+ सुदर्शन का जन्म -
सुदर्शन का जन्म

  कथा 

कथा :

जम्बूद्वीप एक प्रसिद्ध और मनोहर द्वीप है । उसे लवणसमुद्र चारों ओर से घेरे हुए है । अच्छे धर्मात्मा और पुण्यवानों का वह निवास है । उसके ठीक बीच में सुमेरुपर्वत है । वह ऐसा जान पड़ता है मानो जम्बूद्वीप की नाभि है । सुमेरु एक लाख योजन ऊँचा और सुन्दर बाग-बगीचे तथा जिनमन्दिरों से शोभित है । उससे दक्षिण की ओर भारतवर्ष बड़ी सुन्दरता धारण किये हुए है । रूपाचल नाम के पर्वत को तीन ओर से घेरकर बहनेवाली नदी से वह ऐसा जान पड़ता है मानों उसने धनुषबाण चढ़ा रखा हो । उसके बीच में आर्यखण्ड बसा हुआ है । वह आर्य-पुरुषों से परिपूर्ण है, धर्म का खजाना है और स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति का कारण है ।

उसमें अंगदेश नाम का एक सुन्दर और प्रसिद्ध देश है । वह धर्म और सुख का स्थान है, अनेक छोटे-मोटे गाँव और बागब गीचों से शोभित है । वहाँ के सभी गाँव, नगर, पुर, शहर, देश, धर्मात्मा पुरुषों और बड़े ऊँचे जिनमन्दिरों से युक्त हैं । वहाँ मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओं के संघ धर्मोपदेश के लिये सदा विहार करते हैं और भव्यजनों को मोक्ष का मार्ग बतलाते हैं । वहाँ के बाग फल-फूलों से सुन्दरता धारण किये हुए वृक्षों से युक्त हैं । वे देखनेवालों का मन शीघ्र अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं । उनकी छाया में बैठकर लोग गर्मी का कष्ट दूर कर बड़ा शान्ति लाभ करते हैं । वे चारों ओर बड़ी-बड़ी दूर तक की जगह में विस्तृत हैं । वे ऐसे जान पड़ते हैं जैसे योगी हों । क्योंकि योगी लोग भी जीवों का संसार-ताप मिटाकर शान्ति देते हैं, पवित्र होते हैं और रत्नत्रयरूप फलों से युक्त हैं । मुनियों का मन जैसा निर्मल होता है, ठीक ऐसे ही निर्मल जल के भरे वहाँ के सरोवर, कुएं, बावड़ियाँ हैं । मुनियों का मन पाप-मल का नाश करनेवाला है, ये शरीर की मलिनता दूर करते हैं । मुनियों का मन संसार के विषयभोगों की तृष्णा से रहित हैं और ये प्यासे की प्यास बुझाते हैं । वहाँ के कितने धर्मात्मा श्रावक रत्नत्रय धारण कर तप द्वारा निर्वाण लाभ करते हैं, कितने ग्रैवेयक जाते हैं, कितने सौधर्मादि स्वर्गों में जाते हैं, कितने सरल परिणामी दान देकर भोगभूमि लाभ प्राप्त करते हैं और कितने देव-गुरु-शास्त्र की पूजा द्वारा पुण्य उत्पन्न कर इन्द्र या तीर्थंकरों के वैभव को प्राप्त करते हैं । वहाँ उत्पन्न हुए लोग जब अपने पवित्र आचार-विचारों द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को प्राप्त कर सकते हैं, तब वहाँ का और अधिक वर्णन क्या हो सकता है? अंगदेश इस प्रकार धन-दौलत, धर्म-कर्म, गुण-गौरव आदि सभी उत्तम बातों से परिपूर्ण है ।

