+ संकट पर विजय -
संकट पर विजय

  कथा 

कथा :

सुदर्शन को आदि लेकर जितने धीरवीर अन्त:कृत केवली हुए । उपसर्ग सहते-सहते मृत्यु के अन्तिम समय में जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष लाभ किया, उन मुनिराजों को मैं नमस्कार करता हूँ । वे मुझे भी अपने जैसी शक्ति प्रदान करें ।

महामुनि सुदर्शन अनेक देशों और शहरों में विहार करते और रास्ते में पड़नेवाले तीर्थों की यात्रा करते हुए गमन कर रहे थे । धर्म में उनकी बुद्धि बड़ी दृढ़ हो गयी थी । वे चलते समय जमीन को देखकर बड़ी सावधानी से चलते । ऐसे उद्वतपने से वे कभी पाँव नहीं धरते, जिससे जीवों को कष्ट पहुँचे । उन्हें कभी तो आहार मिल जाता और कभी न भी मिलता । मिलने पर न वे खुशी मनाते और न मिलने पर दुखी नहीं होते । उनके भावों में यह महान सम भावना उत्पन्न हो गयी थी । वे सदा मन-वचन-काय से वैराग्यभावना का विचार करते रहते । परमार्थ-साधन में उनकी बड़ी तत्परता थी । वे महा वीतरागी और निस्पृह महात्मा थे । यह सब कुछ होने पर भी उनकी एक महान उच्चाकांक्षा थी और वह यह कि । मोक्ष के लिये वे बड़ा उत्कण्ठित थे ।

सुदर्शन धीरे-धीरे पाटलिपुत्र (पटना) में पहुँचे । वहाँ श्रावकों के बहुत घर थे । एक दिन वे आहार के लिए निकले । रास्ते में जाते हुए वे इस बात का विचार करते जाते थे कि कौन घर उत्तम लोगों का है और कौन नीच लोगों का । कारण साधु लोग उत्तम पुरुषों के यहीं आहार लेते हैं । मुनिराज सुदर्शन जो आहार करते वह इसलिए नहीं कि शरीर पुष्ट हो, किन्तु इसलिए कि धर्म साधना के लिए शरीर का टिका रहने के लिए आहार आवश्यक जानकर करते थे ।

अपनी दिव्य सुन्दरता से कामदेव को लजानेवाले उस महान वीर युवा महात्मा सुदर्शन को जाते हुए उस अभयमती रानी की दासी ने, जिसका कि ऊपर विवरण आ चुका है, देखा । उसने तब अपनी मालकिन देवदत्ता वेश्या से कहा । देखो, जिस सुदर्शन मुनि की बावत मैंने तुमसे जिक्र किया था, वह यह जा रहा है । अब यदि तुम कुछ कर सकती हो, तो करो । इतनी याद दिलाते ही देवदत्ता को अपनी प्रतिज्ञा की याद हो उठी । उसने तब अपनी एक दासी को बुलाया और उसे नकली श्राविका बनकर सुदर्शन मुनि को लिवा ले आने को भेजा । उस दुष्टिनि ने जाकर उसको नमस्कार किया और आहार के लिए प्रार्थना की । सुदर्शन खड़े हो गये । वे निष्कपट और शुद्ध-हृदयी थे; सो उनने उस दुष्टिनि की ठग-विद्या को न जान पाया । दासी मुनि को देवदत्ता के घर में ले आई । यहाँ से वह सुदर्शन को एक-दूसरे कमरे में लिवा ले गयी और नमस्कार कर उस दुराचारिणी ने मुनि को एक पट्टे पर बैठा दिया ।

