+ प्रथम दिन की कथा -
प्रथम दिन की कथा

  कथा 

कथा :

अथ जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे मगधविषये सततं प्रवृत्तोत्सवं प्रभूतवरजिनालयं जिनधर्माचारोंत्सवसहित-श्रावकं घनहरिततरुषण्डमण्डितं भोगावतीनगरवद्राजगृहं नाम नगरमस्ति । तत्र-


अथानन्तर जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के मगधदेश में राजगृह नाम का वह नगर है जहाँ निरन्तर उत्सव होते रहते हैं उत्कृष्ट जिनमन्दिर विद्यमान हैं और जहाँ जैनधर्म के आचरण तथा उत्सवों से सहित श्रावक रहते हैं । जो हरे-भरे सघन वृक्षों के समूह से सुशोभित हैं तथा धरणेन्द्र की नगरी भोंगावती के समान जान पड़ता है ।

क्षणभङ्ग: सौगतेषु भ्रान्तिरर्हत्प्रदक्षिणा ।
नैरात्म्यं बुद्धवादेषु गुप्तिर्यत्र मुमुक्षुषु ॥5॥
उस राजगृह नगर में यदि क्षणभंग-क्षण-क्षण में पदार्थ का नाश था तो बौद्धों में ही था क्योंकि "सर्वं क्षणिकं सत्त्वात्" यह सिद्धान्त बौद्धों का ही था । वहाँ के मनुष्यों में क्षणभंग अर्थात् उत्सवों का विनाश नहीं था । भ्रान्ति गोलाकार भ्रमण यदि था तो प्रदक्षिणा-परिक्रमा में ही था, वहाँ के मनुष्यों को किसी प्रकार की भ्रान्ति-सन्देह नहीं था और गुप्ति-मन-वचन-काय का निरोध मोक्षाभिलाषी जीवों में ही था । वहाँ के मनुष्यों में गुप्ति-धनादि को छिपाकर रखने का भाव नहीं था ॥5॥

करग्रहो विवाहेषु द्विजपातश्च वार्धके ।
यत्र शून्यगृहालोको द्यूतकेलीषु केवलम् ॥6॥
वहाँ पर गृह स्त्री का पाणिग्रहण विवाहों में ही होता था अन्य मनुष्यों में गृह कर (टैक्स) का ग्रहण नहीं होता था अर्थात् राजकीय व्यवस्था के लिए किसी से टैक्स नहीं लिया जाता था । द्विजपात-दाँतों का गिरना । वहाँ वृद्धावस्था में ही होता था, अन्य मनुष्यों में द्विजपात ब्राह्मणादि त्रिवर्णों में दुराचार आदि के कारण किसी प्रकार का पतन नहीं होता था, सब सदाचार में रहते थे । जहाँ शून्यगृहों का दर्शन द्यूतक्रीड़ा-जुआ के खेल में ही होता था, वहाँ शून्य-उजाड़गृहों का दर्शन नहीं होता था अर्थात् सब घर गृहस्वामियों से परिपूर्ण रहते थे ॥6॥

तरवो विपदाक्रान्ता: सरोगा: कमलाकरा: ।
सदण्डास्त्रिदशावासा यत्रासन्न पुनर्जना: ॥7॥
जिस राजगृह नगर में विपदाक्रान्त-पक्षियों के पैरों अथवा उनके स्थान स्वरूप घोंसलों से आक्रान्त वृक्ष ही थे, वहाँ के मनुष्य विपद-आक्रान्त-विपत्ति से आक्रान्त नहीं थे । सरोग-सरोवरों से स्थित कमलाकर-कमल वन ही थे वहाँ के मनुष्य सरोग-रोग से सहित नहीं थे और सदण्ड-अण्डा के आकार उत्तम कलशों से युक्त देवालय ही थे अर्थात् देवालय पर ही उत्तम कलश रखे जाते थे, वहाँ के मनुष्य सदण्ड-दण्ड से सहित नहीं थे अर्थात् वहाँ के मनुष्य ऐसा कोई अपराध नहीं करते थे, जिससे उन्हें दण्ड भोगना पड़ता हो ॥7॥

तत्र समस्तराजमण्डलीमण्डितसिंहासन:, सकलकलाप्रौढ:, समस्तराजनीतिसमन्वित:, प्रशस्त-राजनीति-कुमुदिनीविबोधनैकरजनीकान्त:, एकान्तश्रीसर्वज्ञधर्मानुरक्तचित्तो, निर्जितान्तरङ्गवैरिपक्ष: श्रीतीर्थंकरपद-प्रणाम-बद्धकक्ष:, क्षायिकसम्यक्त्वरज्जितचित्त:, श्रेणिको नाम राजास्ति । तस्य पट्टमहिषी दाक्ष्यदाक्षिण्य-सौभाग्य-गुणगणरत्नालंकृतांगी, श्रीवीतरागप्रणीत-सद्धर्म-कर्मामृत-भाविताङ्गी, समस्त-गुणसंपन्ना, जिनधर्म-प्रभाविका,महारूपवती, चेलना नामास्ति । स च श्रेणिकोऽमरराजवद्राजते, सा च शचीव शोभते ।

तस्य श्रेणिकस्य जैनागमतत्त्वप्रवीण: क्षयितान्तरङ्गरिपु: सम्यक्त्वमूलगुणाणुव्रतधर:, पर्वतिथिषुप्रोषधोपवासकारी, द्वासप्ततिकलानिधान:, चतुर्विधबुद्धिविभवप्रधान: प्रधानामात्योऽभयकुमारनामा सुरगुरुवद्गुरुतरोराज्यधुरो धारयति स्म ।

एकदासकल सुरासुरेश्वरसंसेवितपादपद्मो, विश्वाश्चर्यकारिमनोहारिविश्वातिशय: पश्चिमतीर्थाधिराजोवर्धमानस्द्धद्यामी वैभारपर्वतमलमकार्षीत् । एकदा यावत्कतिचित्पदान्यतिक्राम्यता वनपालेन वने परिभ्रमता, आजन्म परस्पर-निबद्धवैराणामश्वमहिष-मूषकमार्जाराहिनकुलादीनामेकत्रमेलापकं दृष्टम् । साश्चर्यो भूत्वाऽसौ मनसि विचारयति-अहो, किमेतत्? एवं शुभमशुभं चेति चिन्ताक्रान्तचित्तेन पर्यटता वनपालेन विपुलाचलपर्वतस्योपरिसमस्त सुरेश्वरसमन्वितं जयजयादिरवपूर्णदिगन्तरालमन्तिम-तीर्थंकर-श्रीवर्धमान-स्वामिसमवसरणं दृष्टम् । ततोवैभाराद्रिनितम्बे पर्यटता वनपालेन तावच्छ्रुतिसुखदमनोऽभिरामपरमरमणीकदेवदुन्दुभिनिनादमिश्रितजयजयरव-परिपूर्णदिगन्तरालं सच्छत्रत्रय-चामरध्वजादिसुशोभितं रत्नकनकरूप्य-सालं, तत्राप्यार्यदेश-सुकुल-जन्मसर्वाक्षपटुतासंपूर्णायुर्युक्तजनमालं, व्याकोषस्व: प्रसूनस्तवकपरिमलोशारसंभारलोलव्यालीनमत्त-भ्रमरकुलकलरववश-श्रीकाशोकशालं, अहंपूर्विकयागच्छच्चतुर्विधविबुधविमानजालं श्रीमन्महावीरसमवसरणं दृष्टम् । तदुक्तम्-मानस्तम्भा: सरांसि प्रविमल-जल-सत्खातिका पुष्पवाटीप्राकारो नाट्यशालद्विव्यमुपवनं वेदिकान्तध्र्वजाद्या: ।


उस राजगृह नगर में श्रेणिक नाम का वह राजा रहता था, जिसका सिंहासन समस्त राजाओं के समूह से सुशोभित रहता था अर्थात् जिसका सिंहासन अन्य राजाओं के आसनों से सदा घिरा रहता था, जो समस्त कलाओं में अत्यन्त निपुण था, सब प्रकार की राजनीति से सहित था, उत्तम राजनीतिरूपी कुमुदिनी को विकसित करने के लिए जो चन्द्रमास्वरूप था, श्री सर्वज्ञदेव के द्वारा कथित धर्म में जिसका चित्त नियम से अनुरक्त रहता था, जिसने काम-क्रोध आदि अन्तरंग शत्रुओं के समूह को अच्छी तरह जीत लिया था, श्री तीर्थंकर भगवान् के चरणों में प्रणाम करने के लिए सदा उद्यत रहता था और क्षायिक सम्यग्दर्शन से जिसका चित्त अनुरक्त रहता था ।

उस राजा श्रेणिक की चेलना नाम की वह पट्टरानी थी, जिसका शरीर चातुर्य, औदार्य और सौभाग्य आदि गुण समूहरूपी रत्नों से अलंकृत था, श्री वीतराग भगवान् के द्वारा कथित समीचीन धर्माचरणरूपी अमृत से जिसका शरीर सुशोभित था, जो समस्त गुणों से सम्पन्न थी जिनधर्म की प्रभावना करने वाली थी और अत्यन्त रूपवती थी । वह राजा श्रेणिक इन्द्र के समान सुशोभित होता था और वह चेलना रानी इन्द्राणी के समान सुशोभित होती थी ।

उस राजा श्रेणिक का जैनागम के रहस्य में निपुण अंतरंग शत्रुओं का नष्ट करने वाला सम्यग्दर्शन मूलगुण और अणुव्रतों को धारण करने वाला, पर्व के दिनों में प्रोषधोपवास करने वाला, बहत्तर कलाओं का भण्डार, चार प्रकार की बुद्धिरूपी वैभव की प्रधानता से धारण करने वाला और बृहस्पति के समान अत्यन्त श्रेठ अभयकुमार नाम का प्रधानमन्त्री था, जो राज्य के भार को धारण करता था ।

एक समय जिनके चरण-कमल समस्त सुरेन्द्र और असुरेन्द्रों के द्वारा सेवित थे, जिन्हें सबको आश्चर्य उत्पन्न करने वाले समस्त मनोहर अतिशय प्राप्त थे तथा जो अन्तिम तीर्थंकर थे, ऐसे श्री वर्धमानस्वामी वैभारगिरि को अलंकृत कर रहे थे । एक दिन ज्योंही कुछ कदम रखकर वनपाल वन में घूमने लगा त्यों ही उसने जन्म से ही लेकर परस्पर वैर रखने वाले अश्व और भैंसा, चूहा और बिलाव तथा साँप और नेवला आदि जीवों का एक स्थान पर सम्मेलन देखा, उसे देख आश्चर्ययुक्त होते हुए उसने विचार किया कि अहो यह क्या है? इन सब जीवों का इस प्रकार एकत्रित होना शुभ है या अशुभ? ऐसी चिन्ता से जिसका चित्त व्याप्त हो रहा था, ऐसे घूमते हुए वनपाल ने विपुलाचल पर्वत के ऊपर समस्त इन्द्रों से युक्त तथा जय जय आदि के शब्दों से दिशाओं के अन्तराल को पूर्ण करने वाला अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमानस्वामी का समवसरण देखा । वैभारगिरि की कटनियों पर भ्रमण करने वाले वनपाल ने श्री महावीरस्वामी का वह समवसरण देखा, जिसकी दिशाओं के मध्यभाग कानों के लिए सुखदायक और मन को आनन्दित करने वाले परम सुन्दर देव-दुन्दुभियों के शब्दों से मिली हुई जय-जय ध्वनि से परिपूर्ण थे, जो उत्तम छत्रत्रय, चामर तथा ध्वजा आदि से सुशोभित था, जिसमें रत्न सुवर्ण और चाँदी के कोट थे, जहाँ आर्यदेश तथा उत्तम कुल में जन्म समस्त इन्द्रियों की समर्थता और संपूर्ण आयु से युक्त मनुष्यों का समूह था, जहाँ खिले हुए स्वर्ग सम्बन्धी फूलों के गुच्छे की सुगन्धी के समूह में सतृष्ण लीन भ्रमरों की मधुर गुंजार से युक्त अशोक वृक्षों का समूह था और मैं पहले पहुँचूं, मैं पहले पहुँचूं, इस प्रकार की होड़ लगाकर चार निकाय के देवों के विमान आ रहे थे । जैसा कि कहा है-

शाल: कल्पद्रुमाणां सुपरिवृत्तवनं स्तूपहम्र्यावली च ।
प्राकार: स्फाटिकोऽन्तर्नृसुरसभा: पीठिकाग्रे स्वयंभू: ॥8॥
मानस्तम्भ सरोवर अत्यन्त निर्मल जल से भरी हुई परिखा, पुष्पवाटी कोट दोनों ओर नाटघशालाएँ, उपवन, वेदिका बीच में अनेक ध्वजा आदि कोट, कल्पवृक्षों का वन, स्तूप, उत्तम भवनों की पंक्ति, स्फटिकमणि का कोट, उसके भीतर मनुष्य और देवों की सभाएँ और पीठिका के अग्रभाग पर विराजमान श्री जिनेन्द्रदेव...ये सब समवसरण के परिचायक हैं ॥8॥

दृष्टा: हृष्ट: सन् मनसि विचारयति, अहो! परस्परविरुद्धजातानां यदेकत्र मेलापकं दृष्टं मया तत्सर्वमस्य भगवतो समस्तैश्वर्यस्य महापुरुषस्य माहात्म्यम् ।


समवसरण को देखकर हर्षित होता हुआ वनपाल मन में विचार करता है कि अहो! मैंने परस्पर विरोध रखने वाले जीवों का जो एक स्थान पर मेला देखा है वह सब समस्त ऐश्वर्य को धारण करने वाले इन्हीं भगवान् महानुभाव का माहात्म्य है ।

यत्र दर्दुरका नागफणायां च कृतासना: ।
आश्रयन्तीह छायायै पान्था: सान्द्रद्रुमेष्विव ॥9॥
जिस प्रकार पथिक जन छाया के लिए सघन वृक्षों का आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार साँपों के फणों पर बैठे हुए मेण्ढक छाया के लिए आश्रय ले रहे हैं ॥9॥

