+ सुदर्शन का निर्वाण-गमन -
सुदर्शन का निर्वाण-गमन

  कथा 

कथा :

जिन्होंने सब कर्मों को जीत लिया, उन परम धीर और गुणों के समुद्र सुदर्शन मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ । वे मुझे अपनी शक्ति प्रदान करें ।

देवदत्ता उन्हें श्मशान में खड़ा कर चली गयी । वे उसी तरह स्थिर-मन, जितेन्द्री और निर्विकार हो ध्यान करते रहे । इसी समय वह जो पूर्व जन्म में अभयमती रानी थी और जिसने पहले भी सुदर्शन मुनि पर उपसर्ग किया था, विमान मैं बैठी हुई आकाश मार्ग से जा रही थी । मुनि के ऊपर ज्यों ही उसका विमान आया कि वह मुनि के योग-प्रभाव से आगे न बढ़ पाया । वहीं कीलित हो गया । विमान को ठहरा देख व्यन्तरी को बड़ा आश्चर्य हुआ । तब उसने विमान के ठहर जाने का कारण जानने के लिए चारों और नजर दौड़ाई । उसे नीचे की ओर दिखायी दिया कि सब परिग्रह रहित, परम गुणवान और शरीर तक से मोह छोड़े हुए एक दिगम्बर महात्मा ध्यान कर रहे हैं । उन्हें देखते ही व्यन्तरी के क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा । उसने कु-अवधिज्ञान से मुनि के साथ जिस कारण उसकी शत्रुता हुई थी, उसे जान लिया । उसे यह भी ज्ञान हो गया कि इन मुनि ने मेरी रति-कामना को भी पूरा नहीं किया था और इसी कारण मुझे मरना पड़ा था । तब उस बैर का बदला चुकाने के लिए उसने मुनि पर उपसर्ग करना विचारा । वह आकाश से नीचे उतरकर सुदर्शन के पास आयी और अपनी बड़ी डरावनी क्रूर सूरत बना मुनि से बोली । सुदर्शन! मुझे खूब याद है कि मैं पूर्व जन्म में एक राजरानी थी । मैंने तब बड़ी आशा से तेरे साथ सम्भोगसुख की इच्छा की थी; परन्तु तूने अपने इस धीरता के अभिमान में आकर मेरी उस इच्छा का तिरस्कार किया था । उसी दु:ख के मारे मरकर मैं इस जन्म में व्यन्तरी हुई । मैंने पहले भी तुझ पर उपसर्ग किया था, परन्तु उस समय किसी देव ने तुझे मौत के मुख से बचा लिया था । अस्तु, अब बतला कि इस समय मैं जो तुझे कष्ट दूँगी, उनसे तेरी कौन रक्षा करेगा? इस प्रकार कड़े वचनों के साथ उस पापिनी ने मुनि पर उपसर्ग करना शुरु किया । उसे विक्रियाऋद्धि तो प्राप्त थी ही, सो उसने नाना भाँति की भयावनी और क्रूर सूरतें बनाकर मुनि को डराया, अनेक दुर्वचन कहे, बाँधा, मारापीटा । उन्हें कष्ट देने में उसने कोई कमी न रखी । उस समय मुनि के योगबल से देवों के आसन कम्पित हुए । जिस देव ने सुदर्शन का उपसर्ग पहले भी दूर किया था, वही अपने आसन के कम्पित होने से सुदर्शन पर फिर उपसर्ग हुआ जानकर उसी समय वहाँ आया । सुदर्शन की उसने तीन प्रदक्षिणा दी, पूजा की और उन्हें नमस्कार कर वह उस व्यन्तरी से बोला ।