इतने में देवदत्ता भी वहाँ आकर पास ही रखे हुए पट्टे पर बैठ गई । मुनि के साथ नाना भाँति कुचेष कर वह बोली । प्यारे! तुम बड़े ही सुन्दर हो, तुम्हारी इस दिव्य सुन्दरता को देखकर बेचारा कामदेव भी शर्मिन्दा होता है । तुम्हारे सौभाग्य, तेजस्विता आदि को देखकर मन में एक अपूर्व आनन्द का स्रोता बहने लगता है । तुुम गुणों के समुद्र हो । प्यारे! भाग्य ने तुम्हें सब कुछ दिया है । तुम्हारी भर जवानी की छटायें छूटकर जिधर उड़ती हैं, उधर ही वह सबको अपनी ओर खींचने लगती हैं । तब मैं जो तुम्हें इतना प्यार करती हूँ, इस पर तुमको आश्चर्य न करना चाहिए । तुम इतने बुद्धिमान होकर भी न जाने क्यों ऐसी झंझट में पड़े हो और इतना कष्ट सह रहे हो । बतलाइए तो इस दुर्धर तप को करके और ऐसा शारीरिक कष्ट उठाकर तुम क्या लाभ उठाओगे? और फिर तुमको करना ही क्या है, जिसके लिए ऐसा कष्ट उठाया जाय । तुम तो इन सब कष्ट को छोड़कर आनंद से यहीं रहो । मैंने तुम्हारी कृपा से बहुत धन कमाया है । मेरे पास सोने-जवाहरात के बने अच्छे-अच्छे गहने-दागीने हैं । भोगोपभोग की एक से एक बढ़िया चीज है । अच्छे कीमती और सुन्दर रेशमी वस्त्र हैं । मैं अधिक तुमसे क्या कहूँ, मेरे यहाँ जिन वस्तुओं का संग्रह है, वह संग्रह एक राजा के महल में भी न होगा । इसके सिवा सर्वोपरि जैसे तुम सुन्दर, वैसी ही मैं सुन्दरी । भगवान ने । विधि ने आपकी मेरी बड़ी अलबेली जोड़ी मिलाई है । यह देखकर मेरा मन तुम पर अनुरक्त हुआ है । तब प्रियवर! प्रार्थना को मान देकर तुम यहीं रहना स्वीकार करो । तुम और हम खूब आनन्द-भोग करेंगे और इस जिन्दगी का मजा लूटेंगे । क्योंकि इस असार संसार में एक स्त्री रत्न ही सार है । इसके द्वारा सब इन्द्रियाँ परितृप्त होती हैं । चतुर पुरुषों को इसके साथ सुखोपभोग करना ही चाहिए । ब्रह्माजी ने संसार में जितनी भोगोपभोग की वस्तुएँ निर्माण की हैं, वे सब स्त्री और पुरुषों के आनन्द उपभोग के लिए हैं । इसलिए इन्द्रियों की तृप्ति के लिए इन भोगोपभोगों को, जो जीवन को सफल करनेवाले हैं, भोगने ही चाहिए । और जो स्वर्ग-सुख का कारण यह तप है, वह तो बुढ़ापे में वानप्रस्थाश्रम में घर-बार छोड़कर धारण किया जाता है । जो समझदार लोग हैं, वे तो इसी प्रकार जैसी-जैसी उनकी अवस्था होती है उसी प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का सेवन करते हैं । आपको भी वैसा ही करना चाहिए । देवदत्ता की ये सब बातें सुन-सुनाकर सुदर्शन मुनि ने उससे कहा । ओ बे-समझ मूर्खिणी! तूने यह जो कुछ कहा, वह निंद्य है । बुरा है । तू स्त्री को रत्न कहकर यह बतलाना चाहती है कि संसार की सब वस्तुओं में स्त्री श्रेष्ठ है, पर तेरा यह कहना सत्य नहीं । झूठा है । क्योंकि स्त्री कैसी ही सुन्दर क्यों न हो, पर जब उसके सम्बन्ध में विचार करते हैं, तब यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उसके मुख में श्लेष्म-कफ, चर्म, हड्डी आदि को छोड़कर ऐसी कोई सुन्दर वस्तु नहीं जिसे अच्छे लोग प्यार