+ सम्यक्त्व को प्राप्त कराने वाली विद्युल्लता की कथा -
सम्यक्त्व को प्राप्त कराने वाली विद्युल्लता की कथा

  कथा 

कथा :

सम्यक्त्वप्राप्तविद्युल्लता-कथा

ततो विद्युल्लतां प्रत्यर्हद्दास: श्रेठी भणति-भो भार्ये! स्वसम्यक्त्वग्रहणकारणं कथय । तत: सा कथयति-भरतक्षेत्रे सूर्यकौशाम्बी नगरी, राजा सुदण्डो नाम तत्र राज्यं करोति । तस्य राज्ञी विजया, मन्त्री सुमति: भार्या गुणश्री:, राजश्रेठी सूरदेव: भार्या गुणवती । एकदा तेन सूरदेवेन देशान्तरं गतेन वाणिज्यार्थं मनोज्ञा वडवानीता । सुदण्डाय राज्ञे दत्ता । तेन राज्ञा बहुद्रव्यं दत्वा सूरदेव: पूजित: प्रशंसितश्च । एकदा तेन सूरदेवेनागमोक्तविधिना मासोपवासिगुणसेन-भट्टारकलाभतस्तस्मै आहारदानं दत्तम् । सत्पात्रदानप्रभावात् सूरदेवगृहे देवै: पञ्चाश्चर्यं कृतम् । तस्मिन्नेव नगरेऽपरश्रेठी सागरदत्त:, भार्या श्रीदत्ता । व्यो: पुत्र: समुद्रदत्त: । तेन समुद्रदत्तेन सूरदेवदत्तसत्पात्राहारदानफलातिशयं दृष्ट्वा मनसि चिन्तितम् । अहो! अहमधमोऽधन्यो गतद्रव्य: कथं दानं करोति? अतो देशान्तरे गत्वा सूरदेवस्य रीत्या द्रव्योपार्जनं कृत्वा अहमपि दानं करिष्यामि । यतो दानं विना किमपि न । तथा च-


तदनन्तर अर्हद्दास सेठ विद्युत्लता से कहते हैं कि हे प्रिये! अपने आपके लिए सम्यक्त्व की प्राप्ति का कारण कहो । पश्चात् वह कहती है-

भरतक्षेत्र में एक सूर्य कौशाम्बी नाम की नगरी है । वहाँ सुदण्ड नाम का राजा राज्य करता है । उसकी रानी का नाम विजया है । सुमति सुदण्ड का मन्त्री है । मन्त्री की स्त्री का नाम गुणश्री है । राजसेठ का नाम सूरदेव है और उसकी स्त्री का नाम गुणवती है ।

एक समय सूरदेव दूसरे देश को गया था । वहाँ से वह व्यापार के लिए सुन्दर घोड़ी लाया । उसने वह घोड़ी सुदण्ड राजा के लिए दी । राजा ने बदले में बहुत धन देकर सूरदेव का बहुत सत्कार किया तथा उसकी प्रशंसा की । एक समय शास्त्रोक्त विधि से एक माह का उपवास करने वाले गुणसेन भट्टारक का लाभ सूरदेव को हुआ । जिससे उसने उन्हें आहारदान दिया । सत्पात्रदान के प्रभाव से देवों ने सूरदेव के घर पञ्चाश्चर्य किये । उसी नगर में सागरदत्त नाम का एक दूसरा सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम श्रीदत्ता था । उनके समुद्रदत्त नाम का पुत्र था । उस समुद्रदत्त ने सूरदेव के द्वारा दिये हुए सत्पात्र के आहारदान के फल का अतिशय देखकर मन में विचार किया कि अहो! मैं बहुत ही अधम, भाग्यहीन और निर्धन हूँ अत: कैसे दान करँ । इसलिए देशान्तर में जाकर सूरदेव की भाँति द्रव्योपार्जन कर मैं भी दान करँगा क्योंकि दान के बिना कुछ भी नहीं है । जैसा कि कहा है-

यस्यार्थस्तस्य मित्राणि यस्यार्थस्तस्य बान्धव: ।
यस्यार्थ: स पुमांल्लोके यस्यार्थ: स च जीवति ॥461॥
जगत् में जिसके पास धन है उसी के मित्र हैं । जिसके पास धन है उसी के भाई-बन्धु हैं, जिसके पास धन है वही पुरुष है और जिसके पास धन है वही जीवित है ॥461॥

पुन:-


और भी कहा है-

इह लोके तु धनिनां परोऽपि स्वजनायते ।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां तत्क्षणाद् दुर्जनायते ॥462॥
इहलोक में धनी मनुष्यों के लिए दूसरे लोग भी आत्मीय जनों के समान आचरण करते हैं और दरिद्र मनुष्यों के लिए आत्मीय जन भी उसी क्षण दुर्जन के समान आचरण करने लगते हैं ॥462॥

किञ्च- इहैव लोके दरिद्रिण: सदा सूतकम् । यदुक्तम्-


और भी कहा है - इसी संसार में दरिद्र मनुष्य के लिए सदा सूतक रहता है । जैसा कि कहा है-

भिक्षां मे पथिकाय देहि सुतनो हा हा गिरो निष्फला:
कस्माद् बू्रहि यदत्र सूतकमभूत् काल: कियान् वर्तते ।
मास: शुद्ध्यति नैव शुद्ध्यति कथं प्रोद्भूतमृत्युं विना
को जातो मम वित्तजीवहरणो दारिद्र्यनामा सुत: ॥463॥
कोई पथिक किसी स्त्री से कहता है-हे सुंदरी! मुझ पथिक के लिए शिक्षा देओ, स्त्री कहती है कि हाय-हाय आपकी वाणी निष्फल जा रही है । पथिक ने कहा कि-क्यों ? कारण कहो । स्त्री कहती है कि मेरे सूतक है । पथिक कहता है कि कितना काल हो गया? स्त्री कहती है कि एक माह हो गया । पथिक कहता है तब तो शुद्धि हो गयी । स्त्री कहती है कि जब तक उत्पन्न हुए बालक की मृत्यु नहीं होती तब तक शुद्धि नहीं हो सकती । पथिक कहता है कि कौन बालक उत्पन्न हुआ है ? स्त्री कहती है कि मेरे धनरूपी प्राणों को हरने वाला दारिद्र्य नाम का पुत्र हुआ है ॥463॥

हे दारिद्र्य नमस्तुभ्यं सिद्धोंऽहं त्वत्प्रसादत: ।
अहं सकलं पश्यामि मां कोपि न पश्यति ॥464॥
कोई अपमानित-उपेक्षित मनुष्य कहता है कि हे दारिद्र्य! तुम्हें नमस्कार हो क्योंकि तुम्हारे प्रसाद से मैं सिद्ध हो गया क्योंकि सिद्ध के समान मैं तो सबको देखता हूँ परन्तु मुझे कोई नहीं देखता ॥464॥

वयोवृद्धास्तपोवृद्धा ये च वृद्धा बहुश्रुता: ।
ते सर्वे धनवृद्धस्य द्वारे तिष्ठन्ति किंकरा: ॥465॥
जो अवस्था से वृद्ध हैं, तप से वृद्ध हैं तथा अनेक शास्त्रों को जानने से वृद्ध हैं, वे सब किंकर होकर धनवृद्ध के द्वार पर खड़े रहते हैं ॥465॥