देवी! तुझे इन महा मुनि पर उपसर्ग करना उचित नहीं । वह धर्म का नाश करनेवाला, पाप का खान, निन्दनीय और नरकों में ले जानेवाला है । जो पापी लोग इन मुनियों की निन्दा करते हैं, वे नरकादि दुर्गति में भव-भव में निन्दा के पात्र होते हैं । जो मूर्ख इन निस्पृह महात्माओं को कष्ट देते हैं । दु:ख पहुँचाते हैं, वे दुर्गतियों में महान दु:ख उठाते हैं । और जो इनका मन-वचन-काय से थोड़ा भी बुरा चिन्तन करते हैं, वे पग-पग पर हजारों दु:खों को भोगते हैं । देवी! यह सब जानकर तुझे इन महात्मा के साथ शत्रुता करना उचित नहीं । तू इनकी भक्ति कर, इनके हाथ जोड़, जिससे तेरा कल्याण हो । कारण कि जो योगियों की भक्ति करते हैं, वे उस पुण्य के उदय से सब जगह सौभाग्य, सुख-सम्पत्ति प्राप्त करते हैं । जो मुनियों के चरण-कमलों में अपना मस्तक नवाते हैं, उन्हें फिर इन्द्रादि देव तक पूजते हैं । नमस्कार करते हैं और जो भव्यजन ऐसे योगियों के चरणों की पूजा करते हैं, वे सारे संसार द्वारा पूज्य होते हैं । इत्यादि गुण-दोष, हानि-लाभ विचार कर तुझे उचित है कि इनके साथ ईर्षाभाव छोड़कर तू अपने कल्याण के लिए इनकी भक्ति करे । । यक्ष ने व्यन्तरी को इस प्रकार बहुत समझाया, पर इससे उसको रंचमात्र भी शान्ति न हुई । किन्तु उसने उल्टी लाल आँख कर उस यक्ष को घुड़की बताना चाहा ।

उसकी यह दशा देख यक्ष ने सोचा । दुषें को दिया धर्मोपदेश उन्हें शान्ति न पहुँचाकर उनकी क्रोधाग्नि को और भड़का देता है । ऐसे लोगों को समझाना सर्प को दूध पिलाने के बराबर है । यक्ष ने अपने कहे का कुछ उपयोग होता न देखकर देवी को जरा कड़े शब्दों में फटकारा और मुनि का उपसर्ग दूर करने के लिए वह बोला । पापिनी! दुराचारिणी!! मुनि पर जो तूने उपसर्ग करना विचारा है, याद रख इस महापाप से तुझे दुर्गति में जो दु:ख भोगना पड़ेगा, वह वचनों द्वारा नहीं कहा जा सकता । इसलिए मैं तुझे समझाता हूँ कि तू मेरे कहने से अपने इस दुराग्रह को छोड़ दे । यदि तूने अब भी अपने आग्रह को न छोड़ा तो फिर मुझे भी तुझे इसका प्रायश्चित्त देने के लिए लाचार हो तैयार होना पड़ेगा । अब भी अपने भले के लिए समझ जा ।

व्यन्तरी उसकी फटकार से शान्त न हुई, किन्तु क्रोधान्ध हो उससे लड़ने को तैयार हो गयी । दोनों में बड़ी भारी लड़ाई छिड़ी । दोनों ही को विक्रियाऋद्धि प्राप्त थी, तब उनके बल का क्या पूछना? दोनों ही ने अपनी-अपनी दैवी शक्ति से अनेक नये-नये आयुध आविष्कार किये, अनेक विद्यायें प्रगट कीं और भयानक लड़ाई लड़ी । उनकी यह लड़ाई कोई सात दिन तक बराबर चलती रही ।