जिस समय की यह कथा है, उस समय अंगदेश की राजधानी चम्पानगरी थी । वह बड़ी सुन्दर और गुणी, धनी, धर्मात्मा पुरुषों से युक्त थी । बड़े ऊँचे-ऊँचे कोटों, दरवाजों, बावड़ियों, खाईयों और शूरवीरों से वह शोभित थी और इसीलिए शत्रु लोगों का उसमें प्रवेश नहीं था । वह इन बातों से अयोध्या जैसी थी । अत्यन्त विशाल, भव्य जिनभगवान के मन्दिरों से उसने जो मनोहरता धारण कर रखी थी, उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो वह धर्म की सुन्दर खान है । वे जिनमन्दिर ऊँचे शिखरों पर फहराती हुई ध्वजाओं के समूह से, सोने की बनी हुई प्रतिमाओं से, भामण्डल-छत्र चंवर आदि उपकरणों से, बाजों के मन मोहनेवाले सुन्दर शब्दों से और दर्शनों के लिये आने-जानेवाले भव्यजनों से उत्सव और आनन्दमय हो रहे थे । वहाँ लोगों को धर्म से इतना प्रेम था । वे इतने धर्मात्मा थे कि सबेरे उठते ही सबसे पहले सामायिक करते थे । इसके बाद नित्य क्रियाओं से छुट्टी पाकर वे भक्ति से जिनभगवान की पूजा करते, स्वाध्याय करते और फिर घर पर आकर दान के लिये पात्रों का निरीक्ष्ण करते । इसी प्रकार साँझ को सामायिकादि क्रियाँए करते, परमेष्ठी का ध्यान करते, वन्दना-स्तुति करते । यह उनकी शुभचर्या थी । इसके पालने में वे कभी आलस या प्रमाद नहीं करते थे । वे मिथ्यात्व से सदा दूर रहते थे । साधु-महात्माओं के वे बड़े सेवक थे । धर्म से उन्हें अत्यन्त प्रेम था । वे बड़े पुण्यवान थे, ज्ञानी थे, दानी थे, धनी थे, स्वरूपवान थे, सुखी थे और सम्यग्दर्शन, व्रत, शील आदि गुणों से भूषित थे । वे जब अपने उन्नत और सुन्दर महलों पर अपने समान ही सुन्दर और गुणवाली अपनी स्त्रियों के साथ बैठते, तब ऐसा जान पड़ता था मानो स्वर्गों के देवगण अपनी देवांगनाओं के साथ बैठे हैं ।

चम्पानगरी की प्रजा बड़ी सौभाग्यवती थी, जो जैसी नगरी सुन्दर और सब गुणों से परिपूर्ण थी, वैसे ही गुणी और सब राजाओं के शिरोमणि राजा भी उसे पुण्य से मिल गये । उनका नाम धात्रीवाहन था । वे बड़े धर्मात्मा थे, दानी थे, प्रतापी थे और शीलवान थे । राजनीति के वे बड़े धुरन्धर विद्वान थे । प्रजा पर उनका अत्यन्त प्रेम था । अपने इन गुणों से वे चक्रवर्ती की तरह तेजस्वी जान पड़ते थे । उनकी रानी का नाम अभयमती था । पट्टरानी का उच्च सम्मान इसे ही प्राप्त था । यह बड़ी सुन्दरी और गुणवती थी । चम्पानगरी के राजसेठ का सम्मान वृषभदास को प्राप्त था । वृषभदास बड़े धर्मात्मा और पवित्र रत्नत्रय-व्रत-संयम-शील आदि गुणों के धारक थे । बड़े रूपवान थे । देव-गुरु के वे बड़े भक्त थे और सदाचारी थे । जिनधर्म पर उनका बड़ा प्रेम था । इन्हीं गुणों के कारण सारी चम्पानगरी में उनकी बड़ी मान-मर्यादा थी । उनकी स्त्री का नाम जिनमती था । वह बड़ी सुन्दरी थी-देवांगनाँए उसके रूप को देखकर शर्माती थीं । वृषभदास के समान यह भी जिन भगवान की पूर्ण भक्त थी, महासती थी और पुण्यवती थी । वृषभदास अपने समान ही गुणवती स्त्री को पाकर बहुत सुखी हुए । एक दिन जिनमती अपने शैय्यागृह में पलंग पर सुख की नींद सोई हुई थी । पिछली रात का समय था । इस समय उसने एक शुभ स्वप्न देखा । उसमें उसने
  • फलों से युक्त सुदर्शन नामक कल्पवृक्ष और
  • देवों के महल को,
  • विशाल समुद्र और
  • बढ़ती हुई प्रचण्ड अग्नि
को देखा । सबेरे जब वह उठी और स्वप्न का उसे स्मरण हुआ, तब वह बड़ी आनन्दित हुई । धर्मप्राप्ति के लिये पहले उसने सामायिकादि क्रियाँए कीं । इसके बाद वह बहुत गहने-गाँठे और सुन्दर वस्त्रों को पहनकर अपने स्वामी के पास पहुँची । बड़े विनय के साथ उसने वृषभदास से अपने स्वप्न का हाल कहा । उस शुभ स्वप्न को सुनकर उन्हें भी बड़ा आनन्द हुआ । सेठ ने जब जिनमती से कहा । प्रिये, चलो, जिनमन्दिर चलकर ज्ञानी मुनिराज से इस स्वप्न का हाल पूछें । क्योंकि इसका फल जैसा मुनिराज कह सकेंगे, वैसा कोई नहीं कहा सकता । यह कहकर वृषभदास जिनमती को साथ लिये जिनमन्दिर पहुँचे । उन्हें स्वप्न का हाल जानने की बड़ी उत्कण्ठा लगी थी । पहले ही उन्होंने धर्मप्राप्ति के लिये भक्ति के साथ भगवान की पूजा-स्तुति और वन्दना की । इससे उन्हें महान पुण्य का बन्ध हुआ । इसके बाद वे तीन ज्ञानधारी श्री सुगुप्ति मुनिराज के पास पहुँचे । उनकी भी पूजास्तुति कर उन्होंने उनसे स्वप्न का फल पूछा । योगी ने अनुग्रह कर सेठ से कहा । सेठ महाशय! ध्यान से सुनिए । मैं आपको स्वप्न का फल कहता हूँ । स्वप्न में पहले ही जो सुदर्शनमेरु देखा है, उससे आपको एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति होगी । वह बड़ा साहसी और अत्यन्त रूपवान कामदेव होगा । अपने गुणों से वह अत्यधिक मान-मर्यादा लाभ करेगा । कल्पवृक्ष के देखने से वह बड़ा धनी, दानी, भोगी और सबकी आशाओं को पूर्ण करनेवाला होगा और जो स्वप्न में देवों का महल देखा है, उससे वह देवों द्वारा पूज्य होगा । अन्त में अग्नि देखी गई है, उसके फल से वह सब कर्मों का नाश कर मोक्ष लाभ करेगा । सुनिए । ये सब शुभ स्वप्न हैं और आपके होनेवाले पुत्र के गुणों के सूचक हैं । स्वप्न का फल सुनकर सेठ बड़े प्रसन्न हुए । इसके बाद वे उन मुनिराज को नमस्कार कर अपनी प्रिया के साथ अपने महल लौट आये ।