इत्येवं पर्यालोच्य चतुर्भिर्मित्रै: सह मङ्गलदेशं प्रति चलित: । मार्गे गच्छता वयस्यत्रिकेण समुद्रदत्तं प्रति भणितम्-अहो समुद्रदत्त दूरदेशान्तरे किमर्थं गम्यते? तेनोंक्तम्-व्यवसायिनामस्माकं किमपि दूरं नास्ति । तथा चोक्तम्-


ऐसा विचार कर समुद्रदत्त चार मित्रों के साथ मंगलदेश की ओर चला । मार्ग में चलते समय तीन मित्रों ने समुद्रदत्त से कहा कि-अहो समुद्रदत्त! दूरवर्ती अन्य देश में किसलिये चल रहे हैं । उसने कहा कि-हम व्यवसायी मनुष्यों के लिए कुछ भी दूर नहीं है । जैसा कि कहा है -

कोऽतिभार: समर्थानां किं दूरे व्यवसायिनाम् ।
को विदेश: सुविद्यानां क: पर: प्रियवादिनाम् ॥466॥
समर्थ मनुष्यों के लिए अधिक भार क्या है? व्यवसायी-उद्योगी मनुष्यों के लिए दूर क्या है ? उत्तम विद्या से युक्त मनुष्यों के लिए विदेश क्या है ? और प्रिय बोलने वालों के लिए दूसरा कौन है ॥466॥

तथा च-


और भी कहा है -

नात्युच्चं मेरुशिखरं नास्ति नीचं रसातलम् ।
व्यवसाय-सहायस्य नास्ति दूरं महोदधि: ॥467॥
अनेकाश्चार्य-भूयिठां यो न पश्यति मेदिनीम् ।
निजकान्ता-सुखासक्त: स नर: कूप-दर्दुर: ॥468॥
व्यवसायी मनुष्य के लिए मेरु का शिखर अधिक ऊँचा नहीं है, रसातल नीचा नहीं है और महासागर दूर नहीं है ॥467॥

अपनी स्त्री के सुख में आसक्त हुआ जो पुरुष, अनेक आश्चर्यों से भरी हुई पृथ्वी को नहीं देखता है वह कूपमण्डूक है ॥468॥

अन्यच्च-


और भी कहा है -

परदेशभयाद् भीता बह्वालस्या: प्रमादिन: ।
स्वदेशे निधनं यान्ति काका: कापुरुषा मृगा: ॥469॥
जो परदेश के भय से डरते हैं, बहुत आलसी हैं तथा प्रमादी हैं ऐसे कौए, कापुरुष और मृग अपने देश में मृत्यु को प्राप्त होते हैं ॥469॥

तत: क्रमेण पलाशग्रामे गत्वा घोटकप्राचुर्यं दृष्ट्वा समुद्रदत्तेन मित्रै: सह भणितम्-अहो मित्राणि! अस्मिन् देशमध्ये यत्र कुत्रापि गत्वा निजक्रयाणकं विक्रेतव्यम्, ग्रहणयोग्यवस्तु च गृहीत्वा त्रिवर्षानन्तरमत्र स्थाने आगन्तव्यमिति । तत: स्थान सीमां कृत्वान्ये त्रयोऽपि निर्गता: । समुद्रदत्त: पथि श्रान्तस्ततस्तत्रैव कियत् कालं स्थित: । तथा चोक्तम्-


तदनन्तर क्रम से पलाशग्राम में जाकर तथा घोड़ों की प्रचुरता देखकर समुद्रदत्त ने मित्रों के साथ कहा कि-हे मित्रो! इस देश में जहाँ कहीं भी जाकर अपना माल बेचना चाहिए और खरीदने योग्य वस्तु खरीद कर तीन वर्ष के भीतर इसी स्थान पर आ जाना चाहिए । तदनन्तर स्थान की सीमा कर अन्य तीनों मित्र चले गये । समुद्रदत्त मार्ग में थक गया था इसलिए वह कुछ समय तक वहीं ठहर गया । जैसा कि कहा है -

कष्टं खलु मूर्खत्वं कष्टं खलु यौवनेऽपि दारिद्र्यम् ।
कष्टादपि कष्टतरं परगृह-वास: प्रवासश्च ॥470॥
वास्तव में, मूर्ख होना कष्ट है, यौवन में दरिद्र होना कष्ट है तथा दूसरे के घर निवास करना और परदेश में भ्रमण करना सबसे अधिक कष्ट है ॥470॥

तत्र ग्रामे कुटम्ब्यशोको नाम्ना वसति घोटकव्यवसायी । भार्या वीतशोका, पुत्री कमलश्री: । सोऽशोको घोटकरक्षार्थं भृत्यं गवेषयतीति वार्तां श्रुत्वा समुद्रदत्तोऽशोक-पार्श्वे गत्वा भणत्यहं तव घोटकरक्षां करोमि । मम किं प्रयच्छसि? तथा चोक्तम्-


उस ग्राम में घोड़ों का व्यापार करने वाला एक अशोक नाम का गृहस्थ रहता था । उसकी स्त्री का नाम वीतशोका था और पुत्री का नाम कमलश्री था । वह अशोक, घोड़ों की रक्षा के लिए एक नौकर को खोज रहा है । यह समाचार सुनकर समुद्रदत्त, अशोक के पास जाकर कहता है कि मैं तुम्हारे घोड़ों की रक्षा करँगा । मुझे क्या देओगे? जैसा कि कहा है -

तावद् गुणा गुरुत्र्व यावन्नार्थयते पुमान् ।
अर्थी चेत् पुरुषो जात: क्व गुणा: क्व च गौरवम् ॥471॥
गुण और गुरुत्व तभी तक रहते हैं जब तक पुरुष किसी से कुछ चाहता नहीं है । यदि पुरुष कुछ चाहने लगता है तो गुण कहाँ और गौरव कहाँ? दोनों नष्ट हो जाते हैं ॥471॥

अन्यच्च-


और भी कहा है-

देहीति वचनं श्रुत्वा देहस्था: पञ्च देवता: ।
तत्क्षणादेव नश्यन्ति श्री-ह्री-धृति-कीर्ति-बुद्धय: ॥472॥
"देहि"-देओ यह वचन सुनकर शरीर में रहने वाले पाँच देवता-लक्ष्मी, लज्जा, धृति, कीर्ति और बुद्धि तत्काल नष्ट हो जाते हैं-शरीर से बाहर निकल जाते हैं ॥472॥

अशोकेनोक्तम्-दिनं प्रतिवारद्वयं भोजनं, षण्मासेषु एका त्रिवेलिका, कम्बलश्च पादत्राणं च त्रिवर्षानन्तरं घोटकसमूहमध्ये ईप्सितं घोटकद्वयं गृहीतव्यमिति । तेनोक्तम्-तथास्तु । इति इत्थं सविनयं निगद्य घोटकसमूहं रक्षति समुद्रदत्त: । तथा चोक्तम्-


अशोक ने कहा - दिन में दो बार भोजन, छह मास में एक धोती जोड़ा, एक कम्बल और एक जूतों का जोड़ा देवेंगे तथा तीन वर्ष के बाद घोड़ों के समूह में अपने मन चाहे दो घोड़े ले लेना । समुद्रदत्त ने "तथास्तु" कहकर स्वीकृत किया । इस प्रकार विनय सहित कहकर समुद्रदत्त घोड़ों के समूह की रक्षा करने लगा । जैसा कि कहा है -