आखिर व्यन्तरी की शक्ति शिथिल पड़ गयी । यक्ष को विजयश्री प्राप्त हुई । व्यन्तरी उसके सामने अब ठहर न सकी । वह भाग गयी । इसी समय महायोगी सुदर्शन ने योग-निरोध कर क्षपकश्रेणी आरोहण की, जो मोक्ष जाने के लिए नसैनी जैसी है । इसके बाद उन्होंने आत्मानुभव से उत्पन्न हुए और कर्मरूपी वन को भस्म करनेवाले शुक्लध्यान के पहले पाये का निर्विकल्प निरानन्दमय हृदय में ध्यान करना शुरु किया । इस ध्यान के बल से परमानन्द स्वरूप सुदर्शन के बहुत सी कर्म-प्रकृतियों के साथ-साथ मोहनीय कर्म का नाश हो गया । इस प्रकार मोहशत्रु का जयलाभ कर इनने शीलरूपी कवच द्वारा अपने आत्मा को ढका और गुणसेना को लिये हुए वे चारित्ररूपी रणभूमि में उतरे । यहाँ वे उपशमरूपी हाथी पर चढ़कर ध्यानरूपी खड्ग को हाथ में लिये कर्मशत्रुओं पर विजय करने के लिए एक वीर योद्धा से शोभने लगे । वहाँ इनने बड़ी शीघ्रता के साथ उछलकर । परिणामों को उन्नत कर एक ऐसी छलाँग मारी कि देखते-देखते अत्यन्त दुर्लभ और केवलज्ञान के कारणभूत क्षीणकषाय नाम के गुणस्थान को प्राप्त कर लिया । फिर शेष बचे एक योग के द्वारा शुद्ध हृदय से दूसरे शुक्लध्यान एकत्ववितर्क-अविचार का, जो मणिमय दीपक की तरह प्रकाश करनेवाला है, इनने ध्यान किया । इस ध्यान के बल से बाकी बचे तीन घातिया कर्मों का भी इन्होंने नाश कर दिया । जैसे राजा अपने शत्रुओं को नष्ट कर देता है, इस प्रकार त्रेसठ कर्मप्रकृतियों का नाश कर सुदर्शन ने आत्मशत्रुओं पर विजय-लाभ किया । इसी समय इस अपूर्व विजय-लाभ से लोकालोक का प्रकाशक, जगत्पूज्य और मुक्ति-सुन्दरी के मुख देखने को काँच जैसा केवलज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया । इसी के साथ उन्हें नौ केवललब्धियाँ प्राप्त हुईं । वे ये हैं । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त दान, धर्मोपदेश कृत अनन्त लाभ, पुण्य से होनेवाला पुष्पवृष्टि आदि रूप अनन्त भोगस मवसरण सिंहासनादिरूप अनन्त उपभोग, जिसकी शक्ति का पार नहीं ऐसा अनन्त वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और चन्द्रमा के समान निर्मल यथाख्यातचारित्र ।

सुदर्शन को प्राप्त हुए इस केवलज्ञान के प्रभाव से सहसा स्वर्ग के देवों के आसन कम्पित हुए, मुकुट विनम्र हुए, महलों में फूलों की वर्षा हुई, नाना भाँति के बाजे बजे । इनके सिवा और भी कितने ही आश्चर्य हुए । इन आश्चर्यों से चारों काय के देवों ने अन्त:कृत केवली सुदर्शन को केवलज्ञान हुआ जान लिया । तब उन्होंने अंजलि जोड़कर भगवान को परोक्ष ही नमस्कार किया और उनके ज्ञानकल्याण की पूजन को वे तैयार हुए ।

इन्द्र ने तब पहले ही भगवान के विराजने को गंधकुटी के रचने की कुबेर को आज्ञा की । इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने आकर एक भव्य और सुन्दर सुवर्णमय गन्धकुटी बनायी । उसमें उसने नाना भाँति के सुन्दर-सुन्दर रत्नों की जड़ाई की । ध्वजा, सिंहासन, छत्र, चंवर आदि द्वारा उसे विभूषित किया । मानस्तम्भों की रचना की । भगवान के द्वारा भव्य जन धर्म लाभ करें, संसार के जीवों का कल्याण हो, यह उसका उद्देश्य था । इसके बाद सब देवगण अपने-अपने विमानों पर चढ़कर दिव्य वैभव के साथ जय-जयकार करते, गाते बजाते और दसों दिशाओं को शब्दमय करते भगवान सुदर्शन के केवलज्ञान की पूजा के लिए आये । उनके साथ उनकी देवियाँ भी आयीं । उनका धर्मप्रेम उनके आनन्दमय प्रसन्न चेहरे से टपक पड़ता था । भगवान जहाँ गन्धकुटी पर विराजे थे, वहाँ आकर पहले ही उन्होंने गन्धकुटी की तीन प्रदक्षिणा की और फिर सब शरीर झुका भगवान को पंचांग नमस्कार किया । इसके बाद उन्होंने बड़ी भक्ति के साथ सुवर्णर त्नमयी झारी में भरे जल, मलयागिरि चन्दन, मोतियों के अक्षत, कल्पवृक्षों के फूल, अमृत के बने नैवेद्य, मणिमय प्रदीप, दशांग धूप, सुन्दर और सुगन्धित फल आदि स्वर्गीय द्रव्यों द्वारा भगवान के चरण-कमलों की पूजा की, फूलों की वर्षा की, नृत्य किया, गाया, बजाया और खूब आनन्द-उत्सव मनाया । उनका पूजा द्रव्य, उनका गीत-संगीत देखकर लोगों को आश्चर्य होता था । उनकी सभी बातें निरुपम थीं । भक्ति के वश हुए वे सब देवगण पूजन पूरी हुए बाद भगवान को नमस्कार कर उनकी स्तुति करने लगे ।