इस घटना के कुछ ही दिन बाद जिनमती के गर्भ रहा । उसे देख बन्धु-बान्धवों को बड़ी प्रसन्नता हुई । वह पवित्र गर्भ ज्यों- ज्यों बढ़ने लगा, त्यों-त्यों कुटुम्बियों को जिनमती पर बड़ा प्रेम होने लगा । इस गर्भ से जिनमती ऐसी शोभने लगी मानों वह रत्न की खान है । जब नौ महीने पूरे हुए, तब अच्छे मुहूर्त में पौष सुदी 4 को सुखपूर्वक उसने पुत्र-रत्न प्रसव किया । उसके प्रचण्ड तेज ने सूर्य के तेज को दबा दिया । उसके शरीर की कान्ति ने चन्द्रमा को जीत लिया । वह सुन्दर इतना था कि उसकी उपमा देने के लिये संसार में कोई पदार्थ ही न रहा । वृषभदास तब उसी समय अपने बन्धुओं को साथ लेकर जिनमन्दिर पहुँचा । वहाँ उसने बड़े वैभव के साथ सुख प्राप्ति के लिये जिनभगवान की पूजा की, जो सब सुखों को देनेवाली हैं । गरीब, असहाय, अनाथों को उनकी इच्छा के अनुसार उसने दान दिया; बहुत गीत-नृत्यादि उत्सव करवाया । घरों पर ध्वजा, तोरण बाँधे गये । इत्यादि बड़े ठाट-बाट से पुत्र का जन्मोत्सव मनाया गया ।

कुछ दिनों बाद सेठ ने पुत्र का नामकरण संस्कार किया । वह देखने में बड़ा सुन्दर था, इसलिए उसका नाम भी सुदर्शन रखा गया । सुदर्शन अपने योग्य खान-पान से दिनों दिन दूज के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा । उसकी वह मधुर हँसी, तोतली बोली आदि स्वाभाविक बाल-विनोद को देखकर परिवार के लोगों को अत्यन्त आनन्द होता था । उसके जैसे तो छोटे-छोटे सुन्दर हाथ-पाँव और उनमें वैसे ही छोटे-छोटे आभूषण पहनाये गये, उनसे वह बड़ा ही सुन्दर दिखता था । उसकी बाल-बुद्धि की चंचलता देखकर सबको बड़ी प्रसन्नता होती थी ।

एक और सेठ इसी चम्पापुरी में रहता था । उसका नाम सागरदत्त था । वह भी बड़ा बुद्धिमान और धनी था । उसकी स्त्री का नाम सागरसेना था । वृषभदास और सागरदत्त की परस्पर में गाढ़ी मित्रता थी । इसी मित्रता के वश होकर एक दिन सागरदत्त ने वृषभदास से कहा । प्रिय मित्र, मेरी प्रिया के जो सन्तान होगी और वह यदि लड़की हुई तो मैं उसका ब्याह आपके सुदर्शन के साथ ही करँगा । यह सम्बन्ध अपने लिये बड़ा सुख का कारण होगा । भावना निष्फल नहीं जाती, इस उक्ति के अनुसार सागरदत्त के बड़ी सुन्दरी और गुणवती लड़की ही हुई । उसका नाम रखा गया मनोरमा । वह भी दिनोंदिन बढ़ने लगी ।