प्रणमत्युन्नति-हेतोर्जीवित-हेतोर्विर्मुति प्राणान् ।
दु:खीयति सुखहेतो: को मूढ: सेवकादन्य: ॥473॥
सत्यं दूरे विहरति समं साधुभावेन पुंसां
धर्मश्चित्तात्सह करुणया याति देशान्तराणि ।
पापं शापादिव च तनुते नीचवृत्तेन सार्धम्
सेवावृत्ते: परमिह परं पातकं नास्ति किञ्चित् ॥474॥
सेवक, उन्नति के लिए नम्रीभूत होता है, जीवित रहने के लिए प्राण छोड़ता है और सुख के लिए दुखी होता है । वास्तव में सेवक के सिवाय दूसरा मूर्ख कौन है? ॥473॥

सेवावृत्ति करने पर पुरुषों का सत्यधर्म, सज्जनता के साथ दूर चला जाता है । धर्म, चित्त से हटकर दया के साथ देशान्तर को प्रयाण कर जाता है और पाप, शाप से ही मानों नीच आचरण के साथ विस्तार को प्राप्त होता है । इसप्रकार इस संसार में सेवावृत्ति से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है ॥474॥

स समुद्रदत्त: कमलश्रियै प्रतिदिनं मनोज्ञानि फलानि, पुष्पाणि,कन्दानि च वनादानीय समर्पयति । तस्या अग्रे हृद्यां स्वकीयां गीतकलां च दर्शयति स: । सा कमलश्री: कालेन तेन समुद्रदत्तेन स्ववशीकृता । उक्तञ्च-


वह समुद्रदत्त प्रतिदिन कमलश्री के लिए वन से लाकर अच्छे-अच्छे फल, फूल और जमीकन्द देता था तथा उसके आगे अपनी मनोहर संगीत की कला दिखाता था । फल यह हुआ कि समुद्रदत्त ने कुछ समय में कमलश्री को अपने वश में कर लिया । जैसा कि कहा है -

हरिणानपि वेगशालिनो ननु बध्नन्ति वने वनेचरा: ।
निजगेयगुणेन किं गुण: कुरुते कस्य न कार्यसाधनम् ॥475॥
भील, वन में अपने संगति के गुण से वेगशाली हरिणों को भी बाँध लेते हैं । यह ठीक ही है क्योंकि गुण किसकी कार्यसिद्धि नहीं करता? अर्थात् सभी की करता है ॥475॥

पुनश्च-


और भी कहा है-

बाला खेलनकाले हि दत्तैर्दिव्य-फलाशनै: ।
मोदते यौवनस्था तु वस्त्रालंकरणादिभि: ॥476॥
हृष्येन्मध्यवया: प्रौढा, रतिक्रीडा सु कोशलै: ।
वृद्धा तु मधुरालापैर्गौरवेणातिरज्यते ॥477॥
बाला स्त्री, खेलने के समय दिये हुए उत्तम फल और भोजनों से प्रसन्न होती है । जवान स्त्री, वस्त्र और आभूषणादि से हर्षित होती है । मध्यम अवस्था वाली प्रौढ़ स्त्री, रति क्रीड़ा की कुशलता से प्रमुदित होती है और वृद्धा स्त्री, मधुर-भाषण तथा आदर सत्कार से अनुरक्त होती है ॥476-477॥

किं बहुना? तस्या मनस्येवं प्रतिभासतेऽसौ मम भर्ता भवत्विति चिन्व्यन्त्यहर्निशमनुरक्ता जाता । तथा च-


अधिक क्या ? उस कमलश्री के मन में ऐसा लगने लगा कि वह समुद्रदत्त मेरा पति हो । इस प्रकार विचार करती हुई वह उसमें रात-दिन अनुरक्त रहने लगी । जैसा कि कहा है-

नाग्निस्तृप्यति काठानां नापगानां महोदधि: ।
नान्तक: सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना ॥478॥
अग्नि, काठों से तृप्त नहीं होती, महासागर नदियों से तृप्त नहीं होता, यमराज प्राणियों से तृप्त नहीं होता और स्त्री पुरुषों से तृप्त नहीं होती ॥478॥

दिनावध्यनन्तरं समुद्रदत्तेनोक्तम्-हे प्रिये! तव प्रसादेनाहमतीव सुखी जात: । सेवामर्यादा च निकटमाटीकतेस्म । साम्प्रतमहं निजदेशं जिगमिषुरस्मि । अतो मया किमपि भाषितं सूक्तमसूक्तं वा तत्सर्वं सहनीयं त्वया । इति तद्वचनं श्रुत्वा गद्गद्वचना साब्रवीत-हे नाथ! त्वां विना न जीवामि । अतएव नियमेन त्वया सार्धमागच्छामि । तेनोक्तम्-त्वमीश्वरपुत्री सुकुमारी । अहं च पथिको महादरिद्रश्च । मम निर्धनस्य समीपे कुत: सुखम् । यत् सुखं तवात्रास्ति तत् सुखं बहिर्नास्ति । अतएव मया सह तवागमनमनुचितम् । यदुक्तम्-


दिन की अवधि समाप्त होने पर समुद्रदत्त ने एक दिन कमलश्री से कहा कि-हे प्रिये! तुम्हारे प्रसाद से मैं बहुत सुखी हुआ हूँ । अब सेवा की सीमा निकट आ गयी है इसलिए मैं अपने देश को जाना चाहता हूँ । मैंने जो कुछ भला-बुरा कहा हो वह सब तुम्हें सहन करना चाहिए । इस प्रकार समुद्रदत्त के वचन सुन गद्गद् वाणी से कमलश्री ने कहा कि-हे नाथ! मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रहूँगी, इसलिए नियम से तुम्हारे साथ आती हूँ । समुद्रदत्त ने कहा कि-तुम स्वामी की सुकुमारी पुत्री हो और मैं महादरिद्र पथिक हूँ । मुझ निर्धन के पास तुम्हें सुख कैसे हो सकता है ? जो सुख तुम्हें यहाँ है वह सुख बाहर नहीं हो सकता है । अतएव मेरे साथ तुम्हारा आना अनुचित है । जैसा कि कहा है-

वासश्चर्म विभूषणं शवशिरो भस्माङ्गराग: सदा
गौरेक: स च लाङ्गलेष्वकुशल:सम्पत्तिरेतावती ।
ईदृक्षस्य ममावमत्य जलधिं रत्नाकरं जाह्नवी
कष्टं निर्धनकस्य जीवितमहो दारैरपि त्यज्यते ॥479॥
जब गंगानदी शंकरजी की जटाओं को छोड़कर रत्नाकर-समुद्र के पास चली गयी तब शंकरजी इसमें अपनी दरिद्रता को कारण मान कर कहते हैं कि चर्म ही मेरा वस्त्र है, मृतक का शिर मेरा आभूषण है, भस्म मेरा अंगराग है, मेरे पास एक ही बैल है और वह भी हल चलाने में कुशल नहीं है । बस, इतनी ही मेरी सम्पत्ति है । इसलिए मेरे जैसे दरिद्र का अपमान कर गंगा रत्नों की खानस्वरूप जलधि-समुद्र (पक्ष में मूर्ख) के पास चली गयी है । वास्तव में निर्धन मनुष्य का जीवन बड़ा कष्टपूर्ण है, आश्चर्य है कि स्त्रियाँ भी उसे छोड़ देती हैं ॥479॥

