कथा :
वर्धमानजिनं नत्वा सर्वज्ञं हितदेशकम् ।
वीतरागं च वक्ष्येऽहं नृणां सम्यक्त्वकौमुदीम्॥ श्रीवर्धमानमानस्य जिनदेवं जगत्प्रभुम् ।
जगत् के स्वामी श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार कर मैं मनुष्यों के सम्यक्त्व गुण की प्राप्ति के लिए सम्यक्त्व कौमुदी कहूँगा ॥1॥वक्ष्येऽहं कौमुदीं नृणां सम्यक्त्वगुणहेतवे ॥1॥ गौतमस्वामिनं स्तौमि गणेशं च श्रुताम्बुधिम् ।
मैं श्रुत के सागर गौतमस्वामी नामक गणधर की तथा सर्वज्ञ भगवान् के मुख से प्रकट हुई उस प्रसिद्ध जिनवाणी की स्तुति करता हूँ ॥2॥स्तवीमि भारतीं तां च सर्वज्ञमुखनिर्गताम् ॥2॥ गुरंश्चाये त्रिशुद्ध्याथ श्रुतसागरपारगान् ।
इसके पश्चात् मैं शास्त्ररूपी समुद्र के पारगामी उन निर्ग्रंथ गुरुओं की मन-वचन-काय की शुद्धि के द्वारा पूजा करता हूँ जिनके कि प्रसार से हृदय में स्थित समस्त जड़ता चली जाती है नष्ट हो जाती है ॥3॥यत्प्रसादेन नि:शेषं जाड्यं याति हृदि स्थितम् ॥3॥ श्रीमद् - वृषभसेनादि - गौतमान्तगणेशिन: ।
जिन्होंने समस्त पदार्थों को जान लिया है तथा जो समस्त ऋद्धियों से विभूषित हैं ऐसे श्रीमान् वृषभसेन आदि को लेकर गौतम स्वामी पर्यन्त समस्त गणधरों को नमस्कार करता हूँ ॥4॥
वन्दे विदितसर्वार्थान् विश्वर्धिपरिभूषितान् ॥4॥ |