कथा :
तत: प्रभातं प्रकटं जातं दृष्ट्वा मन्त्रिणा राज्ञोऽग्रे कथितम्-हे स्वामिन्! गृहं गम्यते रजनी विभाता ( गता) अत: परमत्र स्थातुं न युज्यते । ततो राजा मन्त्री च स्वगृहं गतौ । चौरोऽपि स्वस्थानंगत: श्रेऽठघपि सपरिकर: प्राभातिकीं क्रियां कृत्वा, आरार्तिकं विधाय निजगृहमागत: । तत: सूर्योदयो जात: । तद्यथा- तदनन्तर प्रभात को प्रकट हुआ देखकर मन्त्री ने राजा के आगे कहा कि-हे स्वामिन्! घर चला जाये, रात्रि व्यतीत हो चुकी । अब इसके आगे यहाँ ठहरना योग्य नहीं है । पश्चात् राजा और मन्त्री अपने घर चले गये । चोर भी अपने स्थान पर चला गया । सेठ भी परिकर के साथ प्रात:काल की क्रिया तथा आरती कर अपने घर आ गया । पश्चात् सूर्योदय हुआ । जैसा कि कहा है- शुकतुण्डच्छवि सवितुश्चण्डरुचे:पुण्डरीकवनबन्धो: ।
तीक्ष्ण किरणों के धारक तथा कमल-वन के बन्धु, सूर्योदय को प्राप्त हुए उस मण्डल की मैं वन्दना करता हूँ जिसकी कान्ति तोते की चोंच के समान लाल है तथा जो पूर्व दिशा के कुण्डल के समान जान पड़ता है ॥522॥मण्डलमुदितं वन्दे कुण्डलमाखण्डलाशाया:॥522॥ तदनन्तरं प्रभातकृत्यानि देवपूजादीनि निर्माप्य कतिपयजनै: सह राजमन्त्रिणौ अर्हद्दासस्य गृहमागतौ । तत: श्रेष्ठिना महानादर: कृत:-सुवर्णस्थालं रत्नभृतं प्राभृतीकृतम् । शिरसि कर कुङ्मलं निधाय विनम्रेण श्रेष्ठिना विज्ञप्तम्-स्वामिन् अद्य मम गृहे कल्पवृक्षाद्या: पदार्था: अवतीर्णा: । शुभ लक्ष्म्या वीक्षितोऽहम् । अद्य पूर्वजा: समायाता:, मम गृहं पवित्रं जातम् । उक्तञ्च- तदनन्तर देवपूजा आदि प्रात:काल सम्बन्धी कार्य कर कुछ लोगों के साथ राजा और मन्त्री, अर्हद्दास सेठ के घर आये । सेठ ने उनका बहुत भारी आदर किया । रत्नों से भरा हुआ सुवर्ण थाल भेंट किया तथा हाथ जोड़ मस्तक से लगाकर नम्रीभूत सेठ ने कहा कि-हे स्वामिन्! आज मेरे घर में कल्पवृक्ष आदि पदार्थ अवतीर्ण हुए हैं । शुभलक्ष्मी के द्वारा मैं देखा गया हूँ, आज मेरे पूर्वज आये हैं और मेरा घर पवित्र हुआ है । कहा है - सुप्रसन्नवदनस्य भूपतेर्यत्र यत्र विलसन्ति दृष्टय: ।
अत्यन्त प्रसन्न मुख से युक्त राजा की दृष्टियाँ जहाँ-जहाँ पड़ती हैं वहाँ-वहाँ पवित्रता, कुलीनता, दक्षता और सुन्दरता पहुँचती है ॥523॥तत्र तत्र शुचिता कुलीनता दक्षता सुभगता च गच्छति॥523॥ प्रसादं विधाय कार्यादिकं प्रकाश्यताम् । राज्ञोक्तम्-भो श्रेष्ठिन! गृहमेधिनाम् अभ्यागते समागते आसनादि प्रतिपत्ति: कर्तुमुचिता । यदुक्तम्- प्रसन्न करके कार्य आदिक प्रकाशित किया जाये । राजा ने कहा सेठजी! अतिथि के आने पर आसनादि का देना गृहस्थों के लिए उचित है । जैसा कि कहा है - एह्यागच्छ समाश्रयासनमिदं प्रीतोऽस्मि ते दर्शनात्-