तथा चोक्तम्-


सारङ्गी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं
मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजङ्गम् ।
वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति
श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ॥10॥
समताभाव में लीन, कलुषता से रहित, क्षीणमोह योगी-मुनिराज का आश्रय पाकर हरिणी पुत्र समझ कर सिंह के बालक का, गाय व्याघ्र के शिशु का और बिल्ली हंस के बच्चे का स्पर्श कर रही है, मयूरी प्रेम से विह्वल होकर सर्प का आलिंगन करती है तथा जिनका गर्व नष्ट हो गया ऐसे अन्य जीव भी जन्मजात वैर को छोड़ रहे हैं ॥10॥

एवं ज्ञात्वा कानिचिदकालफलानि गृहीत्वा स वनपालक आस्थानस्थितमहामण्डलेश्वरश्रेणिकस्य हस्ते दत्वा च तानि भणति स्मदेव! तव पुण्योदयेन विपुलाचल पर्वतस्योपरिश्रीवर्धमानस्वामिसमवसरणं समागतम् । इति तद्वचनं श्रुत्वा विकसद्वक्त्रलोचनो निधानमाप्य नि:स्वो वा जहर्ष मानसे नृप: ।


ऐसा जानकर असमय में उत्पन्न होने वाले कुछ फलों को लेकर वह वनपाल सभामण्डप में स्थित महामण्डलेश्वर राजा श्रेणिक के हाथों में देता हुआ बोला-हे देव! आपके पुण्योदय से विपुलाचल पर्वत के ऊपर श्रीवर्धमान स्वामी का समवसरण आया है । वनपाल के उक्त वचन सुन खिले हुए मुख और नेत्रों से युक्त राजा मन में ऐसा हर्षित हुआ जैसा कि दरिद्र मनुष्य खजाने को पाकर हर्षित होता है ।

आसनात्सहसोत्थाय गत्वा सप्त पदावली: ।
यस्यां दिशि स्थितो योगी तस्यां स तमनीनमत् ॥11॥
राजा ने शीघ्र ही सिंहासन से उठकर तथा जिस दिशा में वर्धमान स्वामी विद्यमान थे, उस दिशा में सात कदम जाकर उन्हें नमस्कार किया ॥11॥

एतच्छ्रुत्वासनादुत्थाय तद्दिशि सप्तपदानि गत्वा साष्टाङ्गं नमस्कृत्य तदनन्तरं वनपालस्याङ्गस्थितानि वस्त्राभरणानि परमप्रीत्या दत्तानि श्रेणिकेनातिसंतुष्टेन । ततो सर्वसमक्षं वनपालेनोक्तम्-सत्यमेतत् । तदुक्तम्-


यही भाव गद्य में दिखलाते हैं कि वनपाल के ये वचन सुनकर राजा ने आसन से उठकर तथा उस दिशा में सात पग जाकर भगवान् वर्धमानस्वामी को साष्टांग नमस्कार किया । तदनन्तर अत्यन्त संतुष्ट हुए राजा श्रेणिक ने अपने शरीर पर स्थित समस्त वस्त्राभूषण अत्यधिक प्रेम से वनपाल को दे दिये तत्पश्चात् सबके सामने वनपाल ने कहा कि-यह सच है । जैसा कि कहा है -

रिक्तपाणिर्नैव पश्येद् राजानं देवतां गुरुम् ।
नैमित्तिकं विशेषेण फलेन फलमादिशेत् ॥12॥
राजा, देवता, गुरु और विशेष रूप से निमित्तज्ञानी का दर्शन खाली हाथ नहीं करना चाहिए क्योंकि फल की प्राप्ति फल से ही होती है ॥12॥

ततो भूपतिरानन्दभेरीं दापयित्वा मगधेश: श्रेणिक: अष्टविधपूजोपलक्षित: परिजनपुरजनसहितो महोत्सवेन समवसरणं जगाम । नृप: करौ कुड्मलीकृत्य पूजयित्वा स्तुतिं चकार । देवाधिदेवं श्रीमहावीरं प्रणम्य स्तोतुमारब्धवान् । यथा-


तदनन्तर मगध देश के स्वामी राजा श्रेणिक ने आनन्द भेरी दिलवायी और स्वयं आठ प्रकार की पूजा सामग्री से युक्त हो कुटुंबीजन तथा नगरवासी जनों के साथ बड़े भारी उत्सव से समवसरण की ओर गमन किया । राजा ने हाथ जोड़कर तथा पूजा कर स्तुति की । देवाधिदेव श्री महावीरस्वामी को प्रणाम कर राजा ने इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ किया-

अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य देव! त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन ।
अद्य त्रिलोकतिलक! प्रतिभासते मे संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाण: ॥13॥
हे देव! आज आपके चरण कमलों का दर्शन करने से मेरे दोनों नेत्र सफल हुए हैं और हे तीन लोक के तिलक! आज मुझे यह संसार-सागर चुल्लु प्रमाण जान पड़ता है ॥13॥

इति स्तोत्रशतसहस्रैर्जिनं मुनिनायकं गौतमस्वामिनं च स्तुत्वा यथोचितकोठ उपविष्ट: । तथा चोक्तम्-


इस प्रकार के अनेक स्तोत्रों से श्री वर्धमान जिनेन्द्र तथा मुनियों के नायक श्री गौतमस्वामी की स्तुति कर राजा श्रेणिक अपने योग्य कोठे में बैठ गये । जैसा कि कहा गया है -

यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता हघर्था: प्रकाश्यन्ते महात्मन: ॥14॥
जिसकी देव में तथा देव के समान गुरु में परम भक्ति होती है उसी महानुभाव के आगम में प्रतिपादित ये जीवाजीवादि पदार्थ निश्चय से प्रकट होते हैं ॥14॥

(भावार्थ – देव और गुरु की भक्ति करने वाले पुरुष को ही जीवाजीवादि नौ पदार्थों का श्रद्धान प्रकट होता है ।)

भगवान् गौतम आह-

हे नरेन्द्र! अपारसंसारकान्तारेऽनादिकालं पर्यटता अनादिनिधन-जन्तुनाऽकामनिर्जरारूपपुष्पात् कथमपि स्थावरत्वतिर्यक्त्वमनुष्यत्वमापद्यते । कथंचित् कर्मलाघवात्प्राप्यते तत: सद्गुरुसामग्रीसिद्धान्तश्रवणोद्भुत-वासनाभियोगो महापुण्ययोगाल्लभ्यते । लब्धेष्वेतेष्वपि जन्तो: सम्यक्त्वरत्नं विना सद्गतिगमनं न स्यात् । कर्मगुरु-स्थितिक्षयवशादवगतजीवाजीवादितत्त्वस्वरूपं, देवगुरुधर्मतत्त्वं निश्चयरूपं सम्यक्त्वं जायते, अगम्यपुण्यैर्यत:-


भगवान् गौतम गणधर ने कहा -

हे राजन्! यह जीव यद्यपि द्रव्यदृष्टि से अनादि अनन्त है तथापि पर्यायदृष्टि से अपार संसार रूपी अटवी में अनादिकाल से भ्रमण कर रहा है । कभी कर्मोदय में लाघव होने से किसी तरह अकाम निर्जरा के फलस्वरूप स्थावर, तिर्यञ्च और मनुष्य पर्याय को प्राप्त होता है अर्थात् स्थावर विकलत्रय और पञ्चेन्द्रिय पर्याय में भ्रमण करता हुआ, किसी प्रकार मनुष्यभव में उत्पन्न होता है ।

तदनन्तर महान् पुण्योदय से सद्गुरु, द्रव्यादि चतुष्टयरूप सामग्री तथा सिद्धान्त ग्रन्थों को सुनने आदि से उत्पन्न भावना और सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति का पुरुषार्थ प्राप्त होता है । इन सबके मिलने पर भी यदि जीव को सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति नहीं होती है तो उसके बिना सद्गति में गमन नहीं होता है अर्थात् पुन: यह जीव कुगति को प्राप्त हो जाता है । जब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का क्षय होता है अर्थात् कषाय की मन्दता के कारण जब अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर से अधिक कर्मों की स्थिति का क्षय होता है अर्थात् कषाय की मंदता के कारण जब अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर से अधिक कर्मों की स्थिति का बंध नहीं होता है और सम्यक्त्व को घातने वाली प्रकृतियों का क्षय हो जाता है तब बहुत भारी पुण्योदय से इसे जीवाजीवादि तत्त्वों के स्वरूप ज्ञान से युक्त अथवा देव, गुरु, धर्म और तत्त्वों की दृढ़ प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है । क्योंकि-

पिधानं दुर्गतेर्द्वारां निधानं सर्वसंपदाम् ।
विधानं मोक्षसौख्यानां पुण्यै: सम्यक्त्वमाप्यते ॥15॥
जो दुर्गति के द्वारों को बन्द करने वाला है, समस्त संपदाओं का भण्डार है और मोक्ष सम्बन्धी सुखों को करने वाला है, ऐसा सम्यग्दर्शन बहुत भारी पुण्य से प्राप्त होता है ॥15॥

जीवांश्चरणवैकल्येऽप्याश्चर्यं भुक्तिकामिनी ।
वृणीते निर्मलस्फूर्जद्दर्शनश्रीचमत्कृता ॥16॥
निर्मल तथा देदीप्यमान सम्यग्दर्शन की लक्ष्मी से चमत्कार को प्राप्त हुई स्वर्गरूपी स्त्री आश्चर्य है कि-चरण-पैर की विकलता होने पर भी पक्ष में चरित्र की विकलता होने पर भी जीवों को वर लेती है ॥16॥

(भावार्थ – जिस जीव के वर्तमान में चारित्र की विकलता होने पर भी निर्मल सम्यक्त्व विराजमान रहता है, उसे शीघ्र ही सम्यक्त्व के प्रभाव से स्वर्ग प्राप्त हो जाता है ।)

सम्यग्दर्शनतोऽपरमुत्कृष्टं नास्ति । यत:-


सम्यग्दर्शन से उत्कृष्ट दूसरी वस्तु नहीं है क्योंकि-

सम्यक्त्वरत्नान्नपरं हि रत्नं सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् ।
सम्यक्त्वबन्धोर्न परो हि बन्धु: सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभ: ॥17॥
सम्यक्त्वरूपी रत्न से बढ़कर दूसरा रत्न नहीं है, सम्यक्त्वरूपी मित्र से बढ़कर दूसरा मित्र नहीं है, सम्यक्त्वरूपी भाई से बढ़कर दूसरा भाई नहीं है और सम्यक्त्व से बढ़कर दूसरा लाभ नहीं है ॥17॥

सम्यक्त्वं विना परक्रियाडम्बरो निष्फलतां याति । तथा चोक्तम्-


सम्यक्त्व के बिना अन्य क्रियाओं का आडम्बर निष्फलता को प्राप्त होता है । जैसा कि कहा है -

ध्यानं दु:खनिधानमेव तपस: संताप-मात्रं फलम्,
स्वाध्यायोऽपि हि बन्ध्य एव कुधियां ते निग्रहा: कुग्रहा: ।
अश्लीला: खलु दानशीलतुलना तीर्थादियात्रा वृथा,
सम्यक्त्वेन विहीनमन्यदपि यत्तत्सर्वमन्तर्गडु: ॥18॥
अज्ञानी जीवों का ध्यान दु:ख का भण्डार ही है उनके तप का फल संतापमात्र है स्वाध्याय भी निश्चय से निष्फल है, इन्द्रियनिग्रह भी दुराग्रह है, दान और शील की तुलना श्रीदायक-लाभदायक नहीं है और तीर्थादि की यात्रा व्यर्थ है । परमार्थ से सम्यक्त्व के बिना अन्य सभी कार्य भीतर से निष्फल हैं ॥18॥

किं बहुना ?


अधिक क्या कहा जावे ?

तावद्भीमो भवाम्भोधिस्तावज्जन्मपरम्परा ।
तावद् दु:खानि यावन्त सतां सम्यक्त्वसंभव: ॥19॥
सत्पुरुषों को जब तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती तभी तक उनका संसार-सागर भयंकर रहता है तभी तक उनकी जन्म सन्तति चलती है और तभी तक उन्हें अनेक दु:ख प्राप्त होते रहते हैं ॥19॥

तिर्यङ् नरकयोद्र्वारम दृढ: सम्यक्त्वमर्गल: ।
देवमानव - निर्वाण - सुखद्वारैककुञ्चिका ॥20॥
सम्यग्दर्शन तिर्यञ्च और नरकगति के द्वार पर लगा हुआ मजबूत आगल (बेंड़ा) है और सम्यक्त्व ही देव मनुष्य और मोक्ष सम्बन्धी सुखों का द्वार खोलने के लिए अद्वितीय कुंजी है ॥20॥

भवेद्वैमानिकोऽवश्यं जन्तु: सम्यक्त्ववासित: ।
यदि नोद्धान्तसम्यक्त्वो बद्धायुर्नापि वै पुरा ॥21॥
यदि इस जीव ने सम्यक्त्व को छोड़ा नहीं है और न सम्यक्त्व के पहले किसी आयु का बन्ध ही किया है तो सम्यक्त्व की वासना से युक्त वह जीव नियम से वैमानिकदेव होता है ॥21॥

य: पुमान् अन्तर्मुहूर्तमपि सम्यक्त्वं पालयति तस्य संसारसागर: सुतरो भवति यत:-


हे राजन्! जो अंतर्मुहूर्त के लिए भी सम्यक्त्व का पालन करता है । उसका संसाररूपी सागर सुख से तैरने योग्य हो जाता है क्योंकि -

अन्तर्मुहूर्तमपि य: समुपास्य जन्तु:, सम्यक्त्वरत्नममलं विजहाति सद्य: ।
बम्भ्रम्यते भवपथे सुचिरं न सोऽपि, तत्बिभ्रतश्चिरतरं किमुदीरयाम: ॥22॥
जो जीव अन्तर्मुहूर्त के लिए भी निर्मल सम्यक्त्वरूपी रत्न की उपासना कर उसे शीघ्र ही छोड़ देता है वह भी संसार के मार्ग में चिरकाल तक नहीं भटकता फिर जो उसे दीर्घकाल तक धारण करता है उसके विषय में क्या कहा जाये? ॥22॥

राज्ञा पृष्टम्-भगवन् सम्यक्त्वयोग्य: कीदृश: स्यात्? गुरूक्तम्-


राजा ने पूछा-भगवन् । सम्यक्त्व के योग्य कैसा जीव होता है?