भगवन्, आप धन्य हैं । आपकी यह अद्भुत धीरता हमें आश्चर्य पैदा कर रही है । आप अनन्त कष्ट के जीतनेवाले महान पर्वत हैं । प्रभो! आप ही पूज्यों के पूज्य, गुरुओं के गुरु, ज्ञानियों के ज्ञानी, देवों के देव, योगियों के योगी, तपस्वियों के तपस्वी, तेजस्वियों के तेजस्वी, गुणियों के गुणी, विजेताओं के विजेता और प्रतापियों के प्रतापी हैं । स्वामी! आप ही हमारे मनोरथों के पूरे करनेवाले और दिव्यरूप के धारी हैं; संसार के स्वामी और भव्यजनों के हित में तत्पर रहते हैं; केवलज्ञानरूपी नेत्र से युक्त और संसार में आनन्द के बढ़ानेवाले हैं; सब देवगण तथा चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा पूज्य और भव्यजनों को संसार-समुद्र से पार करनेवाले परम बन्धु हैं । भगवन्! आप ही हमें इन्द्रिय-सुख एवं शिव-सुख के देनेवाले हैं । प्रभो! आपके समान उपसर्गों का जीतनेवाला धीर इस समय संसार में कोई नहीं । नाथ! यही क्या, किन्तु आपमें तो अनन्त गुण हैं । उनका वर्णन गणधर भगवान तक तो कर ही नहीं सकते, तब हम जैसे अल्पज्ञों की, जो एक बहुत ही साधारण ज्ञान रखते हैं, क्या चली । कृपा के भण्डार! यही समझ हमने आपकी स्तुति के लिए अधिक कष्ट उठाना उचित न समझा । आप गुणों के समुद्र हैं, अनन्त-चारित्र और अनन्त सुख के धारक हैं, दिव्यरूपी और परमात्मा है । सबसे उत्कृष्ट हैं, मुक्ति-सुन्दरी के स्वामी और आनन्द के देनेवाले हैं । इसलिए भक्तिपूर्वक आपके चरण-कमलों को हम नमस्कार करते हैं । गुणसागर! हमने जो आपकी स्तुति की, वह इस आशा से नहीं कि आप हमें संसार की उच्च से उच्च धनस म्पत्ति, ऐश्वर्य-वैभव दें; किन्तु हम चाहते हैं आपकी सरीखी आत्मशक्ति, जिसके द्वारा मोक्षमार्ग को सुख-साध्य बना सकें । कृपाकर आप हमें यही शक्ति प्रदान करें, यह हमारी सानुरोध सानुनय आपसे बारबार प्रार्थना है । देवता लोग इस प्रकार भगवान की स्तुति-प्रार्थना कर धर्मोपदेश सुनने के लिए भगवान के चारों ओर बैठ गये । तब भगवन सन्मार्ग की प्रवृत्ति के लिए दिव्यध्वनि द्वारा धर्मतत्त्व का, जिसमें कि सब पदार्थ गर्भित हैं, उपदेश करने लगे । वे बोले । भव्यजनों! तुम आत्महित करना चाहते हो, तो इन विषयरूपी चोरों को नष्ट कर धर्म का पालन करो । यह धर्म स्वर्ग और मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति का वशीकरण मन्त्र है । इस धर्म के दो भेद हैं । पहला यतिधर्म और दूसरा श्रावकधर्म या गृहस्थधर्म । श्रावकधर्म सुख-साध्य है और स्वर्ग का कारण है । मुनिधर्म कष्साध्य है और साक्षात् मोक्ष का कारण है । मुनिधर्म में किसी प्रकार का आरम्भ-सारम्भ, बणिज-व्यापार नहीं किया जाता । वह सर्वथा निष्पाप है, परमोत्कृष्ट है, साररूप है और सुख का समुद्र है । सम्यग्दर्शन के साथ सप्त व्यसन का त्याग, आठ मूलगुणों का धारण, बारह व्रतों का पालन और ग्यारह प्रतिमाओं का ग्रहण, यह सब श्रावकधर्म है । श्रावकधर्म एकदेशरूप होता है । एकदेश का मतलब यह है कि जैसे ब्रह्मचर्यव्रत दोनों ही धर्मों में धरण किया जाता है, किन्तु गृहस्थधर्म का पालन करनेवाला अपनी स्त्री के साथ सम्बन्ध कर सकता है, पर मुनिधर्म का पालक स्त्री-मात्र का त्यागी होता है । इसी प्रकार अहिंसाव्रत सत्यव्रत, अचौर्यव्रत, परिग्रह-परिमाणव्रत आदि में समझना चाहिए । इसके सिवा मुनिधर्म में और भी कई विशेषताँए हैं ।