कर सकें । स्त्रियों का उदर, जिसे बड़ी-बड़ी उपमाँए दी जाती हैं, मल, मूत्र, माँस, लोहू, मज्ज, हड्डी आदि दुर्गन्धित और निंद्य वस्तुओं से भरा हुआ है । उसमें ऐसी कोई मन को हरनेवाली चीज नहीं दिखायी पड़ती । स्त्रियों के स्तनों में माँस और खून के सिवा कोई पवित्र वस्तु नहीं । उनका योनिस्थान, जिससे कि सदा मल-मूत्रादि घृणित वस्तुएँ बहती रहती हैं, निंद्य और अपवित्रता की साक्षात् खान है । तूने जिन भोगोपभोग वस्तुओं को कामियों के लिए अच्छा बतलाया, बतला तो उनमें सार क्या है? और कौन उनमें ऐसी खूबी है जो वे तृप्ति की कारण कही जाँए? उनका मुँह, जिसे कामी लोग चाहते हैं । चूमते हैं, लारादि से युक्त है और सदा बदबू मारा करता है । उसका चूमना ऐसा है जैसा कुत्ते का मुर्दे और दुर्गन्धित शरीर को चाटना । जो विषय-लम्पटी लोग इस शरीर द्वारा भोगों को भोगते हैं और उसमें आनन्द मानते हैं, यदि विचार कर देखा जाये तो यह शरीर सब अपवित्रताओं का घर है । जिसके नौ द्वारों से सदा मलमूत्रादि दुर्गन्धित वस्तुएँ बहती रहती हैं, उस शरीर को भला ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो खिला-पिला कर पाले और वस्त्राभूषणों द्वारा सजावे । शरीर आत्मा का शत्रु है और शत्रु को कितना ही पाला-पोसा जाय पर अन्त में होगा वह दु:ख का कारण ही । यही हालत इस शरीर की है । इसे कितना ही खिला-पिलाकर पुष्ट करो । कष्ट न देकर आराम दो, पर यह अपने स्वभाव को न छोड़कर नाना भाँति रोगों को उत्पन्न करेगा और कष्ट देगा तथा परलोक में दुर्गति में पहुँचावेगा । इसलिए जो समझदार हैं । परलोक सुधारना चाहते हैं, वे इस शरीर को तप द्वारा सुखाकर अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करते हैं । जिन अनेक प्रकार के भोगों को भोगकर भी कामी लोग जब तृप्त नहीं हुए, तब उन नरकों में ले जानेवाले भोगों से सत्पुरुष को क्या लाभ? लोग तो यह समझते हैं कि विषयभोगों से तृप्ति होती है, पर वे नहीं जानते कि कामातुर लोग ज्यों- ज्यों इन भोगों को भोगते हैं, त्यों-त्यों उनकी इच्छा अधिक अधिक बढ़ती ही जाती है-उनसे रंचमात्र भी तृप्ति नहीं होती । यह कामरूपी अग्नि असाध्य है । इसका बुझा देना सहज नहीं । यह सारे शरीर को खाक में मिलाकर ही छोड़ती है । यह सब अनर्थों का कारण है । जैसे-जैसे सहवास बढ़ता है, यह भी फिर उसी तरह अधिकाधिक बढ़ती जाती है । ये भोग जहरीले सर्पों से भी सैकड़ों गुणा अधिक कष्ट देनेवाले हैं । क्योंकि सर्प तो एक जन्म में एक ही बार प्राणों को हरते हैं और ये भोग नरक, तिर्यंच आदि कुगतियों में अनन्त बार प्राणों को हरते हैं । इन्हें तू नरकों में ले जानेवाले और दोनों जन्मों को बिगाड़नेवाले महान शत्रु समझ । उन रोगों का सह लेना कहीं अच्छा है, जो थोड़े दु:खों के देनेवाले हैं, पर इन भोगों का भोगना अच्छा नहीं, जो जन्म-जन्म में अनन्त दु:खों के देनेवाले हैं । कारण, रोगों को शान्तिपूर्वक सह लेने से तो पुराने पाप नष्ट होते हैं और भोगों को भोगने से