गुरु ने कहा -
भाषा-शुद्धिविवेक-वाक्यकुशल: शङ्कादिदोषोज्झितो-
गम्भीर-प्रशमश्रिया परिगतो वश्येन्द्रियो धैर्यवान् ।
प्रावीण्यं यदि निश्चयव्यवहृतौ भक्तिश्च देवे गुरा-
वौचित्यादिगुणैरलंकृततनु: सम्यक्त्वयोग्यो भवेत् ॥23॥
जो भाषा शुद्धि, विवेक और वाक्यों के उच्चारण में कुशल है, शंका आदि दोषों से रहित है, गम्भीर है शान्तभावरूपी लक्ष्मी से युक्त है, जितेन्द्रिय है, धैर्यवान है, निश्चय और व्यवहार में चतुरता रखता है, देव और गुरु में जिसकी भक्ति है और औचित्य आदि गुणों से जिसका शरीर अलंकृत है, ऐसा जीव सम्यक्त्व प्राप्ति के योग्य होता है ॥23॥

धर्मकल्पतरोर्मूलं द्वारं मोक्ष-पुरस्य च ।
संसाराब्धौ महापोतो गुणानां स्थानमुत्तमम् ॥24॥
यह सम्यग्दर्शन धर्मरूपी कल्पवृक्ष की जड़ है, मोक्षरूपी नगर का द्वार है, संसाररूपी महासागर में बड़ा भारी जहाज है और गुणों का उत्तम स्थान है ॥24॥

भव्य: पर्याप्तक: संज्ञी जीव: पञ्चेन्द्रियान्वित: ।
काललब्ध्यादिना युक्त: सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥25॥
काललब्धि आदि से युक्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक भव्य जीव ही सम्यक्त्व को प्राप्त होता है ॥25॥

सम्यक्त्वमथ तत्त्वार्थश्रद्धानं परिकीर्तितम् ।
तस्योपशमिको भेद: क्षायिको मिश्र इत्यपि ॥26॥
तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, उसके 1. औपशमिक, 2. क्षायिक , 3. मिश्र ये तीन भेद कहे गये हैं ॥26॥

सप्तानां प्रशमात्सम्यक् क्षयादुभयतोऽपि च ।
प्रकृतीनामिति प्राहुस्तत्त्रैविध्यं सुमेधस: ॥27॥
मिथ्यात्वादि तीन तथा अनंतानुबंधी की चार इस प्रकार सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय और क्षयोपशम से वह सम्यक्त्व होता है, इसलिए ज्ञानीजन हे राजन्! उसके तीन भेद कहते हैं ॥27॥

एकं प्रशमसंवेगदयास्तिक्यादिलक्षणम् ।
आत्मन: शुद्धिमात्रं स्यादितरं च समन्तत: ॥28॥
इन भेदों के सिवाय सम्यक्त्व के सराग सम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व ये दो भेद और भी होते हैं । इनमें से प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यादि भावरूप लक्षणों से युक्त सराग सम्यक्त्व है और आत्मा की शुद्धि मात्र वीतराग सम्यक्त्व है ॥28॥

ते धन्या ये सम्यक्त्वं पालयन्ति । यत:-


वे मनुष्य धन्य हैं जो सम्यक्त्व का पालन करते हैं, क्योंकि -

निधानं सर्वलक्ष्मीणां हेतुस्तीर्थकृत्कर्मण: ।
पालयन्ति जना धन्या: सम्यक्त्वमिति निश्चलम् ॥29॥
सम्यग्दर्शन सब लक्ष्मियों का भण्डार है, तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध का हेतु है । वे मनुष्य धन्य भाग हैं, जो निश्चलरूप से सम्यग्दर्शन का पालन करते हैं ॥29॥

पुन: राज्ञा विज्ञप्तं-भगवन् पुरा केनापि पुण्यवता भवकोटिदु:प्रापमीदृग्विधं सम्यक्त्वं पालितं? तस्य सम्यग्दर्शन-माहात्म्यतोऽत्रामुत्र च किं फलं जातमिति कथानुकथनेन प्रसद्य ममानुग्रहो विधीयताम् । ततो गुरुभिरादिष्टम्-हे अवनिपते सम्यक्त्वफलोद्योतकमर्हद्दासश्रेष्ठिन आख्यानकं सावधानो भूत्वा श्रृणु ।

तथाहि-

अस्मिन् जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे उत्तरमथुरायां राजा पद्मोदय: तस्य राज्ञी यशोमति:, व्यो: पुत्र उदितोदय: राजमन्त्री संभिन्नमति:, तस्य भार्या सुप्रभा, व्यो पुत्र: सुबुद्धि:, तत्राञ्जनगुटिकादिविद्याप्रसिद्धो रूपखुर नामा चोरोऽस्ति, तस्य भार्या रूपखुरा, व्यो: पुत्र: सुवर्णखुर: तत्र राजश्रेठी जिनदत्त:, तस्य भार्या समस्तगुण- सम्पन्न जिनधर्मप्रभाविका महारूपवती जिनमति:, व्यो: पुत्र: समधिगत-जीवाजीवादि-सप्ततत्त्वभावक:, स्वभुजोपार्जित-वित्तव्यय:, श्रीजिनधर्मप्रभावक:, श्रीमज्जिनवरमुनिवरवर्यं सपर्यकरणरत: प्रतिषिद्धनिशिभोजनादिकुव्यापार विरतोऽर्हद्दासनामा श्रेठी परिवसति ।

तस्यार्हद्दासस्य रूपवत्यो गुणवत्योऽष्टौ भार्या:-मित्रश्री:,चन्दनश्री:, विणुश्री:, पद्मलता, कनकलता, विद्युल्लता, कुन्दलता, चैता: परस्परमहास्नेहा, दयादानतप:परा: सन्ति । सोऽर्हद्दासनामश्रेठी ताभि, पत्नीभिस्समं निर्जितोपद्रवकर्म विषयशर्म भुञ्जानो निरतिचारं सुश्रावकाचारं पालयन् निजविभवपराभूतवित्तेशं लोकनागरिकमसारं संसारं परोपकार-व्यापारकर्मणा रञ्जयन्सुखेनास्ते ।

अथोदितोदयो राजा कौमुदीयात्रां प्रतिवर्षे स्ववन-मध्ये कार्तिकमासे शुक्लपक्षे पूर्णिमादिवसे कारयति । तस्मिन्नहनि कार्तिकपूर्णिमादिने समस्तोऽपि स्त्रीजनो वने कस्याश्चिद् देवताया: पूजां करोति अहर्निशं विविधां क्रीडां च । चेन्न क्रियते स मह: तदा नगरे विधुरं जायते । तस्मिन् सौरविषये द्वादशवर्षपर्यन्तकौमुदीमहोत्सवो भवति सिंहस्य वर्षवत् । तदनुसारेण तस्मिन्नहनि कार्तिकपूर्णिमायां राज्ञा पटहघोषणं दापितं कौमुदीमहोत्सवनिमित्तम् । तद्यथा-

भो भो लोका: अद्य दिने समस्ता नगरस्थिता: स्त्रियो वनक्रीडां कर्तुं व्रजन्तु, रात्रौ तत्रैव तिष्ठन्तु, पुरुषा: सर्वेऽपि नगराभ्यन्तरे तिष्ठन्तु । कोऽपि पुरुषो वनान्तरे स्त्रीणां पार्श्वे गमिष्यति चेत् स च राजद्रोही । नृत्यगीतविनोदादि-

समन्वितां क्रीडां कृत्वा महता संभ्रमेण स्वपुरमायान्तु एवं महता सुखेन राजा राज्यं करोति ।

तथा चोक्तम्-


फिर राजा ने कहा - भगवन् पहले किसी पुण्यशाली जीव ने करोड़ों भवों में कठिनाई से प्राप्त होने योग्य ऐसे सम्यक्त्व का पालन किया है क्या? और उस जीव को सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से इहलोक तथा परलोक में क्या फल प्राप्त हुआ है?

इस कथा को कहकर प्रसन्नता से मेरा उपकार किया जावे । तदनन्तर मुनिराज ने कहा - हे राजन्! सम्यक्त्व के फल को प्रकट करने वाला अर्हद्दास सेठ का कथानक सावधान होकर सुनो ।

इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी उत्तर मथुरा नगरी में राजा पद्मोदय रहता था, उसकी रानी का नाम यशोमति था, उन दोनों के उदितोदय नाम का पुत्र हुआ । राजमंत्री का नाम संभिन्नमति था उसकी स्त्री का नाम सुप्रभा था, उन दोनों के सुबुद्धि नाम का पुत्र हुआ । उसी उत्तर मथुरा नगरी में अञ्जनगुटिका आदि की विद्या में प्रसिद्ध रूपखुर नाम का चोर रहता था, उसकी स्त्री का नाम रूपखुरा था, उन दोनों के सुवर्णखर नाम का पुत्र हुआ । उसी उत्तर मथुरा नगरी में जिनदत्त नाम का राजसेठ रहता था, उसकी स्त्री का नाम जिनमति था, जिनमति समस्त गुणों से सम्पन्न जिनधर्म की प्रभावना करने वाली तथा अत्यन्त रूपवती थी । उन दोनों का पुत्र अर्हद्दास नाम का सेठ भी वहीं रहता था । अर्हद्दास सेठ अच्छी तरह जाने हुए जीव-अजीव आदि सात तत्त्वों का चिन्तन करने वाला था; अपनी भुजाओं से उपार्जित धन को खर्च करता था; श्री जिनधर्म की प्रभावना करने वाला था, श्रीमान् जिनेन्द्र देव तथा श्रेठ मुनिराजों की पूजा करने में सदा लीन रहता था तथा रात्रिभोजन आदि निषिद्ध खोटे कार्यों से विरक्त रहता था ।

उस अर्हद्दास सेठ की मित्रश्री, चन्दनश्री, विष्णुश्री, नागश्री, पद्मलता, कनकलता, विद्युल्लता और कुन्दलता नाम की आठ स्त्रियाँ थी, जो अत्यन्त रूपवती और गुणवती थीं । परस्पर महान् स्नेह से युक्त थीं तथा दया, दान और तप में लीन रहती थीं । वह अर्हद्दास नाम का सेठ उन स्त्रियों के साथ निरुपद्रव विषय सुख को भोगता, निरतिचार श्रावकाचार का पालन करता और अपने वैभव से कुबेर को तिरस्कृत करने वाले नागरिक जन और असार संसार को परोपकार सम्बन्धी कार्यों से अनुरक्त-प्रसन्न करता हुआ सुख से रहता था ।

अथानन्तर उदितोदय राजा प्रतिवर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन अपने वन के मध्य में कौमुदी महोत्सव कराता था । उस कार्तिक की पूर्णिमा के दिन सभी स्त्रियाँ वन में किसी देवता की पूजा करतीं और रात-दिन नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करती थीं । यदि वह उत्सव नहीं किया जाता तो नगर में दु:ख होता था । उस सारे देश में वह कौमुदी महोत्सव सिंहस्थ वर्ष के समान बारह वर्ष से चला आ रहा था । तदनुसार उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन राजा ने कौमुदी महोत्सव के निमित्त नगर में भेरी द्वारा घोषणा दिलवायी-

हे नागरिक जनों! आज के दिन नगर में रहने वाली समस्त स्त्रियाँ वन क्रीड़ा करने के लिए जावें, रात्रि में वहीं रहे और सभी पुरुष नगर के भीतर रहें । यदि कोई पुरुष वन के मध्य स्त्रियों के समीप जायेगा तो वह राजद्रोही कहलावेगा । नृत्य-गान तथा विनोद आदि से सहित क्रीड़ा कर सब स्त्रियाँ बड़े भारी उत्सव से अपने नगर में आवे । इस प्रकार बहुत भारी सुख से राजा राज्य करता था ।

जैसा कि कहा है-

आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां पूज्यानामवमानता ।
पृथक् शय्या च नारीणामशस्त्रवध उच्यते ॥30॥
राजाओं की आज्ञा भंग, पूज्य पुरुषों की अपमान और स्त्रियों की पृथक् शय्या यह बिना शस्त्र के होने वाला वध कहलाता है ॥30॥

लोकेन यथा राज्ञा भणितं तथा कृतम् । न केऽपि वनं गता: । उक्तं च -


राजा ने जैसा कहा था लोगों ने वैसा ही किया कोई भी मनुष्य वन को नहीं गये । जैसा कि कहा गया है-

आज्ञामात्रफलं राज्यं ब्रह्मचर्यफलं तप: ।
ज्ञानमात्रफलं विद्या दत्तभुक्तफलं धनम् ॥31॥
राज्य का फल आज्ञा मात्र है, तप का फल ब्रह्मचर्य है, विद्या का फल ज्ञान मात्र प्राप्त करना है और धन का फल दान करना तथा स्वयं भोग करना है ॥31॥

राज्ञा वने गतानां सर्वासां स्त्रीणां रक्षणाय चतुर्दिक्षु सावधानान् भटान् संस्थाप्य रक्षणं कृतम् ।


राजा ने वन में गयी हुईं सब स्त्रियों की रक्षा करने के लिए चारों दिशाओं में सावधान योद्धाओं की स्थापना कर रक्षा की, क्योंकि-

पितृभर्तृसुतैर्नार्यो बाल्य-यौवन-वार्धके ।
रक्षणीया प्रयत्नेन कलङ्क: स्यात्कुलेऽन्यथा ॥32॥
स्त्रियाँ बाल्यावस्था में पिता के द्वारा यौवनावस्था में पति के द्वारा और वृद्धावस्था में पुत्र के द्वारा रक्षा करने के योग्य हैं अन्यथा कुल में कलंकलग सकता है ॥32॥

स्त्रीषु राजकुले सर्पे सदृशे शत्रुविग्रहे ।
आयुधाग्रे न कर्तव्यो विश्वासश्च कदाचन ॥33॥
स्त्रियों में, राजकुल में, सर्प में, समान बल वाले शत्रु में और शस्त्र के अग्रभाग में कभी विश्वास नहीं करना चाहिए ॥33॥