उक्त बातों के सिवा श्रावकधर्म की और भी कई बातें हैं । और वे श्रावकों के लिए आवश्यक हैं । जैसे अपनी आयुष्य के बढ़ानेवाली जिनभगवान की पूजा करना, निग्र्रन्थ गुरुओं की भक्तिपूर्वक उपासना -सेवा करना, जैनशास्त्रों का स्वाध्याय करना, व्रत-संयम का पालना, बारह प्रकार तप धारण करना और आहारदान, औषधदिान, अभयदान तथा ज्ञानदान, इन चार दानों का देना । ये छह गृहस्थों के नित्यकर्म कहलाते हैं । इस श्रावक धर्म को जो सम्यग्दर्शन सहित पालन करते हैं, वे सर्वार्थसिद्धि का सुख लाभ कर क्रम से मोक्ष जाते हैं ।

मुनिधर्म महान धर्म है । इसमें तेरह प्रकार चारित्र, अटईस मूलगुण, चौरासी लाख उत्तर गुण और बारह प्रकार तप धारण किया जाता है । मन-वचन-काय की क्रियाओं को रोका जाता है और उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि धर्म के दस परम लक्षणों का पालन किया जाता है । मोक्ष का साक्षात् प्राप्त करानेवाला यही धर्म हैं । इसे संसार-शरीर-भोगादि से सर्वथा मोह छोड़े हुए मुनि ही धारण कर सकते हैं । जो रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारी इस यति-धर्म को धारण करते हैं, वे संसारपूज्य होकर अन्त में मोक्षलक्ष्मी के स्वामी होते हैं ।

जिनशासन में सात तत्त्व कहे गये हैं । वे हैं । जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इनका यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन का कारण है । इनका संक्षेप स्वरूप इस प्रकार है ।

जीव उसे -कहते हैं । जिसमें चेतना-जानना और देखना पाया जाँ । जो व्यवहार से दस प्राणों और निश्चय से चार प्राणों का धारक हो, उपयोगमय हो, अनादि हो, अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता हो तथा अनन्त गुणों का धारक हो ।

अजीव उसे कहते हैं । जिसमें चेतना अर्थात् देखना-जानना न पाया जाय । इसके पाँच भेद हैं । पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । पुद्गल वह है । जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चार बातें हों । धर्म वह है । जो जीव और पुद्गलों को चलने में सहायक (निमित्त) हो, जैसे मछली को जल । अधर्म वह है । जो उक्त दोनों द्रव्यों को ठहराने में सहायक हो । जैसे रास्तागीर को वृक्षों की छाया । आकाश उसे कहते हैं । जो सब द्रव्यों को स्थानदान दे । काल के दो भेद हैं । व्यवहार-काल और निश्चय-काल । व्यवहार-काल वर्ष, महीना, दिन, प्रहर, घड़ी, मिनिख्, सैकेंड आदि रूप है और निश्चय-काल परिवर्तनरूप है । वह पुद्गलादि द्रव्यों के परिणमन से जाना जाता है । अर्थात् उनकी जो समयस मय में जीर्णता । नवीनतारूप पर्यायें बदला करती हैं, वे ही 'निश्चयकाल कोई खास द्रव्य है', ऐसी विश्वास कराती है । आस्रव : मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय आदि द्वारा जो कर्म आते हैं, वह आस्रव है । यह संसार में जीवों को अनन्त काल तक भ्रमण कराता है ।

बन्ध : कर्म और आत्मा का परस्पर में एकक्षेत्ररूप होना बन्ध है । जैसे दूध में पानी मिला देने से उन दोनों की पृथक्पृथक् सत्ता नहीं जान पड़ती । बन्ध के-प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध ऐसे चार भेद हैं । यह बन्ध सब दु:खों का कारण है ।

संवर : आत्मध्यान, व्रत, तप आदि द्वारा कर्मों के आगमन को रोक देने को संवर कहते हैं । यह मोक्ष का कारण है, इसलिए इसे प्राप्त करने का यत्न करना चाहिए ।