निर्धनश्च कष्टे दारैरपि त्यज्यते । व्योक्तम्-हे स्वामिन् किं बहुनोक्तेन क्षणमपि त्वया विना न जीवामि । सर्वथा निवारितापि न तिष्ठामीति । पुनस्तेनोक्तम्-तह्र्यागच्छ, यत्त्वयोपार्जितं तद् भविष्यति । व्या चोक्तम्-


निर्धन मनुष्य कष्ट आने पर स्त्रियों के द्वारा छोड़ दिया जाता है । कमलश्री ने कहा कि-हे स्वामिन्! बहुत कहने से क्या ? मैं तुम्हारे बिना क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकती । सर्वथा मना करने पर भी मैं यहाँ नहीं रहूँगी । पश्चात् समुद्रदत्त ने कहा - तो आओ । तुमने जो उपार्जित किया है वह होगा । जैसा कि कहा है -

भवितव्यं भवत्येव नारिकेलफलाम्बुवत् ।
गन्तव्यं गतमेव स्याद् गजभुक्तकपित्थवत् ॥486॥
नारियल के फल में रहने वाली पानी के समान होने वाली वस्तु होती ही है और जाने वाली वस्तु हाथी के द्वारा उपयुक्त कैंथा के सार के समान चली ही जाती है ॥486॥

एकदा तथा घोटकभेदो दत्त: । अत्र घोटकसमूहमध्ये द्वौ घोटकावतीव दुर्बलौ तिष्ठत: । एको जलगामी द्वितीयो नभोगामी । जलगामी रक्तवर्णो, नभोगामी श्वेतवर्णश्च निरूपित: । तस्या उपदेशेन तौ घोटकौ तथैव ज्ञात्वा समुद्रदत्तो मनस्यतीव सन्तुष्टो भणति-पुण्यैर्विना न हि भवन्ति समीहितार्था: । अस्मिन् प्रस्तावे देशान्तरात् क्रणायकं विक्रीय स्वदेशयोग्यं वस्तु गृहीत्वा च सुहाया: समायाता: । समुद्र-दत्तेन तेभ्यो भोजनादिकं दत्तम् । तथा चोक्तम्-


एक समय उस कमलश्री ने समुद्रदत्त को घोड़ों का भेद दे दिया । कहा कि-इन घोड़ों के समूह के बीच जो दो घोड़े अत्यन्त दुर्बल खड़े हैं, उनमें एक जलगामी है और दूसरा आकाशगामी । जलगामी लाल रंग का है और आकाशगामी सफमद रंग का । उसके कहने से उन घोड़ों को उसी प्रकार जानकर मन में अत्यन्त सन्तुष्ट होता हुआ समुद्रदत्त कहता है कि पुण्य के बिना इच्छित पदार्थ प्राप्त नहीं होते ।

इसी अवसर पर दूसरे देश से अपना माल बेचकर तथा अपने देश के योग्य वस्तुएँ लेकर उसके मित्र आ गये । समुद्रदत्त ने उन सबके लिए भोजनादिक दिया । जैसा कि कहा है -

ददाति प्रतिगृह्वाति गुह्यमाख्याति पृच्छति ।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥481॥
देता है, लेता है, गुप्त बात कहता है, पूछता है, भोजन करता है और भोजन कराता है; यह छह प्रकार का प्रीति का लक्षण है ॥481॥

मित्रों का मिलना मनुष्यों के लिए परम सुखकारी है । जैसा कि कहा है -

मित्रमेलनञ्च नराणां परमसुखकरम् । तथाहि-


मित्र के आने पर कोई कहता है कि-

स प्रहर: पापहर: सा घटिका सुकृतसारशतघटिका ।
सा वेला सुखमेला यत्र त्वं दृश्यसे मित्र ॥482॥
हे मित्र जिसमें आप दिखायी देते हैं वह पहर पापों को हरने वाला है, वह घड़ी सैकड़ों पुण्यों से श्रेठ उत्तम घड़ी है और वह वेला सुख को मिलाने वाली है ॥482॥

एकदा स समुद्रदत्तोऽशोकसमीपे गत्वा भणति-भो प्रभो! वर्षत्रयं जातं । मदीया: सहायाश्च देशान्तरात् समायाता: । अतो मम सेवामूल्यं दीयताम् । यथाहं निजनगरं प्रति व्रजामि । अशोकेनोक्तम् । भो समुद्रदत्त! पश्यताममीषामश्वानां मध्ये यौ तव प्रतिभासेते तावश्वौ गृहाण । ततो घोटकशालायां गत्वा तौ जलनभोगामिनौ घोटकौ गृहीत्वाशोकस्य दर्शितौ । अशोकेन तौ दृष्ट्वा चिन्ताप्रपन्नेन भणितम्-रे समुद्रदत्त त्वं मूर्खाणामग्रेसर:, किमपि न जानासि । एतावतीव दुर्बलौ कुरूपिणौ । अद्य प्रातर्वा मरिष्यत: इतीमावश्वौ किमर्थं गृहीतौ । अन्यदुपचितं बहुमूल्ययुक्तं दृष्टिप्रियं च घोटकद्वयं गृहाण । तेनोक्तम्-ममैताभ्यामेव प्रयोजनं नान्याभ्याम् । समीपस्थैर्भणितम्-अहो, असौ महामूर्खो दुराग्रही च । अस्य हिताहित- कथनं वृथैव जायते । तथा चोक्तम्-


एक समय वह समुद्रदत्त अशोक के पास जाकर कहता है कि-हे स्वामिन्! तीन वर्ष हो गये और हमारे साथी भी दूसरे देश से आ गये हैं इसलिए मेरी सेवा का मूल्य दिया जाये, जिससे मैं अपने नगर की ओर चला जाऊँ ।

अशोक ने कहा कि - हे समुद्रदत्त! देखने वाले इन घोड़ों के बीच जो दो घोड़े तुम्हें रुचे उन्हें ले लों । तदनन्तर घोड़ों की शाला में जाकर उसने जलगामी और आकाशगामी घोड़े लेकर अशोक को दिखाये । उन घोड़ों को देखकर चिन्ता को प्राप्त हुए अशोक ने कहा - अरे समुद्रदत्त! तू मूर्खों में अगुआ है, कुछ भी नहीं जानता है । ये दोनों घोड़े अत्यन्त दुर्बल और कुरूप हैं आज या प्रात: मर जावेंगे । इसलिए उन घोड़ों को क्यों लेते हो ? दूसरे पुष्ट बहुमूल्य तथा सुन्दर दो घोड़े ले लो ।

समुद्रदत्त ने कहा कि-मुझे इन्हीं से प्रयोजन है अन्य से नहीं ।

समीप में खड़े हुए लोगों ने कहा कि-अहो, यह महामूर्ख तथा दुराग्रही है । इसके लिए हित-अहित की बात कहना व्यर्थ है । जैसा कि कहा है -

शक्यो वारयितुं जलेन दहनं छत्रेण सूर्यातपो
व्याधिर्भैषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषम् ।
नागेन्द्रोनिशिताङ्क्वशेन समदौ दण्डेन गोगर्दभौ
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ॥483॥
अग्नि, पानी से रोकी जा सकती है, सूर्य का घाम, छत्ते से दूर किया जा सकता है, रोग, औषधियों के संग्रह से हटाया जा सकता है, विष, नानाप्रकार के मन्त्रों तथा प्रयोगों से ठीक किया जा सकता है, मदोन्मत्त हाथी तीक्ष्ण अंकुश से वश में किया जा सकता है और बैल तथा गधा, दण्ड के द्वारा ठीक किये जा सकते हैं । इस प्रकार सबकी औषध शास्त्र में बतायी गयी है परन्तु मूर्ख की कोई औषधि नहीं है ॥483॥