नदीनां शस्त्रपाणीनां नखिनां श्रृङ्गिणां तथा ।
विश्वासो नैव कर्तव्य: स्त्रीषु राजकुलेषु च ॥34॥
नदियों का, हाथ में शस्त्र धारण करने वालों का, बड़े-बड़े नख वाले जीवों का, सींग वाले प्राणियों का, स्त्रियों का तथा राजकुल का विश्वास नहीं करना चाहिए ॥34॥

यदा राजाज्ञावर्तिन्यो विहितविविधश्रृङ्गारा उद्यान-गमनाय सर्वा नार्य: सोद्यमा दृष्टास्तदा नागरि-कानाहूयाज्ञप्तवान्-भो नागरिका: । भवन्तो नगराभ्यन्तरे निजनिजविनोदै:, क्रीडाद्यैश्च त्वरमाणास्तिष्ठन्तु । तदा श्रेष्ठिना चिन्तितम्-

अद्याहं सपरिकरं कथं चैत्यार्चनं करिष्यामि? इति क्षणं विसज्र्योपायं चिन्तयित्वा, स्वर्णस्थालं रत्न-संभृतं कृत्वा स राजकुलं गत: । नृपाग्रे स्थालं मुक्त्वा प्रणामं कृतवान् । ततोऽवनिपालेन पृठम्-भो श्रेष्ठिन्! समागमकारणं कथय । श्रेष्ठिना विनम्रशिरसि करकुड्मलं कृत्वा भणितम्-

राजन्नद्य चातुर्मासिको मया श्रीवर्धमानस्वामिनोऽग्रे नियमो गृहीतोऽस्ति । एवं पर्वदिने समग्रजिनायतनेषु चैत्यपरिपाटी विधिवत्कार्या साधुवन्दना च । रात्रावेकस्मिन् प्रासादे महापूजा विधेया, गीतं नृत्यादिकं करणीयमिति नियमो गृहीत इति । यथा मे नियमभङ्गो न स्यात्, यथा च भवदादेश: पालित: स्यात्तथादिश्यताम् ।

एतच्छ्रुत्वा नरपतिना हृदि ध्यातम् । अहो! अस्य महान् धर्मनिश्चय: । अनेन पुण्यात्मनास्मन्नगरं शोभते यद्येवंविधा भूयिठा मे भवेयुस्तदा विषयाशापाशनिबद्धचित्तानां प्राज्यराज्यव्यापारार्जितकश्मल-चित्तानामस्माकमपि एष आश्रय:, कृत्यानुमोदनया पुण्यविभागो जायते इत्यादिभावनां कृत्वोक्तम्- भो श्रेष्ठिन्! त्वं धन्य:, कृतार्थस्त्वम्, ते मनुज-जन्म सफलं, यतस्त्वमेवंविधकौमुद्युत्सवेऽपि धर्मोद्यमं करोषि, त्वयास्मद्राज्यं राजते । अतस्त्वं नि:शङ्कं सर्वसमुदायेन समं स्वकीयसर्वमपि धर्मकृत्यं कुरु । अहमपि तमनुमोदयामीति गदित्वा रत्नस्थालं पश्चात् समप्र्य पट्टदुकूलादिना प्रसादं कृत्वा विसर्जित: । ततो हर्षनिर्भरेण श्रेष्ठिना स्वसमुदायेन सह महतोत्सवेन चैत्यपरिपाट्यादिसमस्ततद्दिनधर्मकृत्यं समाप्य रात्रौ विशेषत: स्वसदनस्य जिनगृहे महापूजां कृत्वा परमभक्त्या स्वयमेव मद्र्दलं ताडयित्वा देवानामपि मनोहारि भूपानां दुर्लभमुत्सवं [लास्यं] प्रारब्धम् । या अस्याष्टौ भार्या: सन्ति ता अपि स्वस्वाभ्यनुवृत्या धर्मबुद्ध्या च मधुरजिनगुणगानं सतालमानं भेर्यादि-वाद्यनिनादं च नृत्यं च कुर्वन्त्य: सन्ति । नागरिकलोकोऽपिभव्यविनोदैर्दिनमतिक्रम्य शर्वर्यां स्वमन्दिरे स्थितवान् ।

एवमादित्योऽस्तमित: तदनन्तरं चन्द्रोदयो जात: । यत:-


जब राजा ने अपनी आज्ञा के अनुरूप प्रवर्तने वाली नाना प्रकार के श्रृंगार को धारण करने वाली और उद्यान में जाने के लिए तत्पर समस्त स्त्रियों को देखा तब उसने नगरवासी पुरुषों को आकर आज्ञा दी कि-हे नागरिकजनो! आप लोग नगर के भीतर ही अपने-अपने विनोदों और क्रीड़ा आदि के द्वारा शीघ्रता करते हुए रहें । तब सेठ ने विचार किया कि - आज मैं परिजनों के साथ भगवान् की पूजा कैसे करँगा ? इस प्रकार एक क्षण विचार कर उसने उपाय का विचार किया और सुवर्ण के थाल को रत्नों से भरकर वह राजकुल में गया । राजा के आगे थाल को रखकर उसने प्रणाम किया । तत्पश्चात् राजा ने पूछा-हे सेठजी । आगमन का कारण कहो । सेठ ने नम्रीभूत सिर पर जुड़े हुए हाथ लगाकर कहा - हे राजन्! आज मैंने श्री वर्धमानस्वामी के आगे चार माह का नियम लिया है कि इस तरह पर्व के दिन समस्त जिनमन्दिरों में विधिपूर्वक प्रतिमाओं की पूजा और साधुओं की वन्दना करँगा । रात्रि के समय एक महल में महापूजा करँगा और गीत, नृत्य आदि करँगा । ऐसा नियम मैंने लिया है, सो जिस तरह मेरा नियम भंग न हो और आपकी आज्ञा का पालन हो जाये, ऐसी आज्ञा दीजिये ।

यह सुनकर राजा ने मन में विचार किया कि-अहो । इसे धर्म का बड़ा निश्चय है । इस पुण्यात्मा से हमारा नगर सुशोभित हो रहा है । यदि इस प्रकार के मनुष्य मेरे नगर में अधिक होते तो विषयों की आशारूपी पाश से जिनका चित्तबद्ध है तथा बहुत बड़े राज्य के व्यापार से संचित पाप से जिनका चित्त मलिन हो रहा है, ऐसे हम लोगों का भी यह आश्रय होता क्योंकि कार्य की अनुमोदना से पुण्य का विभाग होता है, इत्यादि विचार कर राजा ने कहा कि-सेठजी तुम धन्य हो, तुम कृतकृत्य हो और तुम्हारा मनुष्य जन्म सफल है क्योंकि तुम इस प्रकार के कौमुदी उत्सव में भी धर्म का उद्योग कर रहे हो । तुमसे हमारा राज्य सुशोभित है इसलिए तुम निश्शंक होकर सब समूह के साथ अपने सभी धर्मकार्य करो । मैं भी उसकी अनुमोदना करता हूँ । इतना कहकर राजा ने उसका रत्न थाल वापस कर रमशमी वस्त्र आदि से सम्मान किया और बड़ी प्रसन्नता से उसे विदा किया ।

तदनन्तर हर्ष से भरे हुए सेठ ने अपने समूह के साथ बड़े भारी उत्सव से चैत्यवन्दना आदि उस दिन का समस्त कार्य समाप्त किया और रात्रि में विशेष समारोह से अपने गृह चैत्यालय में महापूजा कर जिनेन्द्र भगवान् के आगे परम भक्ति से स्वयं ही मद्र्दल नामक बाजा बजाकर देवों के भी मन को हरने वाला तथा राजाओं के लिए दुर्लभ नृत्य प्रारम्भ किया । अर्हद्दास सेठ की जो आठ स्त्रियाँ थीं, वे भी अपने स्वामी के अनुकरण तथा धर्मबुद्धि से मधुर जिन गुणगान तालमान के साथ भेरी आदि बाजों के शब्द तथा नृत्य कर रही थीं । नगरवासी लोग भी उत्तम विनोदों से दिन को व्यतीत कर रात्रि के समय अपने मन्दिर में स्थित थे । इस प्रकार सूर्य अस्त हो गया और चन्द्रमा का उदय हो गया ।

आलोक्य संगमे रागं पश्चिमाशा विवस्वतो: ।
कृतं कृष्णमुखं प्राच्या न हि नार्यो विनेष्र्यया ॥35॥
उस समय पश्चिम दिशा में लालिमा छा गयी थी और पूर्व दिशा का मुख श्याम पड़ गया था, जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों उस समय पश्चिम दिशा और सूर्य के समागम में राग-प्रीति (पक्ष में लालिमा) को देखकर पूर्व दिशा ने अपना मुख श्याम कर लिया था, सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रियाँ ईर्ष्या से रहित नहीं होती ॥35॥

अत्रान्तरे चन्द्रोदये कामातुरेण राज्ञा स्वराज्ञी स्मृता । प्रिया विरहितस्यास्य हृदि चिन्ता समागता, इति गता निद्रा । तथा चोक्तम्-


इसी बीच चन्द्रोदय होने पर काम से पीडि़त राजा ने अपनी रानी का स्मरण किया । काम से पीडि़त होने के कारण राजा की नींद चली गयी थी, उससे ऐसा जान पड़ता था, मानों प्रिया से रहित इस राजा के हृदय में चिन्ता आ गयी थी, इसी हेतु नींद चली गयी थी । जैसा कि कहा है-

प्रिया विरहितस्यास्य हृदि चिन्ता समागता ।
इति मत्वा गता निद्रा के कृतघ्नमुपासते ॥36॥
प्रिया से रहित इस राजा के हृदय में चिन्तारूपी स्त्री आ गयी है । यह मानकर ही मानों निद्रारूपी स्त्री चली गयी थी, सो ठीक ही है क्योंकि कृतघ्न की उपासना कौन करते हैं? ॥36॥

कृतोपकारप्रियबन्धुमर्कमावीक्ष्य हीनांशुमध: पतन्तम् ।
इतीव मत्वा नलिनीवधूभिर्निमीलितान्यम्बुरुहेक्षणानि ॥37॥
उस समय कमलिनियों के कमल बन्द हो गये थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों अपने उपकारी प्रियबन्धु सूर्य को किरण रहित तथा नीचे पड़ता हुआ देखकर कमलिनीरूपी स्त्रियों ने दु:ख से ही कमलरूपी नेत्र बन्दकर लिए थे ॥37॥

नृपोऽपि निद्रामलभमानो मन्त्रिणं प्रति जगाद । भो मन्त्रिन्! यत्र विलासवत्य: सविलासं विलसन्ति तत्रोद्याने विनोदार्थं गम्यते । एतद्राजवचनं श्रुत्वा सुबुद्धिमन्त्रिणाभाणि-देव! साम्प्रतमुद्यानगमने क्रियमाणे बहुभिर्नागरिकै: समं विरोधो भविष्यति विरोधे जायमाने च राज्यादिविनाश: स्यात् । उक्तञ्च-


निद्रा को न प्राप्त करता हुआ राजा भी मन्त्री से बोला । हे मन्त्री! जहाँ स्त्रियाँ हाव-भाव सहित क्रीड़ा करती हैं, उस उद्यान में विनोद के लिए चलना है । राजा के यह वचन सुन सुबुद्धि नामक मन्त्री ने कहा - हे देव! इस समय उद्यान गमन करने पर बहुत से नागरिकों के साथ विरोध हो जायेगा और विरोध होने पर राज्यादि का नाश हो जायेगा । जैसा कि कहा है -

एकस्यापि विरोधेन लभते विपदं नर: ।
महानपि कुलीनोऽपि किं पुनर्बहुभि: सह ॥38॥
एक के भी विरोध से मनुष्य विपत्ति को प्राप्त होता है । भले ही वह मनुष्य बड़ा भी हो और कुलीन भी हो! जब एक के विरोध से भी विपत्ति को प्राप्त होता है तब बहुतों के साथ विरोध होने का क्या कहना? ॥38॥

बहुभिर्न विरोद्धव्यं दुर्जयो हि महाजन: ।
स्फारमपि नागेन्द्रं भक्षयन्ति पिपीलिका: ॥39॥
बहुतों के साथ विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि महाजन दुर्जय होता है । देखो चींटियाँ बड़े भारी नागेन्द्र सर्पराज को खा जाती हैं ॥39॥

मन्त्रिणो वचनं हृदयेऽवगम्य सावज्ञं साभिमानं च नृप आह-भो नियोगिन् ? मयि निर्मूलिताशेष-शत्रु-कन्दोद्भूतवीररससमृद्धे कु्रद्धे सति वराका एते किं कर्तुं समर्था: । तथा चोक्तम्-


मन्त्री के वचन हृदय में जानकर राजा ने अवज्ञा और अभिमान से कहा - हे नियोंगी उखाड़े हुए समस्त शत्रुरूप कंद से उत्पन्न वीर रस से जो समृद्ध हो रहा है, ऐसे मेरे क्रुद्ध होने पर ये बेचारे क्या करने में समर्थ हैं ? जैसा कि कहा है -

आजन्म-प्रतिबद्धवैरपरुषं चेतो विहायादरा-
त्सांगत्यं यदि नामसंप्रति वृकै: सार्धं तुरङ्गै: कृतम् ।
तत्किं कुञ्जरकुम्भपीठ-विलुठत्यासक्तमुक्ताफल-
ज्योतिर्भासुरकेसेरस्य पुरत: सिंहस्य किं स्थीयते ॥40॥
जन्म से लेकर बन्धे हुए वैर से कठोर चित्त को छोड़कर यदि घोड़ों ने आदरपूर्वक इस समय भेडि़यों के साथ मित्रता कर ली है तो क्या वे हाथियों के गण्डस्थल पर लोटने से लगे हुए मोतियों की ज्योति से जिसकी गर्दन के बाल सुशोभित हो रहे हैं, ऐसे सिंह के सामने भी खड़े हो सकते हैं? अर्थात् नहीं ॥40॥

मन्त्रिणोक्तम्-भो राजन्! सद्भिरात्मनात्मपौरुषादि गुणा न प्रकाश्यन्ते । उक्तञ्च-


मन्त्री ने कहा - हे राजन्! सत्पुरुषों द्वारा अपने आप अपने पौरुष आदि गुण प्रकाशित नहीं किये जाते अर्थात् सत्पुरुष अपने गुणों की स्वयं प्रशंसा नहीं करते हैं । जैसा कि कहा है -