निर्जरा : पूर्वस्थित कर्मों का थोड़ा-थोड़ा क्षय होने को निर्जरा कहते हैं । इसके दो भेद हैं । सविपाकनिर्जरा और अविपाकनिर्जरा । कर्म अपना फल देकर जो नष्ट हो, वह सविपाकनिर्जरा है और तपस्या द्वारा जो कर्म नष्ट किये जाँए, वह अविपाकनिर्जरा है ।

मोक्ष : आत्मा के साथ जो कर्मों का सम्बन्ध हो रहा था, उसका सर्वथा नष्ट हो जाना । आत्मा से कर्मों का सदा के लिए सम्बन्ध छूट जाना, वह मोक्ष है । कर्मों का सम्बन्ध छूटने से आत्मा अत्यन्त शुद्ध हो जाता है । फिर कभी उसके साथ कर्मों का सम्बन्ध नहीं होता । इस अवस्था में आत्मा अनन्त गुण का धारी हो जाता है । इन सात तत्त्वों के शंकादि दोषरहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह सम्यग्दर्शन मोक्ष प्राप्त करने की पहली सीढ़ी है । पदार्थों का जैसा स्वरूप है, उसे वैसा जानना सम्यग्ज्ञान है । यह ज्ञान संसार से अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करनेवाला दीपक है ।

हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि पाँच पापों के छोड़ने तथा पाँच समिति और तीन गुप्ति के पालने को सम्यक्चारित्र कहते हैं । इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को व्यवहाररत्नत्रय कहते हैं । यह सब प्रकार के अभ्युदय और रदि्धि-सिद्धि का देनेवाला है । इसके फल से आत्मा सर्वार्थसिद्धि लाभ करता है । यह हुआ व्यवहाररत्नत्रय । और निश्चयरत्नत्रय इस प्रकार है ।

ज्ञानी पुरुष अनन्त गुणमय अपने आत्मा का जो अन्तरंग में श्रद्धान करते हैं, वह निश्चय सम्यग्दर्शन है; केवलज्ञानस्वरूप सिद्ध समान आत्मा का जो अनुभव करते हैं । उसे जानते हैं, वह निश्चय ज्ञान है और परम-आनन्द के समुद्ररूप अपने आत्मा का अन्तर में आचरण करते हैं । पर पदार्थों में राग-द्वेष करते हुए आत्मा को उस ओर से हटाकर अपने आप में स्थिर करते हैं, वह निश्चय सम्यक् चारित्र है । वह निश्चयरत्नत्रय उसी भव से मोक्ष-प्राप्ति का कारण और बाह्य चिन्ताओं से रहित सब गुणों का स्थान है । इस प्रकार रत्नत्रय के दो भेद होने से मोक्षमार्ग के भी दो भेद हो गये । मोक्ष की इच्छा करनेवाले को यह रत्नत्रय धारण करना चाहिए । यह मुक्ति-स्त्री का एक महान वशीकरण है । मोह का नाश कर जो भव्यजन मोक्ष को गये और जाँएगे, वे इसी दो प्रकार के रत्नत्रय द्वारा । इसे छोड़कर मोक्ष जाने का और कोई मार्ग नहीं है । यह जानकर बुद्धिमानों को इस इन्द्रियों के स्वामी मोह-शत्रु का नाश कर आत्महित के लिए दो प्रकार का रत्नत्रय धारण करना चाहिए । इस प्रकार सुदर्शन केवली के मुख-चन्द्रमा से झरे धर्मामृत को पीकर देव और नर बहुत सन्तुष्ट हुए । उस समय कितने ही भव्यजनों को मोक्षमार्ग का स्वरूप जानकर वैराग्य हो गया । उन्होंने मोह का नाश कर पवित्र जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । कितनों ने भगवान के द्वारा धर्म का स्वरूप सुनकर धर्मसिद्धि और मोक्ष के लिए अणुव्रत आदि व्रतों को धारण किया । कितनी विवेकिनी स्त्रियों ने उपचारम हाव्रत ग्रहण किये । कितनी ने श्राविकाओं के व्रत लिये । कितने पशुओं ने भी भगवान के द्वारा बोध को प्राप्त होकर धर्म प्राप्ति के लिए काललब्धि के अनुसार अपने योग्य व्रतों को ग्रहण किया । कुछ देवों, कुछ मनुष्यों, कुछ देवियों और कुछ स्त्रियों ने चन्द्रमा के समान निर्मल सम्यक्त्व को ही धारण किया । उस व्यन्तरी ने भी भगवान के मुख से धर्मरसायन का पान कर हलाहल विष के समान मिथ्यात्व को मन-वचन-काय से छोड़ दिया । अपनी आत्मा की बड़ी निन्दा कर उसने भगवान के चरणों को नमस्कार कर मोक्ष प्राप्ति के अर्थ मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक सम्यग्दर्शन ग्रहण किया । और जो वह अभयमति की धाय तथा वेश्या थी, उन सबने सुदर्शन केवली के मुँह से धर्म का उपदेश सुनकर अपने पापकर्म पर बड़ा दु:ख प्रगट किया । उन्होंने अपनी बड़ी निन्दा की, इसके बाद देवताओं, चक्रवर्तियों, विद्याधरों आदि द्वारा सेवनीय सर्वज्ञ सुदर्शन मुनि के चरणों को नमस्कार कर उन सबने अपने-अपने योग्य व्रत ग्रहण किये । सुदर्शन की स्त्री मनोरमा सुदर्शन को केवलज्ञान हुआ सुनकर अपने पुत्र के मना करने पर भी धर्म-सिद्धि के लिए सुदर्शन केवली के पास आयी । उन्हें नमस्कार कर उसने भगवान का उपदेश सुना । उससे उसे बड़ा बैराग्य हो गया । उसने मोक्ष प्राप्ति की कारण जिनदीक्षा / आर्यिकाव्रत स्वीकार कर ली । इसके बाद सुदर्शन केवली भव्यजनों को बोध देने और मोक्षमार्ग का प्रचार करने के लिए चारों संघों के साथ नाना देश और नगरों में विहार करने लगे । उन लोकनाथ भगवान ने अपने धर्मोपदेशामृत से अनेक जनों को सन्तुष्ट किया, अनेकों को मोक्षमार्ग में लगाया, अनेकों को अनमोल रत्नत्रय से विभूषित किया, अनेकों को जगत का हित करनेवाले सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान, ये महान रत्न दिये, अनेकों को धर्म-रत्न दिया और अनेकों को तप-रत्न दिया । इस प्रकार सब संसार के जीवों को महान दान देकर भगवान सुदर्शन कल्पवृक्ष की तरह शोभा को प्राप्त हुए ।