उल्टे नये पापकर्म बन्ध होते हैं और फिर उनसे दुर्गति में दु:ख उठाना पड़ता है । जो मूर्खजन भोगों को भोगकर अपने लिए सुख की आशा करते हैं, समझना चाहिए कि वे कालकूट विष को खाकर चिर काल तक जीना चाहते हैं । पर यह उनकी बुद्धि का भ्रम है । जो काम से पीड़े गये लोग यह समझते हैं कि विषय-भोगों से हमें सुख प्राप्त होगा, समझो कि वे शीतलता के लिए जलती हुई आग में घुसते हैं । जिस प्रकार गौ के सींग दुहने से कभी दूध नहीं निकलता और सर्प में अमृत नहीं होता; उसी प्रकार विषय-भोगों द्वारा कभी सुख का लेश भी नहीं मिलता । यह समझकर जो विद्वान हैं । विचारवान हैं, उन्हें उचित है कि वे इन आत्मा के महान शत्रु विषय-भोगों को अच्छे तेज वैराग्यरूपी खड्ग से मारकर सुख के कारण तप को स्वीकार करें । और देवदत्ता! तूने जो यह कहा कि तप बुढ़ापे में करना चाहिए, सो भी ठीक नहीं । तेरा यह कहना मिथ्या है और अपने तथा दूसरों के दु:ख का कारण है । क्योंकि कितने तो बेचारे ऐसे अभागे हैं कि वे गर्भ ही में मर जाते हैं और कितने पैदा होते-होते मर जाते हैं । कितने बालपन में मर जाते हैं और कितने कुमार अवस्था में मर जाते हैं । कितने जवान होकर मर जाते और कितने कुछ ढलती उम्र में ही मर जाते हैं । अग्नि सुखे काठ के ढ़ेर के ढ़ेर जैसे जलाकर खाक कर देती है, उसी तरह यह दुर्बुद्धि काल बालक, युवा, वृद्ध आदि का ख्याल न कर सबको मौत के मुख में डाल देता है । यह पापी काल प्रतिदिन न जाने कितने बालक, जवान और बूढ़ों को अपने सदा जारी रहनेवाले आगमन से मारकर मिट्टी में मिला देता है । इसलिए काल का तो कोई निश्चय नहीं कि वह किसी को तो मारे और किसी को न मारे; किन्तु उसके लिए तो आज का पैदा हुआ बच्चा और सौ वर्ष का बूढ़ा भी समान है । तब जो काल से डरते हैं, उन बुद्धिमानों को चाहिए कि वे तपरूपी धनुष चढ़ाकर रत्नत्रयमयी बाणों द्वारा कालरूपी शत्रु को पहले ही नष्ट कर दें । कुछ लोग यह विचारा करते हैं कि आत्महित के लिए तप धारण तो करना चाहिए, पर वह जवानी में नहीं, किन्तु बुढ़ापे में; ऐसे लोग बड़े मूर्ख हैं । कारण, वे तो विचारते ही रहते हैं और काल क्षणभर में उन्हें उठा ले उड़ता है । यह आयु, जिसे हम भ्रम से स्थिर समझ रहे हैं, हाथ की उएगलियों के छदि्रों से गिरते हुए पानी की तरह क्षण-क्षण में नष्ट हो रही है, इन्द्रियाँ शिथिल पड़ती जा रही हैं और जवानी विलीन होती जाती है । इसलिए जब तक कि शरीर स्वस्थ है-निरोग है, इन्द्रियों की शक्ति नहीं घटी है, बुद्धि बराबर काम दे रही है और संयम, व्रत, उपवासादि में बराबर प्रयत्न है, तब तक इस मोहरूपी योद्धा को और साथ ही काम तथा विषयों को नष्ट कर स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति के लिए जितना शीघ्र बन सके, तप ग्रहण कर लेना उचित है । यही सब जानकर और यह समझकर कि मौत सिर पर सवार है, अपने आत्मक ल्याण के लिए योगी लोग तप और योगाभ्यास द्वारा इन्द्रियों के विषयों को नष्कर आत्महित का मार्ग धर्म-साधन करते हैं ।