न सौख्यसौभाग्यकरा गुणा नृणां स्वयंगृहीता युवतिस्तना इव ।
परैर्गृहीता उभयोस्तु तन्वते1 न युज्यते तेन गुणग्रह: स्वयम् ॥41॥
जिस प्रकार युवती के स्तन स्वयं ग्रहण किये हुए सुख उत्पन्न नहीं करते हैं, उसी प्रकार पुरुषों के गुण स्वयं ग्रहण किये हुए सुख और सौभाग्य को नहीं करते हैं किन्तु दूसरों के द्वारा ग्रहण किये हुए दोनों के सुख को विस्तृत करते हैं इसलिए स्वयं गुणों की प्रशंसा करना ठीक नहीं है ॥41॥

अन्यच्च-


और भी कहा है -

न कश्चित्स्वयमात्मानं शंसन्नाप्नोति गौरवम् ।
गुणा हि गुणतां यान्ति गुण्यमाना: पराननै: ॥42॥
स्वयं अपनी प्रशंसा करता हुआ कोई मनुष्य गौरव को प्राप्त नहीं होता है, निश्चय से दूसरों के मुख से प्रशंसा को प्राप्त हुए गुण गुणपने को प्राप्त होते हैं ॥42॥

भो राजन्! प्रत्येकं सर्वेऽपि असमर्था: परममीषां सति समुदाये तृणानामिव सामर्थ्यमस्ति । तथा चोक्तम्-


हे राजन्! यद्यपि सभी लोग पृथक्-पृथक् रहकर कोई भारी कार्य करने के लिए असमर्थ हैं तथापि इनका समूह एकत्रित होने पर तृणों के समान उनमें सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है । जैसा कि कहा है -

बहूनामप्यसाराणां समुदायो हि दारुण: ।
तृणैरावेष्टिता रज्जुस्त्या नागोऽपि बद्ध्यते ॥43॥
बहुसंख्यक नि:सार-निर्बल लोगों का समुदाय भी वास्तव में भयंकर होता है क्योंकि जो रस्सी सारहीन तृणों से बनाई जाती है, उसके द्वारा हाथी भी बाँधा जाता है ॥43॥

अन्यच्च-


और भी कहा है -

सामर्थ्यं जायते राजन् समुदायेन तत्क्षणात् ।
प्राणिनामसमर्थानामतो र्मु दुराग्रहम् ॥44॥
हे राजन्! समुदाय होने से एकत्रित होने के कारण असमर्थ प्राणियों में उसी क्षण सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है इसलिए दुराग्रह छोड़ो ॥44॥

पुन: राजा बू्रते-भो मन्त्रिन् समर्थेनैकेनैव पूर्यते किं तेनाशक्तेन समुदायेन? तथा चोक्तम्-


राजा ने फिर कहा - हे मन्त्रिन्! यदि समर्थ मनुष्य एक है तो उसी के द्वारा कार्य पूर्ण हो जाता है, शक्तिहीन समूह से क्या होता है? जैसा कि कहा है-

एकोऽपि य: सकलकार्यविधौ समर्थ:
सत्त्वाधिको भवति किं बहुभि: प्रहीनै: ।
चन्द्र: प्रकाशयति दिङ्मुखमण्डलानि
तारागण: समुदितोप्यसमर्थ एव ॥45॥
जो शक्ति से सम्पन्न होता है, वह एक होकर भी अर्थात् अकेला ही समस्त कार्यों को करने में समर्थ होता है अत: शक्ति से हीन बहुत मनुष्यों से क्या लाभ है ? चन्द्रमा अकेला ही दिग्-मण्डल को प्रकाशित कर देता है परन्तु तारों का समूह इकट्ठा होकर भी दिग्-मण्डल प्रकाशित करने में असमर्थ ही रहता है ॥45॥

पुनर्मन्त्री वदति - भो नरेन्द्र! तव विनाशकाल: समायात:, अन्यथा विपरीतबुद्धिर्न जायते । उक्तञ्च-


मन्त्री ने फिर कहा - हे राजन्! तुम्हारा विनाश-काल आ गया है, अन्यथा विपरीत बुद्धि नहीं होती । जैसा कि कहा है -

न निर्मिता कैर्न च पूर्वदृष्टा न श्रूयते हेममयी कुरङ्गी ।
तथापि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धि:॥46॥
सुवर्ण की हिरणी पहले किन्हीं के द्वारा न बनाई गई है न पहले देखी गयी है और न सुनी गयी है तो भी रामचन्द्रजी को उसकी तृष्णा लग गयी । सो ठीक ही है क्योंकि विनाश-काल में बुद्धि विपरीत हो जाती है ॥46॥

पुनरपि मन्त्री बू्रते - भो राजन् बहुजनविरोधे सति विनाशं विहायान्यन्न भवति । अत्राथ सुयोधनराजाख्यानं श्रृणु सावधानो भूत्वा । तथाहि-हस्तिनागपुरे सुयोधनराजा, दुष्टनिग्रहं शिष्टपालनं च करोति । तस्य पट्टराज्ञी कमला, व्यो: पुत्रो गुणपाल:, मन्त्री पुरुषोत्तम: । तद्यथा-


फिर भी मन्त्री ने कहा - हे राजन्! बहुत मनुष्यों के साथ विरोध होने पर विनाश के सिवाय अन्य कुछ नहीं होता । इस विषय में सुयोधन राजा की कथा सावधान होकर सुनो । जैसा कि हस्तिनागपुर नगर में सुयोधन राजा दुष्टों का निग्रह और सज्जनों का पालन करता था । उसकी पट्टरानी कमला थी, उन दोनों के गुणपाल नाम का पुत्र था और पुरुषोत्तम नाम का मन्त्री था । जैसा कि स्पष्ट है-

राजाप्रजाहितधियो धृतनीतिशास्त्रा:, सर्वोपधीषु च सदैव विशुद्धिभाज: ।
शुद्धान्वया: समगता अधिकारिणश्च, कल्याणिनो ननु नृपस्य भवन्त्यमात्या: ॥47॥
जिनकी बुद्धि राजा और प्रजा के हित में लग रही है, जो नीति शास्त्र को धारण करने वाले हैं, समस्त परिग्रह के विषय में जो सदा ही विशुद्ध रहते हैं, कभी लालच में पड़कर अनीति नहीं करते हैं शुद्ध वंश वाले हैं, मध्यस्थभाव को प्राप्त हैं, किसी के साथ पक्षपात नहीं करते हैं और अधिकार युक्त हैं, अपने दायित्व के कार्य पूर्ण करते हैं, निश्चय से वे ही मन्त्री राजा का कल्याण करने वाले होते हैं ॥47॥

स चतसृनृपविद्यानां ज्ञाता राजवल्लभोऽभूत । उक्तञ्च-


वह पुरुषोत्तम मंत्री साम, दाम, भेद और दण्ड इन चारों राज विद्याओं का ज्ञाता होने से राजा को अत्यन्त प्रिय था । कहा भी है-

मन्त्र: कार्यानुगो येषां कार्यं, स्वामिहितानुगम् ।
त एव मन्त्रिणो राज्ञां न तु ये गल्लफुल्लना: ॥48॥
जिनका मंत्री कार्य के अनुरूप है और कार्य स्वामी के हित के अनुरूप है, वे ही मन्त्री राजाओं के मन्त्री होने के योग्य हैं, जो मात्र गाल फुलाने वाले हैं, व्यर्थ की बात करने वाले हैं, वे मंत्री होने के योग्य नहीं हैं ॥48॥

तत्र स्वामिकार्यरत:, कपिल: पुरोहितो जपहोमविधानाशीर्वाददानसावधान:, भार्या: लक्ष्मी:, पुत्रों देवपाल: । उक्तं च-


वहाँ स्वामी के कार्य में लीन रहने वाला कपिल नामक पुरोहित रहता था, जो जप, होम, विधान और आशीर्वाद के देने में सावधान था । उसकी स्त्री का नाम लक्ष्मी और पुत्र का नाम देवपाल था । कहा भी है -

वेद वेदाङ्गतत्त्वज्ञो जपहोमपरायण: ।
आशीर्वादपरो नित्यमेष राज्ञ: पुरोहित: ॥49॥
जो वेद और वेदांग के रहस्य को जानने वाला है जप और होम करने में तत्पर रहता है तथा आशीर्वाद देने में लीन रहता है, वही राजा का पुरोहित हो सकता है ॥49॥

स्थितस्य राज्ञोऽग्रे चरेण निरूपितम्-भो राजन् तव देश: शत्रुभिरुपद्रुत: । एतद्वच: श्रुत्वा राज्ञोक्तम्-तावद्वैरिवर्गा: भुवस्तले दृश्यन्ताम् यावन्ममकालखङ्गस्य गोचरे ते न निपतन्ति । पुनरपि राज्ञोक्तम्-भो नियोगिन् यावदहमालस्य निद्रामुदितनयनस्तिष्ठामि तावन् वैरिण: सर्वेऽपि गलगर्जं विदधतु । मयि चतुरङ्गबलान्विते दिग्विजयाय समुद्यते तेषां दिग्भ्रम एव भावी नान्यत् । उक्तं च-


यमदण्ड नाम का कोतवाल था, उसकी स्त्री का नाम धनवती था और दोंनों के वसुमति नाम का पुत्र था । इस प्रकार सुयोधन राजा राज्य करता था । एक समय सभा में स्थित राजा के आगे गुप्तचर ने कहा - हे राजन्! तुम्हारा देश शत्रुओं से उपद्रुत हों रहा है-शत्रु उपद्रव कर रहे हैं । गुप्तचर के वचन सुन राजा ने कहा - वैरियों के समूह पृथ्वी तल पर तभी तक दिखायी दें, जब तक वे यमराज के समान मेरी तलवार के सामने नहीं पड़ते । राजा ने फिर भी कहा - हे नियोगी! जब तक मैं आलस्यरूपी निद्रा से मुद्रित नयन हूँ, तब तक सभी शत्रु गल-गर्जना कर लें, मेरे चतुरंग सेना से युक्त हो, दिग्विजय के लिए उद्यत होने पर उनको दिग्भ्रम ही होगा, अन्य कुछ नहीं । कहा भी है-

निद्रामुद्रितलोचनो मृगपतिर्यावद् गुहां सेवते
तावत्स्वैरममी चरन्ति हरिणा: स्वच्छन्दसंचारिण: ।
उन्निद्रस्य विधूतकेसर-सटाभारस्य निर्गच्छतो
नादे श्रोत्रपथं गते हतधियां सन्त्येव शून्या दिश: ॥50॥
जब तक सिंह निद्रा से नेत्र बंदकर गुहा का सेवन करता है, तब तक स्वच्छन्दता से विचरने वाले ये हिरण इच्छानुसार घूमते हैं किन्तु उनींदे और जिसकी जटाओं का समूह कम्पित हो रहा है, ऐसे बाहर निकले हुए सिंह का शब्द जब कान में पड़ता है, सुनाई देता है तब इनकी बुद्धि मारी जाती है और इन्हें दिशाएँ शून्य दिखने लगती हैं ॥50॥

तावद् गर्जन्ति मातङ्गा वने मदभरालसा: ।
शिरोऽवलग्न-लाङ्गूलो यावन्नायाति केसरी ॥51॥
मद के भार से अलसाये हाथी वन में तब तक गरजते हैं जब तक शिर पर पूँछ लगाये हुए सिंह नहीं आता है ॥51॥

पुन:-


और भी कहा है -

तावद् गर्जन्ति मण्डूका कूपमाश्रित्य निर्भरम् ।
यावत्करिकराकार: कृष्णसर्पो न दृश्यते ॥52॥
कुँए में रहने वाले मेंढ़क तब तक अच्छी तरह गरजते हैं, जब तक हाथी की सूँड के आकार वाला सर्प दिखाई नहीं देता ॥52॥

यमदण्ड: कोटपाल:, भार्या धनवती, पुत्रो वसुमति:, एवं राज्यं करोति सुयोधनो राजा । एकदास्थान-एवमुदित्वा चतुरङ्गबलेन राज्ञा शत्रुं प्रति प्रयाणकोद्यम: कृत: । ततो वीराणां तुष्टिदानं दत्वा भणितम्-भो वीरा:! श्रूयताम् भक्तायमवसर: । यत:-


ऐसा कहकर चतुरंग सेना से युक्त राजा ने शत्रु के प्रति प्रस्थान करने का उद्यम किया । तदनन्तर वीरों को सन्तुष्ट कर राजा ने कहा - हे वीरो, सुनो आपका यह अवसर है । क्योंकि-

जानीया: प्रेषणे-भृत्यान् बान्धवान् व्यसनागमे ।
मित्रं चापत्तिकाले च भार्यां च विभवक्षये ॥53॥
सेवकों को युद्ध में भेजने के समय, भाईयों को संकट के आने पर, मित्र को विपत्ति के समय और स्त्री को सम्पत्ति नष्ट हो जाने पर जानना चाहिए ॥53॥

अलसं मुखरं स्तब्ध: लुब्धं व्यसनिनं शठम् ।
असंतुष्टमभक्तं च त्यजेद् भृत्यं नराधिप:॥54॥
आलसी, बकवादी, अहंकारी, लोभी, व्यसनी, मूर्ख, असंतोषी और अभक्त सेवकों को राजा छोड़ देवें ॥54॥

भक्तं शक्तं कुलीनं च न भृत्यमपमानयेत् ।
पुत्रवल्लालयेन्नित्यं यदीच्छेच्छुभमात्मन: ॥55॥
यदि राजा अपनी भलाई चाहता है तो भक्त समर्थ और कुलीन सेवक का कभी अपमान न करे किन्तु पुत्र के समान उस पर प्यार करे ॥55॥

भृत्यैर्विरहितो राजा नो लोकानुग्रहप्रद: ।
मयूखैरिव दीप्तांशुस्तेजस्वपि न शोभते ॥56॥
जिस प्रकार किरणों से रहित सूर्य तेजस्वी होने पर भी सुशोभित नहीं होता है, उसी प्रकार सेवकों से रहित राजा लोकोपकारी होने पर भी सुशोभित नहीं होता ॥56॥