आइये आइये, आसन पर बैठिये, आपके दर्शन से मुझे प्रसन्नता है, क्या समाचार है ? दुर्बल क्यों हो रहे हो ? और बहुत समय बाद दिख रहे हो । इस प्रकार घर पर आये हुए स्नेही जनों से जो आदरपूर्वक संभाषण करते हैं, उनके घर निश्चल चित्त से अवश्य ही जाना चाहिए ॥324॥का वार्ता परिदुर्बलोऽसि च कथं कस्माच्चिरं दृश्यसे॥ एवं ये गृहमागतं प्रणयिनं संभाषयन्त्यादरात् । तेषां वेश्मसु निश्चलेन मनसा गंतव्यमेव धु्रवम् ॥524॥ दद्यात् सौम्यां दृशं वाचमक्षुण्णां च तथासनम् ।
घर पर आये हुए शत्रु के लिए भी स्नेहपूर्ण दृष्टि, परिपूर्ण वचन, आसन और शक्ति के अनुसार भोजन तथा पान देना चाहिए ॥525॥शक्त्या भोजन-ताम्बूले शत्रावपि गृहागते ॥525॥ तदनन्तरं राज्ञा भणितम्-भो श्रेष्ठिन्! अद्य रात्रौ त्वया तव भार्याभिश्च निरूपिता कथा यया दुष्टया निन्दिता सा दुष्टा पापिठाऽनर्थकारिणी तवाग्रे मृत्युकारिणी भविष्यति । अतएव तां ममाग्रे दर्शय, यथा तस्या निग्रहं करिष्यामि । तथा चोक्तम्- तदनन्तर राजा ने कहा कि-हे सेठजी! आज रात्रि में तुम्हारे तथा तुम्हारी स्त्रियों के द्वारा कही हुई कथाएँ जिस दुष्टा स्त्री के द्वारा निन्दित की गयी हैं, वह दुष्टा पापिनी तथा अनर्थ करने वाली आगे चल कर तुम्हारी मृत्यु का कारण होगी, इसलिए उसे मेरे आगे दिखलाओ जिससे मैं उसे दण्डित करँ । जैसा कि कहा है - दुष्टा स्त्री, मूर्ख मित्र, उत्तर देने वाला सेवक और सर्प सहित घर में निवास करना मृत्यु ही है । इसमें संशय नहीं है ॥526॥ दुष्टा भार्या शठं मित्रं भूत्यश्चोत्तरदायक: ।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशय: ॥526॥ एतद् राजवचनं श्रुत्वा श्रेठी चिन्व्यति-किं राजा रात्रौ स्वयमेवागतोऽभूद् वा केनापि दुर्जनेनास्मद् वृत्तान्त: कथितोऽस्ति । संप्रति किं करोमि? अद्य विषमं समायातम् । यद्यसत्यं निवेद्यते तदा राजदण्ड: । अन्यथा तस्या: कुन्दलताया अनर्थोभावी । इत्यादि विकल्पपरो यावदर्हद्दासोऽस्ति तावत् कुन्दलव्या स्वयमेवागत्य भणितम्-भो राजन् साहं दृष्टा । भवता श्रुतं धर्मफलम् दृष्टो जिनमार्गो व्रतातिशयश्च । एतै: सर्वैर्यदुक्त मे तेषां च यो जिनधर्मव्रतनिश्चयस्तमहं न श्रद्दधामि, नेच्छामि न रोचे । राज्ञोक्तम्-केन कारणेन न श्रद्दधासि? अस्माभि: सर्वैरपि रौप्यखुर चौर: शूलमारीपितो दृष्ट: । तत्कथमसत्यं निरूपयसि व्योक्तं निर्भीकव्या भो राजन्! एतानि सर्वाणि जैनापत्यानि जिनमार्गं विहायान्यमार्गं न जानन्ति । नाहं जैना, जैनपुत्री च । मया कदापि सम्यक्तया जैनधर्मो न श्रुतोऽस्ति तथापि प्रभाते पारणानन्तरमवश्यमेव जिनदीक्षां गृह्वामीति मया प्रतिज्ञातमिति मनो जातम् । एतैर्यद्यपि जिनमार्गव्रतमाहात्म्यं दृष्टं श्रुतमनुभूर्त तथाप्येते मूर्खा उपवासादिना शरीरशोषमुत्पादयन्ति, संसारभोगलम्पटत्वं किमपि न त्यजन्ति । राजा के यह वचन सुन सेठ विचार करने लगा कि क्या राजा रात्रि में स्वयं ही आया था या किसी दुर्जन ने मेरा वृत्तान्त कहा है, अब क्या करँ? आज विषम अवसर आया है, यदि असत्य कहता हूँ तो राजदण्ड है