अन्त में भगवान ने योग-निरोध कर धर्मोपदेश करना छोड़ दिया और शिव-सुख की प्राप्ति के लिए चौदहवाँ गुणस्थान प्राप्त कर नि:क्रिय अवस्था धारण कर ली । इसके बाद वे शुक्लध्यान के तीसरे पाये को छोड़कर अन्तिम व्युपरतक्रियानिर्वृत्ति नाम ध्यान करने लगे । यह ध्यान कर्म-शत्रु और शरीरादिक का नाश करनेवाला तथा मोक्ष का प्राप्त करानेवाला है । इस ध्यान के पहले समय में भगवान ने बहत्तर प्राकृतियों का नाश किया और अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियों का । इस प्रकार सुदर्शन केवली भगवान ने सब कर्म और तीनों शरीर का नाश कर अनन्त-दर्शन आदि आठ श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त किया । वे संसार-वन्दनीय हुए । पौष सुदी पंचमी को भगवान् ने, स्वभाव से ऊँचे की ओर जानेवाले एरण्ड के बीज की तरह ऊध्र्वगमन कर मोक्ष लाभ किया । वहाँ वे सिद्ध भगवान नित्य, अपने आत्मानन्द से प्राप्त हुए, घट-बढ़रहित, बाधा-हीन, निरुपम, अतीन्द्रिय, दु:खरहित, और अन्य द्रव्यों की सहायरहित लोकाग्रभा ग का अनन्त-सुख भोगते हैं और अनन्त काल तक भोगेंगे । इन्द्रादिक देवताओं, विद्याधरों, चक्रवर्तियों तथा भोगभूमि में उत्पन्न लोगों ने जो सुख भोगा, जो सुख वे भोगते हैं तथा आगे भोगेंगे, उस सब सुख को मिलाकर इकठ्ठा कर देने पर भी वह सिद्धों के एक समय में भोगे हुए सुख की भी तुलना नहीं कर सकता । उस सुख का शब्दों द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता । वह वचनों के अगोचर है ।