एवं ज्ञात्वा नरेन्द्रेण भृत्या: कार्या विचक्षणा: ।
कुलीना: शौर्यसंयुक्ता शक्ता भक्ता: क्रमगता: ॥57॥
ऐसा जानकर राजा को उन्हें ही सेवक बनाना चाहिए जो चतुर हों, कुलीन हों, शूरवीरता से युक्त हों, समर्थ हों, भक्त हों और क्रमागत-परम्परा से चले आ रहे हों ॥57॥

ततो निर्गमनसमये यमदण्डकोटपालं प्रति तेन भणितम्-भो यमदण्ड! त्वया महता यत्नेन प्रजारक्षणं कार्यम् । तेनोक्तम्-महाप्रसाद: । अपराण्यपि कार्याणि निरूप्य यमदण्डस्य दिग्विजयाय निर्गतो राजा । तद्दिनादारभ्य यमदण्डेन सर्वजनानन्दकारि रक्षणं कृतम् । राजकुमारादय: सर्वेऽपि नागरा समावर्जिताश्च । कतिपयदिवसै: शत्रुं जित्वा स्वरिपो: सर्वस्वापहारं कृत्वा निजनगरं प्रत्यागतो राजा । महाजनं संमुखागतं

नरपतिना समान्य भणितम्-भो लोका:! यूयं सुखेन तिष्ठथ? तैरुक्तम्-स्वामिन् यमदण्डप्रसादेन सुखेन तिष्ठाम: ।

कियन्तं कालं विलम्ब्य ताम्बूलं दत्वा पुनरपि राज्ञा पृठा लोकास्तथैवोक्तवन्त: । ततो महाजनं प्रस्थाप्य मनसि

चिन्तितं राज्ञा-अहो अनेन यमदण्डेन सर्वोऽपि स्वायत्तीकृत: । असौ दुष्टात्मा मम राजद्रोही, येन केनाप्युपायेनैनं

मारयामि । यदुक्तम्-


तदनन्तर बाहर निकलते समय राजा ने यमदण्ड कोतवाल से कहा - हे यमदण्ड! तुम्हें बड़े यत्न से प्रजा की रक्षा करनी चाहिए । उसने कहा - यह आपका महाप्रसाद है । यमदण्ड कोतवाल के लिए और भी कार्य बतलाकर राजा दिग्विजय के लिए निकल पड़ा । उस दिन से लेकर यमदण्ड ने सब मनुष्यों को आनन्दित करने वाला संरक्षण किया । राजकुमारों को आदि लेकर सभी नागरिक अनुकूल कर लिए । कुछ दिनों में शत्रु को जीतकर तथा अपने शत्रु का सर्वस्व अपहरण कर राजा अपने नगर को लौट आया । स्वागत के लिए सामने आये हुए महाजनों का सम्मान कर राजा ने उनसे कहा - हे महाजनों! तुम सब सुख से रहते हो । महाजनों ने कहा -

हे स्वामिन्! यमदण्ड के प्रसाद से सुख से रहते हैं । कुछ काल तक विलम्ब कर तथा मान देकर राजा ने लोगों से फिर भी पूछा तो उन्होंने वैसा ही कहा । तदनन्तर महाजनों को विदाकर राजा ने मन में विचार किया । अहो इस यमदण्ड ने सभी लोगों को अपने अधीन कर लिया । यह दुष्टात्मा मेरा राजद्रोही है । जिस किसी उपाय से मैं इसे मारता हूँ । जैसा कि कहा गया है-

नियोगिहस्तार्पितराज्यभारा: स्वपन्ति ये स्वैरविहारसारा: ।
विडालवृन्दार्पितदुग्धपूरा:स्वपन्ति ते मूढधिय: क्षितीन्द्रा ॥58॥
जो कर्मचारियों के हाथ में राज्य का भार सौंप कर स्वच्छन्दतापूर्वक विहार करते हैं वे मूर्ख राजा मानों बिलावों के समूह को दूध का समूह सौंपकर सोते हैं ॥58॥

एवमपमानेन स्थितो राजा न कस्यापि निरूपयति । यत:-


इस प्रकार अपमान से रहता हुआ राजा किसी से कुछ नहीं कहता था । क्योंकि -

अर्थ नाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च ।
र्वनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥59॥
बुद्धिमान् मनुष्य धनहानि, मन का संताप, घर में हुए दुश्चरित्र, ठगाई और अपमान को प्रकाशित न करें ॥59॥

सिद्धं मन्त्रौषधं धर्म्मं गृहछिद्रं च मैथुनम् ।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव न कदाचित्प्रकाशयेत् ॥60॥
सिद्ध किया हुआ मंत्र, अनुभूत औषध, धर्म, घर के छिद्र, मैथुन, खोटा भोजन और खोटा सुना कभी प्रकाशित नहीं करना चाहिए ॥60॥

एकदा यमदण्डेन गत्याकारेण राजानं दुष्टाभिप्रायं ज्ञात्वा स्वमनसि चिन्तितम् । अहो! मया भव्यं राज्यं

कृतम्, तथापि यद्राजा दुष्टत्वं न त्यजति तत् "राजा कस्यापि वशो न भवति" इति लोकोक्ति: सत्या । तथा चोक्तम्-


एक समय यमदण्ड कोतवाल ने चाल-ढाल से राजा को दुष्ट अभिप्राय से युक्त जानकर अपने मन में विचार किया-अहो! मैंने यद्यपि अच्छा राज्य किया है । तथापि राजा जो अपनी दुष्टता नहीं छोड़ रहा है इसलिए राजा किसी के वश नहीं होता, यह कहावत सत्य है । जैसा कि कहा है-

काके शौचं द्यूतकारे च सत्यं क्लीवे धैर्यं मद्यपे तत्त्वचिन्ता ।
सर्पे क्षान्ति: स्त्रीषु कामोपशान्ति: राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ॥61॥
कौए में पवित्रता, जुआरी में सत्य, नपुंसक में धैर्य, मदिरा पीने वाले में तत्त्व विचार, साँप में क्षमा, स्त्रियों में काम की शांति और राजा मित्र किसने देखा और सुना है ॥61॥

अन्यच्च-


और भी कहा है -

कोऽर्थान्प्राप्य न गर्वितो विषयिण: कस्यापदोऽस्तंगता:
स्त्रीभि: कस्य न खण्डितं भुवि मन: को नाम राज्ञां प्रिय ॥
क: कालस्य न गोचरत्वमगमत् कोऽर्थाद् गतो गौरवं
को वा दुर्जन-वागुरासु पतित: क्षेमेण यात: पुमान् ॥62॥
धन को प्राप्त कर कौन अहंकारी नहीं हुआ? किस विषयी मनुष्य की आपदाएँ नष्ट हुई हैं? पृथ्वी पर स्त्रियों के द्वारा किसका मन खण्डित नहीं हुआ? राजाओं का प्यारा कौन है? काल की गोचरता को कौन प्राप्त नहीं हुआ है? कौन मनुष्य धन से गौरव को प्राप्त हुआ है? और दुर्जन के जाल में पड़ा हुआ कौन पुरुष सुख से निकला है? ॥62॥

कियान् कालो गत: । एकदा राज्ञा मन्त्रिणं सपुरोहितमाहूय स्वचित्ताभिप्रायं निवेद्य भणितम्-अयं यमदण्डो दुष्टात्मा मारणीय उपायेन । ततस्ताभ्यां तथैवालोचितम् । यत:


कितना ही समय निकल गया । एक समय राजा ने पुरोहित सहित मन्त्री को बुलाया और अपने मन का अभिप्राय बताकर उनसे कहा - यह यमदण्ड दुष्ट अभिप्राय वाला है । इसलिए उपाय से मारने के योग्य है । तदनन्तर मन्त्री और पुरोहित ने राजा के कहे अनुसार ही विचार किया । क्योंकि-

तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृश: ।
सहायास्तादृशा ज्ञेया यादृशी भवितव्यता ॥63॥
जैसी होनहार होती है वैसी बुद्धि होती है पुरुषार्थ वैसा होता है और सहायक भी वैसे ही प्राप्त होते हैं ॥63॥

उपायं र्कन पर्यालोच्य त्रिभिर्मिलित्वैकस्मिन् दिवसे राज्ञा कोषे खनित्र-व्यापारं कृत्वा तत्रस्थानि वस्तूनि अन्यत्र गुप्तस्थाने निक्षिप्य निजस्थानं प्रतिवेगेन गच्छता राज्ञा पादुका, मन्त्रिणा मुद्रिका विस्मृता, पुरोहितेन च यज्ञोपवीतम् । प्रात: समये कोलाहल: कृत, यमदण्डाकारणार्थं भृत्या: प्रेषिता:, यमदण्डेन मनसि चिन्तितं अद्य मे मरणमायातम् । यदुक्तम्-


राजा, मन्त्री और पुरोहित-तीनों ने मिलकर किसी उपाय का निश्चय किया । तदनुसार एक दिन राजा ने खजाने में कुदारी चलाकर-संधिकर वहाँ रखी हुई वस्तुएँ किसी अन्य सुरक्षित स्थान में रख दी । यह सब कर शीघ्रता से अपने स्थान पर जाता हुआ राजा खड़ाऊँ, मंत्री मुंदरी और पुरोहित जनेऊ भूल गया । प्रात:काल होंने पर हल्ला किया कि, खजाने में चोरी हो गयी । यमदण्ड को बुलाने के लिए सेवक भेजे गये । यमदण्ड ने मन में विचार किया कि आज मेरी मृत्यु आ पहुँची है । क्योंकि कहा है-

राज्ञ: कोपो हि दुर्वृत्तो दुर्निरीक्ष्यो दुराशय: ।
दु:शाम्यो दुर्घटो दुष्टो दु:सहोऽस्ति भुवस्तले ॥64॥
निश्चय से पृथ्वी तल पर राजा का क्रोध दुर्व्यवहार से युक्त दु:ख से देखने योग्य दुष्ट अभिप्राय से सहित दु:ख से शमन करने के योग्य दुर्घट दुष्ट और दु:ख से सहन करने के योग्य होता है ॥64॥

ज्ञातृत्वं कुपिते कुत:


दूसरी बात यह भी है कि कुपित मनुष्य में ज्ञातापन कहाँ हो सकता है?

कविरकवि पटुरपटु: शूरो भीरुश्चिरायुरल्पायु: ।
कुलज: कुलहीनो वा भवति पुमान् नरपते: कोपात् ॥65॥
राजा के क्रोध से कवि-अकवि, चतुर-अचतुर, शूरवीर, भयभीत, दीर्घायु, अल्पायु और कुलीन मनुष्य कुलहीन हो जाता है ॥65॥

एवं निश्चित्यागतो राजमन्दिरं यमदण्ड: । तं दृष्ट्वा राज्ञा भणितम्-हे यमदण्ड महाजनरक्षां करोषि, ममोपरि औदासीन्यं च । अद्य मम भाण्डारस्थितानि सर्ववस्तूनि चौरेण गृहीतानि । तानि वस्तूनि चौरश्च झटिति दातव्य: । नोचेच्छिरश्छेदं करिष्यामि । एतद्राजवचनं श्रुत्वा खातावलोकनार्थं गतो यमदण्ड: । तत्र खातमुखे पादुकां, मुद्रिकां, यज्ञोपवीतं च दृष्ट्वा गृहीत्वा च पादुकाभ्यां राजा, मुद्रिकया मन्त्री, यज्ञोपवीतेन च पुरोहितश्चौरो ज्ञात: । ततश्चित्ते तेन विचारितम्-अहो यदि राजा एवं करोति तदा कस्याग्रे निरूप्यते । तथा चोक्तम्-


ऐसा निश्चय कर यमदण्ड राजमहल गया । उसे देखकर राजा ने कहा - हे यमदण्ड तुम महाजनों की रक्षा करते हो परन्तु मेरे ऊपर उदासीनता वर्तते हो । आज मेरे खजाने में स्थित सब वस्तुएँ चोर ले गये हैं । वे वस्तुएँ और चोर शीघ्र ही देने के योग्य हैं नहीं तो तुम्हारा शिरच्छेद करूँगा (गला कटवा दूँगा) । राजा के यह वचन सुनकर यमदण्ड सन्धि को देखने के लिए गया । वहाँ सन्धि के अग्रभाग पर खड़ाऊँ अंगूठी और जनेऊ देखकर इसने उन्हें उठा लिया और खड़ाऊओं से राजा, मुद्रिका से मन्त्री तथा जनेऊ से पुरोहित को चोर जान लिया । पश्चात् उसने मन में विचार किया-अहो यदि राजा ही ऐसा करता है तो किसके आगे कहा जावे? जैसा कि कहा है-

द्वीपं कडङ्गरीये च जारे राजनि वा पुन: ।
पापकृत्सु च विद्वत्सु नियन्ता जन्तुरत्र क: ॥66॥
यदि पशु ही द्वीप को उजाड़ने लगें, राजा ही यार हो जावे और विद्वान् ही पाप करने लगें तो फिर इस संसार में रोकने वाला कौन हो सकता है? ॥66॥

इमं कोलाहलं श्रुत्वा सर्वोऽपि नागर: समुदायेन समायात: । तस्याग्रे राज्ञा समग्रो वृत्तान्त: कथित: । महाजनेन निरूपितम्-हे तात! अस्य सप्त दिनानि दातव्यानि । सप्त दिनानन्तरं वस्तूनि चौरं च न प्रयच्छति चेत् तदा देव चिन्तितं कार्यं श्रीमता । राज्ञा महाजनोक्तं महता कष्टेन प्रतिपन्नम् । तमर्थं सुबुद्धं विधाय नागरिकलोको निजधाम जगाम । इतो यमदण्डेन राजपुत्रादिसर्वसमाजं मेलयित्वा निरूपितम्-मया किं क्रियते? ईदृग्विधा व्यवस्था मे समायाता । महाजनेनोक्तं मा भयं कुरु । त्वयि रक्षणायोद्यते सत्यस्मिन्नगरे चौरव्यापारो जात: । साम्प्रतं तव राज्ञो वा भेदेन चौरव्यापारोऽस्ति । युवयोरुभयोर्मध्ये यो दुष्टस्तस्य निग्रहं करिष्यामो वयम् । यमदण्डेनोंक्तं-एवं भवतु ।