अन्यथा उस कुन्दलता का अनर्थ होने वाला है । जब तक सेठ इन विकल्पों में तत्पर था तब तक कुन्दलता ने स्वयं ही आकर कह दिया कि-हे राजन्! वह दुष्टा स्त्री मैं हूँ । आपने धर्म का फल सुना है तथा जिनमार्ग और व्रत का अतिशय देखा है । इन सब लोगों ने जो कहा था और इन सबका जिनधर्म सम्बन्धी व्रत पर जो निश्चय है उसकी न मैं श्रद्धा करती हूँ, न इच्छा करती हूँ और न रुचि करती हूँ । राजा ने कहा - किस कारण से श्रद्धा नहीं करती हो ? हम सभी ने रौप्यखुर चोर को शूली पर चढ़ाया देखा है उसे तुम असत्य कैसे कहती हो ? उसने निर्भीक होकर कहा कि-हे राजन्! ये सब जैन की सन्तान हैं, जिनमार्ग को छोड़कर अन्य मार्ग को नहीं जानते हैं परन्तु मैं जैन नहीं हूँ और न जैन की पुत्री हूँ । मैंने यद्यपि पहले कभी सम्यक् प्रकार से जैनधर्म को नहीं सुना है तथापि प्रात:काल पारणा के बाद अवश्य ही जिनदीक्षा लूँगी ऐसी मैंने प्रतिज्ञा की है । इन लोगों ने यद्यपि जिनमार्ग के व्रत का माहात्म्य देखा है, सुना है और अनुभव किया है तथापि ये अज्ञानी उपवास आदि के द्वारा शरीर का शोषण करते हैं । संसार और भोगों की लम्पटता को कुछ भी नहीं छोड़ते हैं । जैसा कि कहा है - मूर्खास्तपोभि: कृशयन्ति देहं, बुधा मनो देहविकार-हेतुम् ।
मूर्ख मनुष्य तपों के द्वारा अपने शरीर को कृश करते हैं परन्तु ज्ञानी जीव शरीर के विकार का कारणभूत जो मन है उसे कृश करते हैं अथवा मन और शरीर के विकार के कारण को कृश करते हैं । ठीक ही है क्योंकि कुत्ता फेंके हुए पत्थर के ढेले को क्रोधवश ग्रसता है और सिंह फेंकने वाले को नष्ट करता है ॥527॥श्वा क्षिप्तलोष्टं ग्रसते हि कोपात्, क्षेप्तारमेवात्र च हन्ति सिंह:॥527॥ गुणेषु यत्न: क्रियतां किमाटोपै: प्रयोजनम् ।
गुणों में यत्न करना चाहिए, व्यर्थ के आडम्बरों से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि दूध से रहित गायें घण्टाओं के द्वारा नहीं बिकती हैं ॥528॥विक्रीयन्ते न घण्टाभिर्गाव: क्षीर-विवर्जिता:॥528॥ चला विभूति: क्षणभङ्गि यौवनं, कृतान्तदन्तान्तरवर्ति जीवितम् ।
विभूति चंचल है, यौवन क्षणभंगुर है और जीवन यमराज के दाँतों के बीच विद्यमान है तो भी परलोक की साधना में अवज्ञा-उपेक्षा की जा रही है । अहो, मनुष्यों की यह चेष्टा आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है ॥529॥तथाप्यवज्ञा परलोकसाधने, अहो नृणां विस्मयकारि चेष्टितम् ॥529॥ एकं यावदनेकविघ्नबहुलं कार्यं न निष्पद्यते
अनेक विघ्नों से परिपूर्ण एक कार्य जब तक सिद्ध नहीं हो पाता है तब तक दूसरा बड़ा कार्य उपस्थित हो जाता है और वह जब तक सिद्ध नहीं हो पाता तब तक अन्य बड़ा कार्य सामने खड़ा हो जाता है । इस प्रकार कार्यों को परम्परा से जिसकी धर्म क्रियाएँ लुप्त हो गयी हैं, ऐसा यह व्यापार में मूढ़ हुआ जगत् मृत्यु के हाथ से चोटी पकड़ लेता है अर्थात् बीच में ही मर जाता है ॥530॥गुर्वन्यत्समुपैति तावदपरं भूय: पुरस्तिष्ठति । एवं कार्यपरम्परापरिणतिव्यालुप्तधर्मक्रियं मृत्योर्हस्त कचग्रहं व्रजति हा व्यापारमूढं जगत् ॥530॥ यौवनं जरया ग्रस्तं शरीरं व्याधिपीडितम् ।
