वयं अभ्यास करते हैं और अपने शिष्यों को कराते हैं । ये उपाध्याय महाराज मुझे आत्मलाभ करावें ।

उन साधुओं को बारम्बार नमस्कार है, जो त्रिकाल योग के धारण करनेवाले और मोक्ष-लक्ष्मी के साधक-मोक्ष प्राप्त करने के उपाय में लगे हुए हैं तथा घोरतर तप करनेवाले हैं ।

जिसकी कृपा से मेरी बुद्धि ग्रन्थों के रचने में समर्थ हुई, वह जिनवाणी मेरे इस प्रारम्भ किये कार्य में सिद्धि की देनेवाली हो ।

वे गौतमादि गणधर ऋषि मेरे कल्याण के बढ़ानेवाले हों, जो सब ऋद्धि और अंगशास्त्ररूपी समुद्र के पार पहुँच चुके हैं । जो बड़े भारी सिद्ध-योगी और विद्वान् हैं तथा बाह्य और अन्तरंग परिग्रह रहित हैं । उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ ।

उन गुरुओं के चरण कमलों को नमस्कार है, जिनकी कृपा से मुझे उन सरीखे गुणों की प्राप्ति हो तथा जो परिग्रह रहित और उत्तम गुणों के धारक हैं ।

जिनदेव, गुरु और शास्त्र की मैंने वन्दना-स्तुति की और जिनकी स्वर्ग के देव और चक्रवर्ती आदि महापुरुष वन्दना-स्तुति करते हैं, वे सब सुखों के देनेवाले या संसार के जीवमात्र को सुखी करनेवाले देव, गुरु और शास्त्र मेरे इस आरम्भ किये ग्रन्थ में आनेवाले विघ्नों को नाश करें, सुख दें और इस शुभ काम को पूरा करें ।

वैश्यकुल-भूषण श्रीवर्धमानदेव के कुलरूपी आकाश के जो सूर्य हुए, सब पदार्थों के जाननेवाले पाँचवें अन्त:कृतकेवली हुए, सुन्दर शरीरधारी कामदेव हुए और घोरतर उपसर्ग जीतकर जिन्होंने संसार पूज्यता प्राप्त की, उन सुदर्शन मुनिराज का यह पवित्र और भव्यजनों को सुख देनेवाला धार्मिक-भावपूर्ण चरित्र लिखा जाता है । इससे सबका हित होगा । मैं जो इस चरित को लिखता हूँ, वह इसलिए कि इसके द्वारा स्वयं मेरा और भव्यजनों का कल्याण हो और पंच नमस्कारमंत्र का प्रभाव विस्तृत हो । इसे सुनकर या पढ़कर भव्यजनों की पंच परमेष्ठियों में श्रद्धा पैदा होगी, ब्रह्मचर्य आदि पवित्र व्रतों के धारण करने की भावना होगी, संसार-विषयभोगों से उदासीनता होगी और वैराग्य बढ़ेगा ।