किञ्च-


और भी कहा है -

मूर्खत्वं हि सखे ममापि रुचितं तस्यापि चाष्टौ गुणा:
निश्चिन्तो बहुभोजनो वठरता रात्रौ दिवा सुप्यते ।
कार्याकार्यविचारणान्धवधिरो मानापमाने सम:
कृत्वा सर्वजनस्य मूर्धनि पदं मूर्ख: सुखं जीवति ॥484॥
किसी मित्र ने किसी को मूर्ख कहा । इसके उत्तर में मित्र, मित्र से कहता है कि हे मित्र! मूर्खता मुझे भी अच्छी लगती है क्योंकि उसमें आठ गुण हैं-मूर्ख मनुष्य निश्चिन्त रहता है, बहुत भोजन करता है, ढीठ होता है, रात-दिन सोता है, कार्य और अकार्य के विचार में अन्धा तथा बहरा रहता है, मान-अपमान में मध्यस्थ रहता है, इस तरह मूर्ख मनुष्य सब मनुष्यों के शिर पर पैर देकर सुख से जीवित रहता है ॥484॥

अशोकेनोक्तम्-असौ मन्दभाग्य: । यो मन्दभाग्यस्तस्य समीचीन-वस्तुलाभो नास्तीत्येवं निरूप्य गृहं गत: । अशोक: सर्व-परिवार-लोकं पृष्टवान्-केनास्य वैदेशिकस्य घोटकभेदो दत्त: ? यत:-


अशोक ने कहा कि-यह मन्दभाग्य है । जो मन्दभाग्य होता है उसे अच्छी वस्तु का लाभ नहीं होता । ऐसा कहकर वह अपने घर चला गया । अशोक ने परिवार के सब लोगों से पूछा कि इस परदेशी को घोड़ों का भेद किसने दिया है? क्योंकि-

यत्रात्मीयो जनो नास्ति भेदस्तत्र न विद्यते ।
कुठारैर्दण्ड-निर्मुक्ैश्छेद्यन्ते तरव: कथम् ॥485॥
जहाँ अपने लोग नहीं होते वहाँ भेद नहीं होता । देखो, दण्ड से युक्त कुल्हाड़ों के द्वारा वृक्ष काटे जाते हैं ॥485॥

समस्त परिवार लोकेन शपथं कृत्वा स्वप्रतीतिर्दत्ता । परं केनचिद् धूर्तेनाशोकस्याग्रे कमलश्री-चेष्टितं निवेदितं सर्वमपि । ततोऽशोकेन तत् श्रुत्वा स्वमनसि चिन्तितमहो, दुष्टेयम् । स्त्रीषु गुह्यं न तिष्ठति । यत:-


परिवार के समस्त लोगों ने शपथ लेकर अपना विश्वास दिया परन्तु किसी धूर्त ने अशोक के आगे कमलश्री की सभी चेष्टा कह दी । तब अशोक ने वह सुन अपने मन में विचार किया कि अहो! यह दुष्टा है । स्त्रियों में गुप्त बात नहीं ठहरती । क्योंकि-

जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि ।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तित: ॥486॥
जल में पड़ा हुआ थोड़ा-सा तेल, दुर्जन को प्राप्त हुआ छोटा-सा गुप्त समाचार, पात्र में दिया हुआ थोड़ा-सा दान और बुद्धिमान् मनुष्य को प्राप्त हुआ अल्प शास्त्र वस्तुस्वभाव के कारण स्वयमेव विस्तार को प्राप्त हो जाता है ॥486॥

अन्यच्च-


दूसरी बात यह है -

विचरन्ति कुशीलेषु लङ्घयन्ति कुलक्रमम् ।
न स्मरन्ति गुरं मित्रं पुत्रं च किल योषित: ॥487॥
सुखदु:खजयपराजयजीवितमरणानि ये विजानन्ति ।
मुह्यन्ति तेऽपि नूनं तत्त्वविदश्चेष्टिते स्त्रीणाम् ॥488॥
अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलोभिता ।
नि:स्नेहं निर्दयत्वं च स्त्रीणां दोषा: स्वभावजा: ॥489॥
स्त्रियाँ कुशील मनुष्यों में घूमती हैं कुल मर्यादा का उल्लंघन करती हैं तथा गुरु, मित्र, पति और पुत्र का स्मरण नहीं करती हैं-इन्हें भूल जाती हैं ॥487॥

जो सुख-दु:ख, जय-पराजय तथा जीवन-मरण आदि को जानते हैं, वे तत्त्वज्ञ मनुष्य भी निश्चय से स्त्रियों की चेष्टा में मोहित हो जाते हैं-वस्तुस्वरूप को भूल जाते हैं ॥488॥

असत्य, दु:साहस, माया, मूर्खता, अत्यधिक लुब्धता, स्नेह रहितता और निर्दयता; ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं ॥489॥

पुनश्च-


और भी कहा है -

स्त्रीं नदीवदिदं सत्यं रसेन गलिता सती ।
उभयभ्रंशमाधत्ते कुलयो: कूलयोरिव ॥490॥
स्त्री नदी के समान है । यह जो कहा जाता है वह सत्य है क्योंकि रस-स्नेह (पक्ष में जल) से शून्य होती हुई वह किनारों के समान दोनों कुलों को नष्ट करती है ॥490॥

पुनरप्यशोकेन चिन्तितम्-यदि तुरङ्गमं न ददाति तर्हि प्रतिज्ञाभङ्ग: । महता प्रतिज्ञाभङ्गो न करणीय: । तथा चोक्तम्-


अशोक ने फिर भी विचार किया कि यदि घोड़ा नहीं देता हूँ तो प्रतिज्ञा भंग होती है और महापुरुष को प्रतिज्ञा भंग नहीं करनी चाहिए । जैसा कि कहा है -

दिग्गजकूर्मचलाचलफणिपतिविधृतापि चलति वसुधेयम् ।
प्रतिपन्नममलमनसां न चलति पुंसां युगान्तेऽपि ॥491॥
दिग्गज, कर्मठ और अत्यन्त स्थिर शेषनाग के द्वारा धारण की हुई भी यह पृथ्वी चल जाती है-कम्पित हो उठती है परन्तु निर्मल चित्त वाले मनुष्यों का स्वीकृत कार्य युगान्तकाल में भी नहीं चलता है-विचलित नहीं होता है ॥491॥

यदि पुत्र्युपरि कोपं करोमि तर्हि सा मर्मज्ञा, अन्यत् किंचिन्निधानादिकं कथयिष्यति । तथा चोक्तम्-


यदि पुत्री के ऊपर क्रोध करता हूँ तो वह सर्व मर्मों को-गुप्त वस्तुओं को जानती है अत: खजाना आदि अन्य कुछ को भी बता देगी । जैसा कि कहा है -

सूपकारं कविं वैद्यं वन्दिनं शस्त्रधारिणम् ।
स्वामिनं धनिनं मूर्खं मर्मज्ञं न प्रकोपयेत् ॥492॥
रसोई बनाने वाले, कवि, वैद्य, चारण, शस्त्रधारक, स्वामी, धनी, मूर्ख और मर्मज्ञ मनुष्य को कुपित नहीं करना चाहिए ॥492॥