यौवन वृद्धावस्था से ग्रस्त है, शरीर रोगों से पीडि़त है तथा मृत्यु प्राणों की इच्छा कर रही है मात्र एक तृष्णा ही उपद्रव रहित है ॥531॥मृत्युराकाङ् क्षति प्राणान् तृष्णैका निरुपद्रवा ॥531॥ अर्थं धिगस्तु बहुवैरकरं नराणां
अनेक लोगों के साथ वैर कराने वाले मानवीय धन को धिक्कार हो, सब ओर से चिन्तनीय राज्य को धिक्कार हो, अपने अंग को धिक्कार हो, पुनरागमन-बार-बार जन्म धारण करने की प्रवृत्ति को धिक्कार हो और अनेक रोगों के निवास स्थल शरीर को धिक्कार हों ॥532॥राज्यं धिगस्तु परित: परिचिन्तनीयम् । स्वाङ्गं धिगस्तु पुनरागमनप्रवृत्तिं, धिग् धिक् शरीरं बहुरोगवासम् ॥532॥ सर्वाशुचिनिधानस्य कृतघ्नस्य विशेषत: ।
जो समस्त अपवित्र पदार्थों का घर है और विशेषरूप से कृतघ्न है ऐसे शरीर के लिए अज्ञानी जन पाप करते हैं, यह बड़े खेद की बात है ॥533॥शरीरस्य कृते मूढा हा हा पापानि कुर्वते ॥533॥ राजन्! यद्येभिव्र्रतं गृह्यते तदा सर्वं सत्यं जायते । अन्यथा वाग्जालकथितमसत्यमेतत् । तद्वचनं श्रुत्वा राजप्रभृतिभि: सा बहुधा स्तुता पूजिता वन्दिता प्रशंसिता च । तत: श्रेष्ठिना भणितम्-राजन् मच्चित्ते पूर्वं प्रव्रज्यामनोरथं आसीत् । एनां विनान्यासां मद्भार्याणां च साम्प्रतमेतस्या: कथनेन दृढतरोजनि । तव प्रसादात् सिद्धिं यास्यति । राज्ञा श्रेठ्यपि प्रसंशित:, ततो महता ग्रहेण राजा सपरिच्छेदों भोजनार्थं स्थापित: । श्रेष्ठिना भोजनसामग्रीं भव्यां कारयित्वा परिजनं राजानं भोजयित्वा, मुनिभ्योऽतिथिसंविभागं कृत्वा ।, जिनपूजादिविधिं समाप्य परिवारादीनां चिन्तां कृत्वा पारणं चक्रेऽर्हद्दासेन । राजा दृष्टस्तस्य पुण्यकृत्यप्रशस्य स्वगृहं गत: । तदनन्तरं राज्ञा मन्त्रिणा चौरेणार्हद्दासेनान्यैर्बहुभिश्च स्वस्वपुत्रं स्वस्वपदे संस्थाप्य श्रीगुणधर-मुनीश्वर-समीपे तपोदीक्षा गृहीता । केचन श्रावका जाता: । केचन भद्रपरिणामिनो जाता: । राज्ञी, मन्त्रिभार्ययाऽहद्र्दासभार्याभिश्चान्याभिर्बह्वीभिरुदयश्रीआर्यिकासमीपे तपोदीक्षा गृहीता: । काश्चन श्राविका जाता: । ततोऽर्हद्दासर्षिर्निरतिचारं निर्णाशितपापप्रचारयतिधर्माचारं समाराध्य विधिवन्मरणमासाद्यापवर्ग-सुख भाजनमभूत् । अन्ये चोग्रोग्रं तप: कृत्वा केचन स्वर्गं गता:, केचन सर्वार्थसिद्धिं गता: । इतीदं कथानकं गौतमस्वामिना राजानं श्रेणिकं प्रति कथितम् । श्रुत्वा सर्वेषां दृढतरं सम्यक्त्वं जातम् । इमां सम्यक्त्वकौमुदीकथां श्रुत्वा भो भव्या: दृढतरं सम्यक्त्वं धार्यताम् । तेन भवभ्रमणविच्छित्ति र्भवति । तथा चोक्तम्- हे राजन्! यदि ये लोग व्रत ग्रहण करते हैं तो इनका यह सब कहना सत्य