पहले जो धात्रीवाहन आदि राजा लोग मुनि हुए थे, उनमें कितने तप द्वारा कर्मों का नाशकर मोक्ष चले गये । कितने अपनी शक्ति के अनुसार की हुई तपस्या से सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि गये । कितनी शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करनेवाली आर्यिकायें तप के प्रभाव से निंद्य स्त्रीलिंग का नाशकर सौधर्म स्वर्ग में गयीं; कितनी अच्युत स्वर्ग को गयीं । कितनी अच्युत स्वर्ग में देव हुईं और कितनी उसी स्वर्ग में सुख देनेवाली देवियाँ हुईं । इस प्रकार नमस्कार-गर्भित केवल एक अरहन्त भगवान के नाम-स्मरणरूप पद के प्रभाव से अर्थात् 'णमो अरहन्ताणं' इस पद के ध्यान से एक सुभग नाम ग्वाला दूसरे जन्म में जग का आदरपात्र, बड़ा भारी धनी, धर्मबुद्धि और मुक्ति-स्त्री का प्रिय सुदर्शन हुआ ।

जिनकी संसार के बुद्धिमानों द्वारा स्तुति की गयी, जो अनन्त गुणों के समुद्र हुए और जो मुक्ति-वधू का बल्लभ बने, उन सुदर्शन को मैं नमस्कार करता हूँ; वे मुझे शिव का देनेवाले हों । मनुष्य और देवों द्वारा किये गये उपद्रवों से जो चलायमान न होकर पर्वत समान तप में अचल बने रहे और जिसने कैवल्य प्राप्त कर मुक्ति लाभ की, वे सुदर्शन मुझे शक्ति दें । जो संसार में परम सुन्दर कामदेव, धीर, दक्ष और प्रतापी हुए, जिनने सब परीषहों-कष्ट पर विजय प्राप्त की, उन सुदर्शन को परमार्थ सिद्धि के लिए मैं वन्दना करता हूँ ।

केवलज्ञान के समय जिन्हें इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र, आदि ने विभूषित किया, जिनका जन्म वैश्यकुल में हुआ, जो बड़े धर्मात्मा और दिव्य सुन्दरता से युक्त थे, जो अनन्त गुणों के समुद्र और महा बलवान थे, जो बड़े ही पवित्र थे और जिनने कर्म-पर्वत को तप-वज्र से तोड़कर निर्वाणरूपी सुख-रत्न प्राप्त किया, उन मुनि-श्रेष्ठ सुदर्शन को मैं नमस्कार करता हूँ और उनकी स्तुति करता हूँ । वे मुझे अपनी सी शक्ति दें ।

इस प्रकार भक्ति से जिनकी मैंने स्तुति की, जिसने चंचल स्त्रियों पर असाधारण विजय प्राप्त कर अपनी दृढ़ चारित्रता प्रगट की, जो कमों का नाशकर मोक्ष गये, अनेक गुणों से युक्त वे सुदर्शन योगिराज मुझे । जिसमें कर्मों का नाश वह मौत, दु:खरहित मोक्ष, दर्शन-ज्ञान-चारित्र की विशुद्धता करनेवाले अपने गुण और मोक्ष जाने को अपनी शक्ति, ये सब बातें दें ।

मेरे (सकलकीर्ति के) द्वारा रचा गया यह पवित्र और कल्याण का करनेवाला सुदर्शन महामुनि का चरित्र इस पृथ्वीतल में विद्वानों द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो । इसका खूब प्रचार हो ।

सब संसार जिनकी स्तुति करता है, वे भुक्ति-मुक्ति को देनेवाले तीर्थंकर, सत्पुरुषों को सब सिद्धि के देनेवाले और उत्कृष्ट अनन्त सिद्ध परमेष्ठी, पंचाचार पालन में तत्पर आचार्यगण, ज्ञान के समुद्र उपाध्याय और पाप नाश करनेवाले साधुजन, ये सब मंगल करें सुख दें ।

जो विचारशील शिव-सिद्धि के अर्थ इस निर्दोष चरित्र को पढ़ेंगे या दूसरों को सुनावेंगे और जो इसे विधिपूर्वक सुनेंगे, वे पुण्य से महासुख प्राप्त करेंगे ।

इस सुदर्शन चरित्र के श्लोकों की संख्या सब मिलाकर जोड़ने से नौ सौ (९00) है ।