इति परिणामसुन्दरं विचार्य समुद्रदत्तमाकार्य सर्वसमक्षं तस्य तौ द्वौ घोटकौ कमलश्रीश्च दत्ता । शुभ-मुहूर्ते विवाह: संजात: । कतिपयदिवसानन्तरमशोकेन समुद्रदत्तस्य यथायोग्यं निरूपितम् मित्रै: सह सभार्य: समुद्रदत्त: स्वदेशं प्रति चलित: तत: पूर्वमशोकेन नाविक: संकेतित:-रे नौवाहक! त्वयास्य समुद्रदत्तस्य समुद्रोत्तरणार्थं घोटकद्वयं याचनीयम् । धीवरेणोक्तम्-अघटितं मया कथं लभ्यते? तथा चोक्तम्-


इस प्रकार सुन्दर फल का विचार कर अशोक ने समुद्रदत्त को बुलाया और सबके सामने उसे वे दो घोड़े तथा कमलश्री पुत्री दे दी । शुभ मुहूर्त में विवाह हो गया । कुछ दिनों के बाद अशोक ने समुद्रदत्त को यथायोग्य बात कही । भार्या सहित समुद्रदत्त, मित्रों के साथ अपने देश की ओर चल पड़ा । इसके पूर्व ही अशोक ने नाविक से संकेत कर दिया था कि हे नाविक! तुम्हें इस समुद्रदत्त से समुद्र की उतराई के लिए दो घोड़े माँगना चाहिए । धीवर नाविक ने कहा कि-असम्भव वस्तु कैसे मिल सकती है ? जैसा कि कहा है -

किवणाण धणं लोए नागाणं मणिं केसराइं सीहाणं ।
कुलबालियाण थणया कुदो घिप्पंति भुवणाणि ॥493॥
कंजूस मनुष्य का धन, साँपों की मणि, सिंहों की गर्दन के बाल और कुलीन स्त्रियों के स्तनों को संसार के प्राणी कैसे छू सकते हैं? अर्थात् नहीं छू सकते हैं ॥493॥

अशोकेनोक्तम्-किं बहुनोक्तेन? अवश्यं याचय । तेनोक्तम्-एवमस्तु । ततोऽशोको जामात्रा सह कियतीं भूमिमागत्य निजपुत्र्या: शिक्षां दत्वानुज्ञाप्य च धीवरेण कथितं व्याघुटघ स्वगृहमागत: । समुद्रदत्त: सहायादिभि: सह समुद्रतीरे गत: । स कथंभूत: समुद्र:? लोलत्कल्कोलमाल:, फेनचन्द्राभोऽयं, कल्पान्तकेलिकलितजलधर-नक्रचक्रप्रवाल ईदृक् समुद्र: । कैवर्तकेन जलतारणमूल्येन घोटकद्वयं याचितम् । तत: कुपितेन समुद्रदत्तेनोक्तम्-निष्कासितं युक्तं विहाय स्फुटितवराटकमात्रमपि न दास्ये, घोटकयो: का वार्ता ? तेनोक्तम्-एवं चेन्नाहं समुद्रपारं प्रापयिष्यामि भवन्तम् । तद्वचनं श्रुत्वा कर्णान्तविश्रान्तनयनया कमलश्रिया भणितमेकान्ते-हे कान्त! किमर्थं चिन्ता क्रियते । जलगामिनं तुरङ्गमारुह्याकाशगामिनं हस्ते धृत्वा समुद्रमुत्तीर्य निज-गृहं गम्यते आवाभ्याम् । समुद्रदत्तस्तथैव कृत्वा निजगृहं गत: । सहाया अपि क्रमेण याता: । सर्वेषां स्वकीयानां हर्षो जात: । कमलश्रिया समं सुखेन वैषयिकसुखमनुभवन् समुद्रदत्तो गमयति कालम् ।

एकदा गगनगामी तुरङ्ग: समुद्रदत्तेन सुदण्डाय राज्ञे दत्त: । सन्तुष्टेन तेन राज्ञार्धं राज्यं निजपुत्र्यनङ्गसेना च विवाहयितुं दत्ता । तत: समुद्रदत्त: सुखीभूत्वा परत्र सुखसाधनं यद् दानपूजादिकं तत् सर्वमपि करोति । एकदा तेन सुदण्डेन राज्ञासावश्व: परममित्रसूरदेवश्रेष्ठिहस्ते प्रयत्नार्थं दत्त: । उत्तमानां मैत्री आधिपत्येऽपि न गच्छति । तदुक्तम्-


अशोक ने कहा कि - बहुत कहने से क्या लाभ है ? तुम अवश्य ही घोड़े माँगो ।

उसने कहा - ऐसा हो ।

तदनन्तर जामाता के साथ कुछ दूर आकर, अपनी पुत्री को शिक्षा देकर तथा धीवर को कही हुई बात को बार-बार जता कर अशोक लौटकर अपने घर आ गया । समुद्रदत्त मित्रों आदि के साथ समुद्रतट पर आया । वह समुद्र कैसा था ? जिसमें तरंगों का समूह चंचल था, जो फमन के द्वारा चन्द्रमा के समान था तथा प्रलयकाल की क्रीड़ा से युक्त मेघ, मगरमच्छों के समूह और मूंगाओं से युक्त था, ऐसा था वह समुद्र । नाविक ने जल उतराई के मूल्य द्वारा दो घोड़े माँगे । तब कुपित होकर समुद्रदत्त ने कहा कि - योग्य उतराई को छोड़कर मैं फूटी कौड़ी भी नहीं दूँगा, घोड़ों की बात ही क्या है? नाविक ने कहा कि - यदि ऐसा है तो मैं आपको समुद्र के उस पार नहीं पहुँचाऊँगा । उसके वचन सुन कानों तक लम्बे नेत्रों वाली कमलश्री ने एकान्त में कहा कि - हे नाथ! चिन्ता क्यों की जा रही है ? जलगामी घोड़े पर सवार होकर और आकाशगामी घोड़े को हाथ से पकड़ कर समुद्र को पार कर हम दोनों अपने घर चलेंगे । समुद्रदत्त वैसा ही कर अपने घर चला गया । उसके साथी भी क्रम से घर पहुँच गये । सभी आत्मीयजनों को हर्ष हुआ । कमलश्री के साथ विषय सम्बन्धी सुख का अनुभव करता हुआ समुद्रदत्त सुख से समय व्यतीत करने लगा ।

एक समय समुद्रदत्त ने आकाशगामी घोड़ा सुदण्ड राजा के लिए दे दिया । उससे सन्तुष्ट हुए राजा ने उसके लिए आधा राज्य और अनंगसेना नाम की अपनी पुत्री विवाहने के लिए दे दी ।

तदनन्तर समुद्रदत्त सुखी होकर परलोक में सुख का साधन जो दान, पूजा आदि है उन सबको करने लगा । एक दिन सुदण्ड राजा ने वह घोड़ा रक्षा करने के लिए परममित्र सूरदेव सेठ के हाथ में दे दिया । ठीक ही है क्योंकि उत्तम मनुष्यों की मित्रता आधिपत्य-स्वामित्व प्राप्त होने पर भी नहीं जाती है । जैसा कि कहा है -