सुदर्शन मुनि के इस प्रकार समझाने पर देवदत्ता निरुत्तर हो गयी । जैसे नागदमनी नामक औषधि से नागिन निर्विष हो जाती है । यह सही है कि देवदत्ता सुदर्शन मुनि को कुछ उत्तर न दे सकी, पर उसकी ईर्षा पहले से कई हजार गुणी बढ़ गयी । फिर उसने सुदर्शन को मात्र यह कहकर, कि तुम्हारी यह उम्र तप योग्य नहीं, तप तुम बुढ़ापे में धारण करना, उठाकर अपने पलंग पर, जिस पर कि एक बड़ा नरम गद्दा बिछा हुआ था, लिटा लिया और काम सुख के लिए वह उनके साथ अनेक प्रकार की विकार चेष्टाएँ करने लगी । देवदत्ता को इस प्रकार उपसर्ग करते देखकर सुदर्शन ने संन्यास लेकर प्रतिज्ञा की कि यदि इस उपसर्ग में मेरे प्राण चले जाँए, तब तो मैं अपने आत्महित के लिए अभी से जीवनपर्यन्त अनशन-व्रत धारण करता हूँ और कदाचित् दैवयोग से प्राण बच जाँए तो मैं पारणा करँगा । यह प्रतिज्ञा कर सुदर्शन मुनि ने शरीर से मोह छोड़ दिया और काठ की तरह निश्चल होकर अपने को भगवान के ध्यान में लगाया । यह देखकर दुष्टिनी देवदत्ता ने मुनि के स्थिर मन को विचलित करने, उनके ब्रह्मचर्य को नष्ट करने और अपने काम-सुख की सिद्धि के लिए उन पर उपद्रव करना शुरु किया । काम-वासना से अत्यन्त पीड़ित होकर उसने अपने शरीर के सब वस्त्रों को उतार दिया और नंगी होकर वह मुनि के गले से लिपट गयी । उनके शरीर को अपने हाथों के बीच में लेकर उनसे लिपट कर वह सेज पर सो रही । इतने पर भी जब मुनि को वह विचलित न कर सकी, तब उसने और भी भयंकर विकार चेष्टाएँ करना आरम्भ कीं । वह कभी मुनि की उपस्थ इन्द्री को अपने हाथों से अपने गुप्त अंग में रखती, कभी उनके हाथों को अपने स्तनों पर रखती, कभी उनके मुँह में अपना अपवित्र मुँह देती, कभी विकारों की गुलाम बनकर नंगी ही उनके सुन्दर शरीर पर जा पड़ती और काम-वासना से अनेक विकार चेष्टाएँ करती और कभी उनके नग्न शरीर को अपने शरीर पर लिटा लेती । इत्यादि कामरूपी अग्नि को बढ़ानेवाली नाना दुश्चेषओं को उसने अपने मुँह, स्तन, हाथ, योनि आदि द्वारा किया, कटाक्ष किया, हावभाव- विलास किया, खूब मनोहर आवाज से गाया, नाचा, श्रृंगार किया । मतलब यह कि उनके ब्रह्मचर्य-व्रत को नष्ट करने के लिए उसमें जितनी शक्ति थी, उसने वेश्या-योग्य विकारों के करने में कोई कमी नहीं रखी अर्थात् मुनि पर ऐसा घोरतर उपद्रव किया, जिसे देख कामी लोग अपनी कभी रक्षा नहीं कर सकते । इस महान दु:सह उपसर्ग में भी मुनिराज सुदर्शन मेरुवत् अचल रहे । उन्होंने अपनी वैराग्य भावना को बढ़ाने के लिये तब अपने पवित्र हृदय में इस प्रकार विचार करना शुरु किया । वे निर्मल विचार उनकी मनवचन- काय की क्रियाओं को रोकने में बड़े सहायक हुए । उन्होंने विचारा । ये वेश्यायें पाप की खान हैं । इन्हें नीच-ऊँच के साथ विषय-सेवन का विचार नहीं । शहर की गटर में जैसे मल-मूत्र बहुता है, उसी तरह इनके यहाँ नीच से नीच पुरुष आते रहते हैं । तब भला, ऐसी नीच इन वेश्याओं को कौन बुद्धिमान सेवेगा । जो नीच इन मद्य-माँस खानेवाली वेश्याओं के साथ विषय-सेवन करते हैं-उनके शरीर से अपने शरीर का सम्बन्ध कराते हैं, उस समय जो परस्पर में श्वासोच्छवास संमिश्रण होता है, उससे उन लोगों के खाने-पीने आदि का कोई व्रत-नियम नहीं बन सकता । इनके साथ सम्बन्ध करने से जो गर्भ रहता है, उससे उन व्यभिचारी लोगों के कुल का नाश होता है, कलंक लगता है और सातों व्यसनों का वे फिर सेवन करने लगते हैं । इस वेश्या-सेवन के पाप से यह तो हुई इस लोक में हानि और परलोक में वे विषयल म्पटी घोर दु:खों के देनेवाले नरकों में जाते हैं । इस प्रकार वेश्याओं के दोषों पर विचार कर सुदर्शन मुनि ने अपने मन को वैराग्यरूपी दृढ़ कवच से ढक लिया और संकल्प रहित उत्कृष्ट आत्मध्यान में उसे लगाकर आप मेरु-से स्थिर हो गये । सब क्रियाकर्म से रहित हो वह बड़ी स्थिरता से ध्यान करने लगे । धन्य महात्मा सुदर्शन! देवदत्ता उन्हें फिर उसी तरह ध्यान-निश्चल देखकर ईर्षा से दु:ख देनेवाले कामविकारों के करने को तैयार हो गयी और मुनि से बोली । सुनो, मैं तुमसे अन्तिम बात कहती हूँ । यदि तुम मेरी बात न मानोगे तो मैं अब ऐसा घोर उपद्रव करँगी कि उससे तुम्हारी जान ही चली जाँगी । इस पर सुदर्शन कुछ न कहकर ध्यान करते रहे । उन्हें कुछ न कहते देखकर देवदत्ता ने उनसे अनेक प्रकार काम के बढ़ानेवाले वचन कहे, उनकी गुप्तेन्द्री को अपने हाथों से उत्तेजित कर काम को बढ़ानेवाली नाना भाँति विकार चेष्टाएँ कीं और मनमानी बुरी-भली सुनाई । इस प्रकार कोई तीन दिन और तीन रात तक उसने जितना उससे बना, मुनि पर उपसर्ग किया, उन्हें दु:सह कष्ट दिया । पर सुदर्शन ने पर्वत के समान स्थिर हो इन सब दु:सह परीषहों को सहा । महातपस्वी, महामना सुदर्शन ऐसे समय भी रत्तीभर अपने ध्यान से न चले ।