होता है अन्यथा वचन जाल के द्वारा कहा हुआ यह सब असत्य है । कुन्दलता के वचन सुन राजा आदि ने उसकी अनेक प्रकार से स्तुति, पूजा, प्रशंसा और वन्दना की । तदनन्तर सेठ ने कहा कि-हे राजन्! मेरे चित्त में पहले से ही दीक्षा लेने का भाव था । इस कुन्दलता को छोड़ अन्य स्त्रियों के तथा इस समय हुए इस कुन्दलता के कथन से अत्यन्त दृढ़ हो गया है । आशा है आपके प्रसाद से सिद्धि को प्राप्त होगा । राजा ने सेठ की भी प्रशंसा की । पश्चात् सेठ ने बहुत भारी आग्रह से समस्त साथियों सहित राजा को भोजन के लिए बैठाया । अर्हद्दास सेठ ने भोजन की उत्तम सामग्री बनवा कर परिजन सहित राजा को भोजन करवाया । मुनियों के लिए अतिथिसंविभाग किया-उन्हें आहारदान दिया । जिनपूजा आदि की विधि को समाप्त किया । परिवार के लोगों की चिन्ता की पश्चात् स्वयं पारणा किया । राजा हर्षित होकर तथा उसके पुण्य कार्य की प्रशंसा कर अपने घर गया । तदनन्तर राजा, मन्त्री, चोंर, अर्हद्दास सेठ तथा अन्य बहुत लोगों ने अपने-अपने पुत्र को अपने-अपने पद पर स्थापित कर श्री गुणधर मुनिराज के समीप तप के लिए दीक्षा ले ली । कितने ही श्रावक हुए और कितने ही भद्रपरिणामी हुए । रानी, मन्त्री की स्त्री, अर्हद्दास सेठ की स्त्री तथा अन्य अनेक स्त्रियों ने उदयश्री आर्यिका के समीप तपोदीक्षा ले ली । कई स्त्रियाँ श्राविकाएँ बनीं । तदनन्तर अर्हद्दास मुनि, निरतिचार तथा पाप के प्रचार को नष्ट करने वाले मुनिधर्म की आराधना कर विधिपूर्वक समाधि को प्राप्त हुए और मोक्ष सुख के पात्र हुए । अन्य लोग भी तीव्र तप कर कई स्वर्ग गये और कई सर्वार्थसिद्धि को गये । इस प्रकार यह कथा गौतम स्वामी ने राजा श्रेणिक से कही । सुनकर सब लोगों का सम्यग्दर्शन अत्यन्त दृढ़ हुआ । इस सम्यक्त्वकौमुदी की कथा को सुनकर हे भव्यजीवो! अत्यन्त दृढ़ सम्यक्त्व धारण करो जिससे संसार भ्रमण का छेद हो । जैसा कि कहा है- धर्मेण गमनमूध्र्वं गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण ।
धर्म से ऊपर गमन होता है अर्थात् स्वर्ग प्राप्त होता है, अधर्म से नीचे गमन होता है अर्थात् नरक प्राप्त होता है, ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है और अज्ञान से बन्ध होता है । यह धर्म धन के प्रेमियों को धन देने वाला है, काम के इच्छुक मनुष्य को काम देने वाला है, सौभाग्य के अभिलाषी मनुष्यों को सौभाग्य देने वाला है, पुत्र की चाह रखने वालों को पुत्र देने वाला है और अन्य क्या कहें, राज्य के अभ्यर्थी मनुष्यों को राज्य देने वाला है । अथवा नाना विकल्पों से क्या प्रयोजन है ? यह धर्म मनुष्यों के लिए क्या-क्या नहीं देता है? किन्तु स्वर्ग और मोक्ष तक को देता है ॥534-335॥ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्ध: ॥534॥ धर्मोऽयं धनवल्लभेषु धनद: कामार्थिनां कामद: सौभाग्यार्थिषु तत्प्रद: किमपरं पुत्रार्थिनां पुत्रद: । राज्यार्थिष्वपि राज्यद: किमथवा नानाविकल्पैर्नृणां किं किं यन्न ददाति किन्तु तनुते स्वर्गापवर्गावधिम् ॥535॥ धर्म: कल्पद्रुम: पुंसां धर्मश्चिन्तामणि:पर: ।