जिस प्रकार दिन के पूर्वार्ध की छाया प्रारम्भ में बड़ी होती है पश्चात् क्रम से घटती जाती है और अपराह्न की छाया प्रारम्भ में छोटी होती है पीछे बढ़ती जाती है । उसी प्रकार दुर्जन और सज्जन की मित्रता होती है अर्थात् दुर्जन की मित्रता प्रारम्भ में बड़ी होती है पीछे घटती जाती है और सज्जन की मित्रता प्रारम्भ में छोटी होती है पीछे बढ़ती जाती है ॥494॥

प्रारम्भे गुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्ध-परार्ध भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥494॥
चिन्तागूढगदार्तानां मित्रं स्यात्परमौषधम् ।
यतो युक्तमयुक्तं वा सर्वं तत्र निवेद्यते॥495॥
चिन्तारूपी गुप्त रोग से पीडि़त मनुष्यों के लिए मित्र उत्कृष्ट औषध है क्योंकि उसके लिए युक्त और अयुक्त सभी कुछ कह दिया जाता है ॥495॥

पापं निवारयति योजयते हिताय,
गुह्यं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति ।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्त: ॥496॥
पाप को दूर करता है, हित के लिए प्रेरित करता है, गुप्त बात को छिपाता है गुणों को प्रकट करता है, आपत्ति में पड़े हुए साथी को नहीं छोड़ता है और समय पर सहायता देता है । सत्पुरुष, समीचीन मित्र के ये लक्षण कहते हैं ॥496॥

स श्रेठी महता प्रयत्नेन तमश्वं प्रतिपालयति । एकदा तेन सूरदेवेन स्वमनसि चिन्तितम्-अहो! असावश्वोनभोगामी । अस्योपयोगस्तीर्थयात्राकरणेन किमर्थं न गृह्यते । तदुक्तम्-


वह सेठ बड़े प्रयत्न से उस घोड़े की रक्षा करता था । एक दिन उस सूरदेव सेठ ने अपने मन में विचार किया कि अहो, यह घोड़ा आकाशगामी है । इसका उपयोग तीर्थयात्रा करके क्यों न किया जाये? क्योंकि कहा है -

यावत् स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावज्जरा दूरतो,
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुष: ।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महा-
नादीप्ते भवने प्रकूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश: ॥497॥
जब तक यह शरीर रोगों से रहित होकर स्वस्थ है, जब तक वृद्धावस्था दूर है, जब तक पञ्चेन्द्रियों की शक्ति नष्ट नहीं हुई है और जब तक आयु का क्षय नहीं हुआ है तभी तक विद्वान् को आत्मकल्याण के विषय में बहुत भारी प्रयत्न कर लेना चाहिए क्योंकि भवन के जलने पर कुआं खुदवाने का उद्यम कैसा ? अर्थात् व्यर्थ है ॥497॥

ततो लालयित्वा वारत्रयं करेण ताडयित्वाश्वमारुह्याष्टम्यां, चतुर्दश्यां च पर्वसु विजयार्धपर्वतस्थित-जिनालयान् पश्यति । कैलासादिशाश्वतचैत्येष्वपि जिनेन्द्रवन्दनां विदधाति । एवं महता सुखेन तस्य कालो गच्छति । यत:-


तदनन्तर पुचकार कर और तीन बार हाथ से ताडि़त कर वह घोड़े पर सवार हो जाता है । इस प्रकार वह अष्टमी और चतुर्दशीरूप पर्व के दिनों में विजयार्ध पर्वत पर स्थित जिन मन्दिरों के दर्शन करने लगा तथा कैलासादि पर्वतों के शाश्वत मन्दिरों में भी जिनेन्द्र भगवान् की वन्दना करता था ।

इस प्रकार बड़े सुख से उसका समय व्यतीत होता था । क्योंकि -

धर्मशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
इतरेषां मनुष्याणां निद्रया कलहेन च ॥498॥
बुद्धिमान् मनुष्यों का काल धर्मशास्त्र के विनोद से व्यतीत होता है और अन्य मनुष्यों का काल निद्रा तथा कलह के द्वारा बीतता है ॥498॥

स श्रेठी सूरदेवश्च महातत्त्वज्ञ: सुदृढसम्यक्त्व आसीत् ।


वह सूरदेव महान् तत्त्वज्ञानी तथा दृढ़ सम्यक्त्व से युक्त था । जैसा कि कहा है -

अयं स्वात्मस्वरूपज्ञस्तत्त्ववेदी विदां वर: ।
सर्वं हेयमुपादेयं वेत्ति जैनो यतिर्यथा ॥499॥
न केनाप्यन्यथा कर्तुं शक्यते दृढबुद्धिमान् ।
रागवाक्यमहावातैरचलोऽचलवद् ध्रुवम् ॥500॥
यह निज स्वरूप का ज्ञाता था, तत्त्वज्ञ था, ज्ञानियों में श्रेठ था, जैन साधु के समान समस्त हेय-उपादेय को जानता था, यह दृढ़ बुद्धिमान् किसी के द्वारा भी अन्यथा नहीं किया जा सकता था तथा रागपूर्ण वचनरूपी प्रचण्ड वायु के द्वारा भी पर्वत के समान निश्चित हो निश्चल रहता था ॥499-500॥

एकदा पल्लीपतेर्जितशत्रोरग्रे निर्जनं कृत्वा केनाप्युक्तम्-हे देव! कौशाम्ब्यां सूरदेवश्रेष्ठिसमीपे नभोगामी तुरङ्गमोऽस्ति । स श्रेठी तमारुह्य प्रतिदिनं पल्ल्या उपरि जिनदेवपूजार्थं याति गगनमार्गेण । यदुक्तम्-


एक दिन पल्ली नगर के राजा जितशत्रु के आगे एकान्त कर किसी ने कहा कि-हे राजन्! कौशाम्बी में सूरदेव सेठ के पास आकाशगामी घोड़ा है । वह सेठ प्रतिदिन उस पर सवार होकर पल्ली नगर के ऊपर आकाश मार्ग से जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए जाता है । जैसा कि कहा है -

अपि स्वल्पतरं कार्यं यदभवेत्पृथिवीपते: ।
तन्न वाच्यं सभामध्ये प्रोवाचेद् बृहस्पति: ॥501॥
चारणैर्वन्दिभिर्नीचैर्नापितैर्मालिकैस्तथा ।
न मंत्रं मतिमान् कुर्यात् सार्धं भिक्षुभिरेव च ॥502॥
राजा का अत्यन्त छोटा कार्य हो तो भी उसे सभा के बीच नहीं कहना चाहिए, यह नीतिशास्त्र के कर्ता बृहस्पति ने कहा है ॥501॥

चारण, बन्दी, नीच, नाई, माली और भिक्षुओं के साथ बुद्धिमान् मनुष्य कोई मन्त्रणा नहीं करे ॥502॥

इति तद्वच: श्रुत्वा पल्लीपतिस्तूष्णीं स्थित: । अन्यदा गगनमार्गे गच्छन्तमश्वं दृष्टवा पल्लीपतिनोक्तम् स्वमनसि-दुर्बलोऽप्यसौ प्रधानगुणकृद् भाति । यदुक्तम्-


इस प्रकार उसके वचन सुन पल्ली नगर का राजा जितशत्रु चुप रह गया । किसी समय आकाश मार्ग में जाते हुए उस घोड़े को देखकर पल्ली नगर के राजा ने अपने मन में कहा कि-यह दुर्बल होकर भी उत्तम गुणों को करने वाला है । जैसा कि कहा है -