देवदत्ता ने सुदर्शन को इतना कष्ट दिया, उससे न तो उन्हें उस पर कुछ द्वेष हुआ और न उसकी काम-सुख सम्बन्धी बातों से उन्हें किसी प्रकार रागभाव-प्रेम हुआ । उन्होंने द्वेष या प्रेम सम्बन्धी कलुषता का हृदय में विचार तक भी न आने दिया । वे मध्यस्थ बने रहे । इससे उनके हृदय की जो निर्मलता थी, वह आत्मध्यान के सम्बन्ध से बहुत ही बढ़ गयी । सुदर्शन को ऐसा स्थिर अचल देखकर देवदत्ता उद्विग्न तो बहुत हुई, पर वह उस अग्नि की तरह, जो तृण रहित जमीन पर पड़ी कुछ कर नहीं सकती, सुदर्शन का कुछ कर न सकी ।

जिसकी इतनी धीरता, जिसका मन इतना अविकारी उस महात्मा का दुष्ट पुरुष व विकार-वश हुई वेश्या क्या कर सकती है । यह सम्भव है कि कभी दैवयोग से पर्वत चल जाँए, पर यह कभी सम्भव नहीं कि योगियों का निर्विकल्प मन विकारों से चल जाय ।

वे महात्मा धन्य हैं और वे ही संसार में पूज्य हैं, जिनका मन दु:सह परीषह या कष्ट के आने पर भी न चला । सुदर्शन की इस स्थिरता ने देवदत्ता के अभिमान को नष्ट कर दिया । वह सोचने लगी, यह बड़ा धीरजवान् है । इसे मैं किसी तरह विचलित नहीं कर सकती । इसे मैं अब अपने घर से बाहर भी कैसे करँगी? इस विचार के साथ उसे एक युक्ति सूझी । रात का समय तो था ही और मुनि भी शरीर का मोह छोड़कर आत्मध्यान कर रहे थे, सो इस योग को अच्छा समझ देवदत्ता मुनि को कन्धे पर उठाये घर से निकली और चौकन्नी हो इधर-उधर देखती हुई जलती चिता से भयंकर श्मशान में ले-जाकर उसने उन्हें कायोत्सर्ग ध्यान से खड़ा कर दिया । इस प्रकार अपने आत्मबल से जिस महात्मा सुदर्शन ने देवदत्ता द्वारा किये गये, ब्रह्मचर्य को नष्ट करनेवाले दु:सह काम-विकारों पर विजय लाभ किया, और जो अपने मन-वचन-काय की क्रियाओं को रोककर ऐसे बलवान बन गये कि जिसे पर्वत भी विचलित नहीं कर सकते थे । यह जानकर बुद्धिमानों को परीषह-जय द्वारा अपना आत्मबल प्रगट करना चाहिए ।

वे अरहन्त भगवान, जो संसार द्वारा वन्दनीय और सब जीवों का हित करनेवाले, सब दोषों से रहित और सर्वोत्कृष्ट हैं; वे सिद्ध भगवान, जो उत्कृष्ट गुणों के धारक और अन्त रहित हैं । जिनका कभी नाश न होगा; वे आचार्य, जो सदा धर्म-साधन में तत्पर और पंचाचार के पालनेवाले हैं तथा बुद्धिमान लोग जिन्हें नमस्कार करते हैं; और वे विद्वान् उपाध्याय तथा साधु । ये पाँचों परमेष्ठी मुझे अपने-अपने गुण प्रदान करें । मुझे अपना सरीखा महान योगी बनावें ।