धर्म, पुरुषों के लिए कल्पवृक्ष है, धर्म उत्कृष्ट चिन्तामणि है और धर्म, मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु है, इसलिए धर्म करना चाहिए ॥536॥धर्म: कामदुधा धेनुस्तस्माद्धर्मो विधीयताम् ॥536॥ दुर्दम्योच्छ्रितकर्मशैलदलने यो दुर्निवार: पवि:
जो दु:ख से दमन करने योग्य तथा बहुत ऊँचे कर्मरूप पर्वत को विदीर्ण करने में दुर्निवार वज्र है, संसाररूपी दुस्तर समुद्र को पार करने में जो सर्वसाधारण के उपयोग में आने वाला जहाज है और जो समस्त प्राणियों की रक्षा करने के लिए आदरयुक्त पिता के समान है, ऐसा यह सर्वज्ञ कथित धर्म आप सबकी तथा हमारी सदा रक्षा करे ॥537॥पोतो दुस्तरजन्मसिन्धुतरणे य: सर्वसाधारण: । यो नि:शेषशरीरिरक्षणविधौ शश्वत्पितेवादृत: सर्वज्ञेन निवेदित: स भवतो धर्म: सदा पातु न: ॥537॥ सेतु: संसार सिन्धोर्निविड़तरमहाकर्मकान्तारवह्नि-
जो संसाररूपी समुद्र का पुल है, कर्मरूपी सघन वन को भस्म करने के लिए प्रचण्ड अग्नि है, मिथ्याभावों को नष्ट करने वाला है, अन्धकार से परिपूर्ण दुर्गति के द्वार को अच्छी तरह बन्द करने वाला है तथा परिभव को प्राप्त विपत्तिग्रस्त जीवों को अवलम्बन देने वाला है ऐसा धर्मरूपी निश्छल बन्धु जिनके पास है उनके लिए बन्धु आदि इन बहुत से व्यर्थ के आलम्बनों से क्या प्रयोजन है? ॥538॥र्मिथ्याभावप्रमाथी पृथुपिहिततमोदुर्गतिद्वारभाग: । येषां निर्व्याजबन्धुर्भवति परिभवापन्नसत्वावलम्बी धर्मस्तेषां किमेभिर्बहुभिरपि वृथालम्बनैर्वान्धवाद्यै: ॥538॥ कन्द: कल्याणवल्ल्या: सकलसुखफलप्रापणे कल्पवृक्षो
जो कल्याणरूपी लता का कन्द है, समस्त सुखरूपी फल को प्राप्त कराने में कल्पवृक्ष है, दरिद्रतारूपी प्रचण्ड दावानल को बुझाने के लिए मेघ है, रोगों को नष्ट करने के लिए प्रमुख अद्वितीय वैद्य है, मोक्षलक्ष्मी को वश में करने वाला मन्त्र है, पापों को नष्ट करने वाला है और संसाररूपी भयंकर समुद्र को पार करने के लिए जहाज के समान है, ऐसा यह जिनराज कथित धर्म इहलोक में सेवन करने योग्य है ॥539॥दारिद्र्योद्दीप्तदावानलशमनघनो रोगनाशैकवैद्य: । श्रेय:श्रीवश्यमन्त्र: प्रमथितकलुषो भीमसंसारसिन्धो- स्तारे पोतायमानो जिनपतिगदित: सेवनीयोऽत्र धर्म: ॥539॥ व्यसनशतगतानां क्लेशरोगातुराणां
जो सैकड़ों कष्टों को प्राप्त हो रहे हैं, क्लेशदायक रोगों से दु:खी हैं, मृत्यु के भय से पीडि़त हैं, दु:ख और शोक से पीडि़त हैं, व्याकुल हैं और शरण रहित हैं, ऐसे अनेक जीवों के लिए एक धर्म ही निरन्तर शरणभूत है ॥540॥
मरणभयहतानां दु:ख शोकार्दितानाम् । जगति बहुविधानां व्याकुलानां जनानां शरणमशरणानां नित्ममेको हि धर्म:॥540॥ |