इधर सुदर्शन ने मुग्धावस्था को छोड़कर कुमारावस्था में पाँव रखा । रूप से, तेज से, शरीर की सुन्दरता और गठन से वह देवकुमार-सा दिखने लगा । उसे सुन्दरता में कामदेव से भी बढ़कर देखकर वृषभदास ने बड़े वैभव के साथ देव-गुरु-शास्त्र की पूजा की और इसी शुभ दिन में उसे गुरु के पास पढ़ने को भेज दिया । सुदर्शन भाग्यशाली और बुद्धिमान था, इसलिए वह थोड़े ही दिनों में शास्त्ररूपी समुद्र के पार को प्राप्त हो गया । अच्छा विद्वान हो गया । सुदर्शन की पुरोहित-पुत्र कपिल के साथ मित्रता हो गयी । सुदर्शन उसे जी-जान से चाहने लगा । कपिल को भी एक पलभर सुदर्शन को न देखे तो चैन नहीं पड़ता था । वह सदा उसके साथ रहा करता था । कपिल हृदय का भी बड़ा पवित्र था ।

सुदर्शन ने अब कुमार अवस्था को छोड़कर जवानी में पाँव रखा । रत्नों के आभूषणों और फूलों की मालाओं ने उसकी अपूर्व शोभा बढ़ा दी । नेत्रों ने चंचलता और प्रसन्नता धारण की । मुख चन्द्रमा की तरह शोभा देने लगा । चौड़ा ललाट कान्ति से शोभित उठा । मोतियों के हारों ने गले और छाती की शोभा में और भी सुन्दरता पैदा कर दी । अएगूठी, कड़े, पोंची आदि आभूषणों से हाथ कृतार्थ हुए । रत्नों की करधनी से कमर प्रकाशित हो उठी । सुदर्शन की जाँघें केले के स्तम्भ समान कोमल और सुन्दर थी । उसका सारा शरीर कान्ति से दिप रहा था । उसके चरण-कमल नखरूपी चन्द्रमा की किरणों से बड़ी सुन्दरता धारण किये थे । वह सदा बहुमूल्य और सुन्दर वस्त्राभूषणों से, चन्दन और सुगन्धित फूलमालाओं से सजा रहता था । इस प्रकार उसे शारीरिक सम्पत्ति और धन-वैभव का मनचाहा सुख तो प्राप्त था ही, पर इसके साथ ही उसे धार्मिक सम्पत्ति भी, जो वास्तव में सुख की कारण है, प्राप्त थी । वह बड़ा धर्मात्मा था, बुद्धिवान् था, विचारशील था, साहसी था, चतुर था, विवेकी था, विनयी था, देव-गुरु-शास्त्र का सच्चा भक्त था, बड़ा बोलनेवाला था, स्वरूपवान् था, गुणी था और हृदय का बड़ा पवित्र था । एक महापुरुष में जो लक्षण होने चाहिए, वे यशस्विता, तेजस्विता आदि प्राय: सभी गुण सुदर्शन को प्राप्त थे । इस प्रकार युवावस्था को प्राप्त होकर अपने गुणों द्वारा सुदर्शन देवकुमारों जैसा शोभने लगा ।

यह सब पुण्य का प्रभाव है कि जो सुदर्शन कामदेव और गुणों का समुद्र हुआ; और जिसी सुन्दरता की समानता संसार की कोई वस्तु नहीं कर सकी । इसे जो देख पाता, उसी की आँखों में यह बस जाता था । सबको बड़ा प्रिय लगता था । इस प्रकार कुमार अवस्था के योग्य सुखों को इसने खूब भोगा । तब जो तत्त्वज्ञ हैं । धर्म का प्रभाव जानते हैं, उन्हें उचित है कि वे भी धर्म का सेवन करें । क्योंकि धर्म ही धर्मप्राप्ति का कारण और सुख की खान है और इसीलिए धर्मात्मा जन जिनधर्म का आश्रय लेते हैं । धर्म से सब गुण प्राप्त होते हैं । धर्म को छोड़कर और कोई ऐसी वस्तु नहीं जो जीव का हित कर सके । ऐसे उच्च धर्म का मूल है दया । उसमें मैं अपने मन को लगाता हूँ । एकाग्र करता हूँ । उस धर्म को मेरा नमस्कार है । वह मेरे पापों का नाश करे ।