ततोऽनन्तरं धूर्तवृत्त्या चौरमवलोकयति यमदण्ड: । प्रथमदिने राजसभायां गत: । राज्ञे नमस्कारं कृत्वोपविष्ट: । नरपतिना पृठम्-रे यमदण्ड त्वया चौरो दृष्ट:? तेनोक्तं-स्वामिन् मया सर्वत्र चौरान्वेषणं कृतं परं न दृष्ट: कुत्रापि । पुन: राज्ञोक्तं-एतावत्कालपर्यन्तं क्व स्थितं भवता? यमदण्डेनोक्तम्-हे देव! एकस्मिन् प्रदेशे कश्चित् कथक: कथां कथयति स्म । सा कथा मया श्रुता, तेन महती वेला लग्ना । राज्ञोक्तं-रे यमदण्ड त्वया कथया कथं स्वस्य मरणं विस्मर्यते? तां साश्चर्यां कथां कथय ममाग्रे । तेनोक्तम्-राजन् दत्तावधानेनाकर्णय कथां निरूपयाम्यहम् । तद्यथा-


यह कोलाहल सुनकर सभी नगरवासी लोग इकट्ठे होकर आ गये । राजा ने उनके सामने सब समाचार कहा । नगरवासियों ने कहा - हे तात! इसे सात दिन देने के योग्य हैं । सात दिन के अनन्तर यदि यह वस्तुएँ और चोर को नहीं देता है तो हे देव! श्रीमान् ने जो विचार किया है वह किया जाये । राजा ने महाजनों के द्वारा कहे हुए वचन को बड़े कष्ट से स्वीकृत किया । इस बात को अच्छी तरह जानकर नागरिक लोग अपने-अपने घर गये । इधर यमदण्ड ने राजपुत्र आदि सब समाज को एकत्रित कर कहा - मुझे क्या करना चाहिए? ऐसी व्यवस्था मेरी आ पहुँची है । महाजनों ने कहा - भय नहीं करो । तुम्हारी रक्षा के लिए उद्यत रहते हुए इस नगर में कभी चोरी नहीं हुई है । यह चोरी-तुम्हारे अथवा राजा के भेद से हुई है । तुम दोनों के बीच में जो दुष्ट होगा उसको हम लोग निग्रह करेंगे । यमदण्ड ने कहा - ऐसा होना चाहिए ।

तदनन्तर यमदण्ड धूर्तवृत्ति-कृत्रिम रूप से चोर की खोज करने लगा । वह पहले दिन राजसभा में गया और राजा को नमस्कार कर बैठ गया । राजा ने पूछा-हे यमदण्ड तूने चोर देखा?

यमदण्ड ने कहा - स्वामिन्! मैंने सर्वत्र चोर की खोज की परन्तु कहीं भी दिखा नहीं । राजा ने फिर कहा - इतने काल तक आप कहाँ रहे? यमदण्ड ने कहा - हे देव! एक स्थान पर कोई कथावाचक कथा कह रहा था । मैंने वह कथा सुनी इसलिए बहुत समय लग गया । राजा ने कहा - हे यमदण्ड! तू कथा के द्वारा अपने मरण को क्यों भूल रहा है? आश्चर्यपूर्ण उस कथा को मेरे आगे कहो । उसने कहा - राजन्! सावधान होकर सुनो । मैं वह कथा कहता हूँ । जैसा कि कहा है -

दीहकालं वयं तत्थ पादवे णिरुपद्दवे ।
मूलादो उच्छिया वल्लो जादं मरणदो भयं ॥67॥
हम उपद्रव रहित उस वृक्ष पर बहुत समय रहे परन्तु अब उस वृक्ष की जड़ में एक लता उत्पन्न हुई है । उसके कारण मरण का भय उत्पन्न हो गया है ॥67॥

एकस्मिन् वनमध्ये पङ्कादिदोषरहितं सहस्रपत्रादिसरोंजराजिसहितं मानससर इव महत्सरोवरमस्ति । तत्पाल्युपरि सरलोन्नतवृक्षोऽस्ति । तस्योपरि बहवो हंसास्तिष्ठन्ति ।

एकदा वृद्धहंसेन तत्तरुमूले वल्ल्यङ्क्वरो दृष्ट: । तत: पुत्रपौत्रादिहितार्थं वृद्धेन भणितम्-हे पुत्रपौत्रा एवं वृक्षमूले उद्गच्छन्तं वल्ल्यङ्क्वरं र्चुप्रहा-रैस्त्रोटघत । अन्यथा सर्वेषां मरणं भविष्यति । एतद्वृद्धवच: श्रुत्वा तरुण-हंसैर्हसितम् । अहो वृद्धोऽयं मरणाळिभेति, सर्वकालं जीवितुमिच्छति, अकस्माद् भयमिह । निज पुत्रपौत्राणामीदृग्विधं वचनं श्रुत्वा वृद्धसितच्छदेन मनसि चिन्तितं तेन अहो! एते महामूर्खा: स्वहितोपदेशं न जानन्ति, परन्तु कोपमेव कुर्वन्त । उक्तञ्च-


कथा का सार यह है कि एक वन के मध्य में कीचड़ आदि के दोषों से रहित तथा सहस्र दल आदि कमलों के समूह से मानसरोवर के समान बड़ा भारी सरोवर है । उस सरोवर की पाल के ऊपर देवदार का एक ऊँचा वृक्ष है । उस वृक्ष के ऊपर बहुत हंस रहते हैं । एक समय वृद्ध हंस ने उस वृक्ष की जड़ में लता का अंकुर देखा । तदनन्तर पुत्र पौत्र आदि के हित के लिए वृद्ध ने कहा - हे पुत्र पौत्रो! वृक्ष की जड़ में उगते हुए इस लता के अंकुर को तुम लोग चोंचों के प्रहार से तोड़ डालो, नहीं तो सबका मरण हो जायेगा । वृद्ध के यह वचन सुन जवान हंसों ने हँस दिया । कहने लगे-अहो यह बूढ़ा मरने से डरता है, सदा जीवित रहना चाहता है । इसे यहाँ बिना कारण ही भय दिख रहा है । अपने पुत्र और पौत्रों के ऐसे वचन सुन वृद्ध हंस ने मन में विचार किया-अहो ये महा मूर्ख अपने हित का उपदेश नहीं जानते परन्तु क्रोध ही करते हैं । कहा भी है-

मूर्खैरलब्ध-तत्त्वैश्च सहालापश्चतुष्फल: ।
वाचों व्ययो मनस्तापमपवादश्च ताडनम् ॥68॥
तत्त्व को न समझने वाले मूर्खों के साथ वार्तालाप करने में चार फल हैं- 1. वचन का व्यय, 2. मन का संताप, 3. अपवाद और 4. पिटाई ॥68॥

प्रायो मूर्खस्य कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् ।
विलून-नासिकस्येव विशुद्धादर्श-दर्शनम् ॥69॥
प्राय: कर मूर्ख के लिए समीचीन मार्ग का उपदेश देना उसके क्रोध को उस प्रकार बढ़ाने वाला होता है जिस प्रकार के नकटे के लिए निर्मल दर्पण का दिखाना ॥69॥

पुनरिदं स्वगतं वृद्धहंसेनाभाणि-मूर्खै:-सहोदिते सति फले व्यक्तिर्भविष्यति । इति मनसि निश्चित्य तूष्णीं स्थित: । कालान्तरेण वल्ली वृक्षस्योपरि चटिता । एकदा वल्लीमालम्ब्य पारधी अस्योपरि चटित: । तत्र तेन पाशराशयो मण्डिता: ये हंसा दिने दश दिशो गता अभवन् शयनार्थं वृक्षमायाता: ते सर्वेपि वृक्षाश्रिता रात्रौ पारधीपाशैर्बद्धा: ।

तेषां कोलाहलं श्रुत्वा वृद्धहंसेन भणितम्-हे पुत्रा: ममोपदेशं पूर्वं कृतवन्त । इदानीं बुद्धिरहितानां भवतां मरणमागतम् ।


पश्चात् वृद्ध हंस ने अपने मन में कहा - मूर्खों के साथ बात करने पर जब उसका फल होता है तब उसकी प्रकटता होती है । ऐसा मन में निश्चय कर वह चुप बैठ गया । कुछ समय के बाद वह लता वृक्ष के ऊपर चढ़ गयी । एक समय उस लता को पकड़ कर शिकारी वृक्ष के ऊपर चढ़ गया ।

वहाँ उसने अपने जाल फैला दिये । जो हंस दिन में दशों दिशाओं को गये थे, वे सोने के लिए उस वृक्ष पर आये और सभी पक्षी वृक्ष पर बैठते ही रात्रि के समय शिकारी के जाल में बएध गये । उनका कोलाहल सुनकर वृद्ध हंस ने कहा - हे पुत्रों! मेरा उपदेश तुम लोगों ने पहले नहीं माना । अब तुम मूर्खों का मरण आ गया है ।

अपसरणमेव युक्तं नूनं वै तत्र राजहंसस्य ।
कटु रटति निकटवर्ती वाचाटष्टिट्टिभो यत्र ॥70॥
जहाँ पास में बैठा हुआ बकवादी टिड्डा कटुक शब्द कर रहा है वहाँ निश्चय से राजहंस पक्षी का दूर हट जाना ही उचित है ॥70॥

तथा चोक्तम्-


जैसा कि कहा है -

वरं बुद्धिर्न सा विद्या विद्याया धीर्गरीयसी ।
बुद्धिहीना विनश्यन्ति तथा ते सिंहकारका: ॥71॥
बुद्धि अच्छी है वह विद्या अच्छी नहीं है । विद्या की अपेक्षा बुद्धि श्रेठ होती है । जिस प्रकार सिंह को बनाने वाले वे विद्वान् नष्ट हो गये थे उसी प्रकार बुद्धिहीन मनुष्य नष्ट हो जाते हैं ॥71॥

तरुणहंसेनोत्तम्-कथमेतत् वृद्धहंस आह-श्रृणु ।

अस्ति कसि्ंमश्चित्प्रदेशे पौणड्रवर्धनं नाम नगरम् । तत्र च शिल्पकार: चित्रकार: वणिक्सुत: मन्त्रसिद्धश्चेति चत्वारि मित्राणि स्वशास्त्रपारंगतानि । एकदा चत्वारो देशान्तरं निर्जग्मु: । अथ ते यावशच्छन्ति तावदपराह्नसमये भयंकरमरण्यमेकं प्रापु: । अथ तस्मिन्नरण्यमध्ये शिल्पकारेण तान् वचनमेतदभिहितम्-अहो एवं विधं भयंकरं स्थानं रात्रिसमये वयं प्राप्ता: । तदेकैकेनैकयामो जागरणीय:, अन्यथा चौरश्वापदभयात् किञ्चिद्विघ्नो भविष्यति । अथ ते प्रोचु:-भों मित्र! युक्तमिदमुक्तं भवता, तदवश्यं जागरिष्याम: । एवमुक्त्वा त्रयस्ते सुप्ता: ।

ततोऽनन्तरं स निद्राभञ्जनार्थं काठमेकमानीय कण्ठीरवस्वरूपं महाभासुरं सर्वावयवसंयुक्तं चकार । तदनुचित्रकारान्तिकम् ययौ । ततोऽब्रवीत-भो मित्र! निजयाम-जागरणार्थमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ, एवमुक्त्वा शिल्पकार: सुप्त: । अथ चित्रकार उत्त्थितो यावत् पश्यति तावदग्रे दारुमयं कण्ठीरवरूपं महासौन्दर्यघटितं ददर्श । ततोऽवदत्- अहो अनेनोपायेनानेन निद्राभञ्जनं कृतम्, तदहमपि किंचित्करिष्यामि । एवं भणित्वा हरितपीतलोहितकृष्णप्रभृतीन् वर्णान् दृषदुपरि उद्धृष्य दारुमयं सिंहं विचित्रितवान् ।

ततोऽनन्तरं चित्रकारो मन्त्रसिद्धसकाशमियाय प्रोवाच च । भो मित्र! उत्तिष्ठोत्तिष्ठ शीघ्रम् । एवमुक्त्वा चित्रकार: सुप्तवान् । अथ मन्त्रसिद्धो यावदुत्तिष्ठति तावत् सन्मुखं तत्कण्ठीरवं दारुमयं महारौद्रं सर्वावयवसमेतं जीवन्तमिवालोक्य स विभीत: ।

तत: प्रोवाच-इदानीं किं कर्तव्यम् सर्वेषामत्र मरणमवश्यमागतम् । एवमुक्त्वा मन्दं मन्दं गत्वा मित्रं प्रति प्राह-अहो! उत्तिष्ठोत्तिष्ठ, अस्यामटव्यां मध्ये श्वापदमेकमागतमस्ति । एवं तस्य कोलाहलमाकण्र्य त्रयस्ते उत्थिता: । तत: प्रोचु:-भो मित्र! किमेव व्याकुलयसि ? अथ स जजल्प-अहो । पश्यत पश्यत एतत् श्वापदं मया मन्त्रेण कीलितमस्ति । तत: सन्मुखं नायाति । तदाकर्ण्य ते विहस्य प्रोचु:-भो मित्र दारुमयं श्वापदमेवं किंचिन्न जानासि । तस्मिन् दारुमये पञ्चाननरूपे निजविद्याप्रभाव आवाभ्यां दर्शित: । तच्छ्रु त्वा मन्त्रसिद्ध: समीपे गत्वा यावत्पश्यति तावदतिललज्जे ।

तत: प्राह-अनेन प्रसङ्गेन युवाभ्यां अस्मिन् दारुमये मृगराजो निजविद्याकौशलं दर्शितं, तदधुना मम विद्या कौतूहलं पश्यत । यदि जीवन्तं तमेव न करोमि तदहं मन्त्रसिद्धो भवामि । एवं मन्त्रसिद्धवचनमाकण्र्य बुद्धिमता वणिक्पुत्रेणैवं मनसि चिन्तिम्-अहो यदि कथमपि जीवन्तमिमं करिष्यति तत्सर्वेषां विनाशो भविष्यति तदहं दूरस्थो भूत्वा सर्वमेतत्पश्यामि, यतों मणि मन्त्रौषधीनामचिन्त्यो हि प्रभाव: ।

एवं चिन्तयित्वा यावद् गच्छति तावत्तावूचतु:-भो मित्र! कु त्स्त्वं गच्छसि? ततो वणिगाह अहो! मूत्रोत्सर्गं कृत्वा आगमिष्यामि । एवमुक्त्वा यावद् गच्छति तावत् स वृक्षमेकं सन्मुखमद्राक्षीत कथंभूतं वृक्षम्? तद्यथा-


तरुण हंस ने कहा - यह कैसे? वृद्ध हंस ने कहा - सुनो ।

किसी प्रदेश में पौणड्रवर्धन नाम का नगर था । वहाँ शिल्पकार, चित्रकार, वणिक् पुत्र और मन्त्रसिद्ध ये चार मित्र अपने शास्त्रों के पारगामी थे । एक समय चारों किसी दूसरे देश में चले ।

तदनन्तर वे चलते-चलते अपराह्न काल में एक भयंकर वन को प्राप्त हुए । पश्चात् उस वन के बीच शिल्पकार ने अपने तीनों साथियों से यह वचन कहा । अहो हम लोग रात्रि के समय ऐसे भयंकर स्थान आ पहुँचे हैं । इसलिए एक-एक को एक-एक पहर तक जागना चाहिए, नहीं तो चोर अथवा जंगली जानवर के भय से कुछ विघ्न होगा । तदनन्तर उन्होंने कहा - हे मित्र! आपने यह ठीक कहा है इसलिए अवश्य ही जागेंगे । ऐसा कहकर वे तीनों सो गये ।

तदनन्तर उस शिल्पकार ने नींद भगाने के लिए एक काठ लाकर अत्यन्त देदीप्यमान समस्त अवयवों से युक्त सिंह का आकार बनाया । पश्चात् चित्रकार के पास गया और बोला-हे मित्र! अपने पहर में जागने के लिए उठो उठो । ऐसा कहकर शिल्पकार सो गया । तदनन्तर जब चित्रकार उठा तो उसने आगे लकड़ी से बना हुआ अत्यन्त सौन्दर्य से युक्त सिंह का आकार देखा । पश्चात् वह बोला-अहो इस उपाय से इसने नींद भगाई है इसलिए मैं भी कुछ करँगा । ऐसा कहकर उसने हरे, पीले, लाल और काले आदि रंगों को पत्थर के ऊपर घिसकर लकड़ी के सिंह को चित्राम से युक्त कर दिया ।

इसके पश्चात् चित्रकार मन्त्रसिद्ध के पास गया और बोला । हे मित्र! शीघ्र उठो । ऐसा कहकर चित्रकार सो गया । तदनन्तर ज्योंही मन्त्रसिद्ध उठता है त्योंही सामने उस लकड़ी के सिंह को महा भयंकर और सब अवयवों से सहित जीवित जैसा देखकर डर गया ।

पश्चात् बोला - अब क्या करना चाहिए? यहाँ हम सबका मरण अवश्य आ पहुँचा है । ऐसा कहकर धीरे-धीरे जाकर मित्र से बोला । अहो! उठो उठो इस अटवी के बीच एक जंगली जानवर आ गया है । इस प्रकार उसका कोलाहल सुनकर तीनों साथी उठ गये । पश्चात् बोले-हे मित्र! क्यों इस तरह व्याकुल कर रहे हो? वह बोला-अहो! देखो देखो यह जानवर मेरे द्वारा मन्त्र से कीलित है इसलिए सामने नहीं आता है । यह सुन तीनों साथियों ने हँसकर कहा - हे मित्र! यह लकड़ी का जानवर है ऐसा क्या तुम नहीं जानते । हम दोनों ने उस लकड़ी से निर्मित सिंह के आकार पर अपनी विद्या का प्रभाव दिखलाया है । यह सुनकर मंत्रसिद्ध पास जाकर जब देखता है तब बहुत लज्जित हुआ ।

तदनन्तर बोला-अहो इस प्रसंग से आप दोनों ने इस लकड़ी के सिंह पर अपनी विद्या की कुशलता दिखलाई है । इसलिए अब मेरी विद्या का कौतूहल देखो । यदि इस लकड़ी के सिंह को जीवित न कर दूँ तो मैं मन्त्रसिद्ध न रहूँ । इस प्रकार मन्त्रसिद्ध का वचन सुन बुद्धिमान् वणिक् पुत्र ने मन में विचार किया । अहो! यदि किसी प्रकार इस लकड़ी के सिंह को जीवित कर देगा तो सबका विनाश हो जायेगा । इसलिए मैं दूर खड़ा होकर यह सब देखूँगा क्योंकि मणि, मन्त्र और औषधि का प्रभाव अचिंत्य होता है । ऐसा विचारकर वह वणिक् पुत्र ज्योंही जाने लगा त्योंही शिल्पकार और चित्रकार उससे बोले-हे मित्र! तुम क्यों जा रहे हो? पश्चात् वणिक् पुत्र ने कहा - अहो लघुशंका करके आऊँगा ।

ऐसा कहकर जब वह चला तब उसने सामने एक वृक्ष देखा! कैसा वृक्ष देखा? तथाहि-

छायासुप्तमृग: शकुन्तनिवहैरालीढ-नीलच्छद:
कीटैरावृतकोटर: कपिकुलै: स्कन्धे कृत: प्रश्रय: ।
विश्रब्धं मधुपैर्निपीतकुसुम: श्लाघ्य: स एव द्रुम:
सर्वाङ्गैर्बहुसत्व-सङ्घसुखदो भूभारभूता: परे ॥72॥
जिसकी छाया में मृग सोते हैं, जिसके हरे भरे पत्ते पक्षियों के समूह से व्याप्त रहते हैं, जिसकी कोटर कीड़ों से युक्त है, जिसके स्कन्ध पर वानरों के समूह आश्रय पाते हैं,भ्रमर निशि्ंचत होकर जिसके फूलों का रसपान करते हैं और जो समस्त अंगों से अनेक प्राणियों के समूह को सुख देने वाला है, वही वृक्ष प्रशंसनीय है । शेष वृक्ष पृथ्वी के भार स्वरूप हैं ॥72॥

अन्यच्च-


और भी कहा है -

मार्गं विहाय गिरिकन्दरगह्वरेषु
वृक्षा: फलन्ति यदि नाम फलन्तु किं तै: ।
शाखाग्रजानि कुसुमानि फलानि चापि
गृह्वन्ति यस्य पथिकास्तरुरेष धन्य: ॥73॥
मार्ग को छोड़कर पर्वत की कन्दरा और गुफाओं के समीप यदि वृक्ष फलते हैं तो फलें, उनसे क्या लाभ है? जिस वृक्ष की शाखाओं के अग्रभाग में उत्पन्न होने वाले फूलों और फलों को पथिक ग्रहण करते हैं, वह वृक्ष धन्य है ॥73॥

तथा च-


और भी

मञ्जरिभि: पिकनिकरं रजोभिरलिनं फलैश्च पान्थजनम् ।
मार्गे सहकार सन्ततमुपकुर्वन्नन्द चिरकालम् ॥74॥
जो मंजरियों से कोयलों के समूह का, पराग से भ्रमरों का और फलों से पथिक जनों का निरन्तर उपकार करता है ऐसे ही मार्ग के आम्र वृक्ष! तुम चिरकाल तक समृद्धि युक्त रहो - निरन्तर फलो फूलो ॥74॥

एवंविधमहीरुहमारुह्य तत् सर्वमपश्यत् । ततोऽनन्तरं मन्त्रसिद्धो ध्यानस्थितो भूत्वा मन्त्रस्मरणं कृत्वा तस्मिन् दारुमये पञ्चास्ये जीवकलां निक्षेप । अथ जीवन्नसौ भूत्वा कृतघनघोराट्टहास उच्चलितचपेट: खदिराङ्गारोपमाननेत्र उच्छलितललितपुच्छच्छटाटोपोऽतिभयंकरस्त्रयाणामभिमुखो भूत्वा यथासंख्यं निपतित: । ततोऽहं ब्रवीमि-वरं बुद्धिर्न

सा विद्या-इति । तैरुक्तम् भों भों तात! विनष्टे कार्ये यो बुद्धिं न त्यजति स प्रमादं न प्रयाति । तथाहि-


इस प्रकार के वृक्ष पर चढ़कर वणिक् पुत्र सब कुछ देखने लगा । तदनन्तर मन्त्रसिद्ध ने ध्यान स्थित होकर तथा मन्त्र का स्मरण कर उस लकड़ी के सिंह में जीव कला डाल दी-उसे जीवित कर दिया । पश्चात् जीवित होकर जिसने अत्यन्त भयंकर अट्टहास किया है, जिसका पंजा ऊपर की ओर उठ रहा है, जिसके नेत्र खैर के अंगारे के समान लाल हैं, जिसकी सुन्दर पूँछ की छटा ऊपर की ओर उछल रही है तथा जो अत्यंत भयंकर है, ऐसा वह सिंह तीनों के सन्मुख होकर क्रम-क्रम से तीनों पर टूट पड़ा । इसलिए मैं कहता हूँ कि बुद्धि अच्छी है, विद्या नहीं ।

हंसों ने वृद्ध हंस से कहा - हे तात! कार्य के नष्ट हो जाने पर भी जो बुद्धि को नहीं छोड़ता है वह प्रमाद को प्राप्त नहीं होता ।

उत्सन्नेषु च कार्येषु बुद्धिर्यस्य न हीयते ।
स निस्तरति कार्याणि जलान्ते वानरो यथा ॥75॥
जैसा कि कहा है -

कार्यों के नष्ट हो जाने पर भी जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं होती है वह कार्यों को पूरा करता है जैसे कि जल के समीप रहने वाला वानर ॥75॥

तेनोक्तम्-भो पुत्रा: नष्टे कार्ये क: उपाय: तथा चोक्तम्-


वृद्ध हंस ने कहा - हे पुत्रो कार्य के नष्ट हो जाने पर क्या उपाय है? जैसा कि कहा है -

अज्ञानभावादथवा प्रमादादुपेक्षणाद्वात्ययभाजि कार्ये ।
पुंस: प्रयासो विफल: समस्तो गतोदके क: खलु: सेतुबन्ध: ॥76॥
अज्ञान भाव से, प्रमाद से अथवा उपेक्षा से यदि कार्य नष्ट हो जाता है तो पुरुष का समस्त प्रयास निष्फल हो जाता है क्योंकि पानी के निकल जाने पर पुल का बाँधना क्या? कुछ नहीं ॥76॥

पुनरपि तैरुक्तम्-भो तात! चित्तं स्वस्थं कृत्वा कश्चिज्जीवनोपायो दर्शनीय: । तथा चोक्तम्-


फिर भी हंसों ने कहा - हे तात! चित्त को स्वस्थ कर जीवित रहने का कोई उपाय दिखलाइये । जैसा कि कहा है -

चित्तायत्तं धातुबन्धं शरीरे नष्टे चित्ते धातवो यान्ति नाशम् ।
तस्माच्चित्तं यत्नतो रक्षणीयं स्वस्थे चित्ते बुद्धय: संभवन्ति ॥77॥
शरीर में धातुओं का बन्धन चित्त के अधीन है चित्त के नष्ट हो जाने पर धातुयें नाश को प्राप्त हो जाती हैं । इसलिए चित्त की प्रयत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिए क्योंकि स्वस्थ चित्त में ही बुद्धि का होना संभव है ॥77॥

तत: सितच्छदेन वृद्धेनोक्तम्- भो पुत्रा: । मृतकवत्तिष्ठन्तु, अन्यथा स पारधी: गलगोटनं करिष्यति । तैस्तथा कृतम् । प्रभातसमये स पारधी: समागत:, पक्षिसमूहं मृतकं ज्ञात्वा विश्वस्तेन तेनाधोभागे पातिता: सर्वे सितच्छदा: तदनन्तरं वृद्धहंसेन भणितम्-भो पुत्रा: सर्वे पलायनं कुर्वन्तु । एवं भूत्वा सर्वैरप्युड्डीनं कृतम् । पश्चात् सर्वैरपि भणितमहो! वृद्धवचनोपदेशेन जीविता वयम् । तथा चोक्तम्-


तदनन्तर वृद्ध हंस ने कहा - हे पुत्रो मृतक के समान पड़े रहो नहीं तो वह शिकारी गला घोंट देगा । उन हंसों ने वैसा ही किया । प्रात:काल वह शिकारी आया पक्षियों के समूह को मरा जानकर निश्चिन्त हो उसने सब हंसों को नीचे गिरा दिया । तत्पश्चात् वृद्ध हंस ने कहा - हे पुत्रों सब लोग भाग जाओ यह सुनकर सब हंस उड़ गये । पश्चात् सभी ने कहा कि-अहो वृद्ध के वचनोपदेश से ही हम लोग जीवित बचे हैं । जैसा कि कहा है-

वृद्धवाक्यं सदा कृत्यं प्राहैश्च गुणशालिभि: ।
पश्य हंसान् वने बद्धान् वृद्धवाक्येन मोचितान् ॥78॥
बुद्धिमान् तथा गुणी मनुष्यों को वृद्ध के वचनों को सदा पालन करना चाहिए । देखो वन में बंधे हुए हंस वृद्ध के वचनों से छूट गये ॥78॥

मूलतो विनष्टं कार्यमित्यभिप्रायं सूचितमपि न जानाति राजा, कुतो, दुराग्रहग्रहग्रस्तत्वान् उक्तं च-


कथा के अभिप्राय से यह सूचित होता है कि यद्यपि कार्य मूल से ही नष्ट हो गया तथापि राजा नहीं जानता है क्योंकि वह दुराग्रहरूपी ग्रह से ग्रस्त था । कहा भी है -

दुराग्रह-ग्रह-ग्रस्ते विद्वान्पुंसि करोति किम् ।
कृष्णपाषाणखण्डस्य मार्दवाय न तोयद: ॥79॥
दुराग्रहरूपी ग्रह से ग्रस्त पुरुष के विषय में विद्वान् क्या करे? क्योंकि मेघ काले पाषाणखण्ड को कोमल करने के लिए समर्थ नहीं होता है ॥79॥

इत्याख्यानं कथयित्वा यमदण्डो निजमन्दिरं गत: ।


यह कथा कहकर यमदण्ड अपने घर चला गया ।

॥ इति प्रथम दिन कथा ॥


॥ इस प्रकार प्रथम दिन की कथा पूर्ण हुई ॥