मणि: शाणोल्लीढ: समरविजयी हेति-निहतो
मदक्षीणो नाग: शरदि सरित: श्यानपुलिना: ।
कलाशेषश्चन्द्र: सुरतमृदिता बाल-वनिता
तनिम्ना शोभन्ते गलितविभवाश्चार्थिषु नरा: ॥503॥
शाण पर कसा हुआ मणि, युद्ध में विजय प्राप्त करने या घायल सैनिक, मद के कारण दुर्बलता को प्राप्त हुआ हाथी, शरद ऋतु में जिनके किनारे सूख गये हैं ऐसी नदियाँ, कला मात्र से शेष रहने वाला चन्द्रमा, संभोग द्वारा मर्दित बाला स्त्री और याचकों को धन देकर निर्धनता को प्राप्त हुए मनुष्य, ये सब कृशपने से शोभित होते हैं ॥503॥

तदनन्तरं सुभटानामाग्रे निरूपितं जितशत्रुणा यो वीर एनमश्वमानीय मम समर्पयति तस्यार्ध राज्यं स्वपुत्रीं च दास्यामि । यदुक्तम्-


तदनन्तर राजा जितशत्रु ने सैनिकों के आगे कहा कि-जो वीर इस घोड़े को लाकर मुझे सौंपेगा उसे आधा राज्य और अपनी पुत्री दूँगा । जैसा कि कहा है-

अतिमलिने कर्तव्ये भवति खलानामतीव निपुणा धी: ।
तिमिरे हि कौशिकानां रूपं प्रतिपद्यते दृष्टि: ॥504॥
अत्यन्त मलिन कार्य के करने में दुर्जनों की बुद्धि अत्यन्त निपुण होती है क्योंकि उल्लुओं की दृष्टि अन्धकार में रूप को ग्रहण करती है ॥504॥

सर्वसुभटेष्वधोमुखेषु सत्सु कुन्तलनाम्ना सुभटेनोक्तम्-स्वामिन्नहमेनमानयामीति प्रतिज्ञां कृत्वा स देशान्तरे चलित: । तत्र तेन सर्व उपाया विलोकिता: परं श्रेष्ठिगृहे-प्रवेशक एकोऽप्युपायो न स्फुरितस्तस्य हृदि ततोऽति विखिन्नो जात: । कियता कालेन जिनधर्मोपायं लब्ध्वा महता प्रपञ्चेन कस्मिंश्चिद् ग्रामे स्थितस्य सागरचन्द्र-मुनिनाथस्य पार्श्वे कपटव्या देववन्दनादिकशास्त्रं पठित्वा विशिष्टश्राद्धो जात: । कुन्तलो ब्रह्मचारी, सचित्तपरिहारी, प्रासुकाहारी, नियतकालावश्यकारी, भूमिसंस्तारी, चेत्यादिविशेषणयुक्त: षठाष्टमादितप: करोति । तप: प्रभावाल्लोकपूज्यो जात: । यदुक्तम्-


जब सब सुभट नीचा मुख कर चुप रह गये तब कुन्तल नाम के सुभट ने कहा कि - हे स्वामिन्! मैं लाता हूँ । ऐसी प्रतिज्ञा कर वह अन्य देश में चला गया । वहाँ उसने सब उपाय देखे परन्तु सेठ के घर में प्रवेश कराने वाला एक भी उपाय उसके हृदय में प्रकट नहीं हुआ इसलिए वह अत्यन्त खिन्न हुआ । कुछ समय में उसने जिनधर्मरूपी उपाय को प्राप्त किया अर्थात् बड़े भारी प्रपञ्च से वह जैनी बन गया । उसने किसी गाँव में स्थित सागरचन्द्र मुनिराज के पास कपट से देववन्दना आदि के शास्त्र पढ़ लिए और एक विशिष्ट श्रावक बन गया । प्रसिद्ध हो गया । कुन्तल ब्रह्मचारी, सचित्त वस्तुओं का त्यागी है, प्रासुक आहार ग्रहण करता है, नियतकाल पर सामायिक आदि आवश्यकों को करता है और भूमि पर सोता है । इत्यादि विशेषणों से युक्त हुआ वह वेला-तेला आदि तप करता है । तप के प्रभाव से वह लोकपूज्य हो गया । जैसा कि कहा है -

तपसा प्राप्यते राज्यं तपसा स्वर्गसम्पद: ।
तपसा शिव-सौख्र्य त्रैलोक्यैश्वर्यकृत्तप: ॥505॥
तप से राज्य प्राप्त होता है, तप से स्वर्ग की संपदाएँ मिलती हैं, तप से मोक्ष का सुख उपलब्ध हो सकता है और तप तीन लोक के ऐश्वर्य को करने वाला है॥505॥

सुजनसङ्गो हि लोके महागुणकारी वर्तते । तदुक्तम्-


वास्तव में सज्जनों का समागम लोक में महान् गुणकारी है । जैसा कि कहा है-

सुजनस्य हि संसर्गैर्नीचोऽपि गुरुतां व्रजेत् ।
जाह्नवी तीर सम्भूतो जनै रेण्वपि वन्द्यते ॥506॥
सज्जन की संगति से नीच मनुष्य भी गौरव को प्राप्त हो जाता है क्योंकि गंगातट पर उत्पन्न हुई धूलि भी मनुष्यों द्वारा वन्दित होती है-पूजी जाती है ॥506॥

क्रमेण क्राम्यन् कौशम्ब्यामागत: सूरदेव-कारित-सहस्रकूट-चैत्यालय एत्य कपटाच्चक्षूरोगमिषेण पटकं बद्ध्वा स्थित: । लोकानां पृच्छतां कथयति-मम महती चक्षुर्व्यथा वर्तते । अहमुपवासं करिष्ये । यदुक्तम्-


कपटी ब्रह्मचारी कुन्तल, क्रम से चलता हुआ कौशाम्बी नगरी में आ पहुँचा और सूरदेव सेठ के द्वारा बनवाये हुए सहस्रकूट चैत्यालय में ठहर गया । वह कपट से नेत्ररोग का बहाना कर पट्टी बाँधे रहता था । पूछने वाले लोगों से कहा करता था कि मुझे नेत्र की बहुत पीड़ा है इसलिए मैं उपवास करँगा । जैसा कि कहा है -

अक्षिरोगी कुक्षिरोगी शिरोरोगी व्रणी-ज्वरी ।
एतेषां पञ्चरोगाणां लङ्घनं परमौषधम् ॥507॥
नेत्ररोगी, पेट का रोगी, शिर का रोगी, नासूर का रोगी और ज्वर का रोगी-इन पाँच रोगों वाले पुरुषों को लंघन करना उत्कृष्ट औषध है ॥507॥

एकदा सूरदेवेन श्रेष्ठिना पूजार्थमागतेन पृष्टो देवलक: । हे देवलक: अद्य कोऽप्यतिथि: समागतो अस्ति किम्? तेनोक्तम्-हे श्रेष्ठिन्! नयनव्यथाव्याधितो महातपस्वी ब्रह्मचर्यातिथि: समागतोऽस्ति । तद्वच: श्रुत्वा झटिति चैत्यालये गत: इच्छाकारं कृत्वा श्रेठी भणति । भो धार्मिक! मम प्रसादं कुरु । गृहे पारणार्थमागच्छ । तत्र तव नयनौषधलाभो भावी । भेषजं विना नयन रोगोपशमो न भविष्यति । तेन मायाविनोक्तम्-हे श्रेष्ठिन् । ब्रह्मचारिणां गृहिगृहे स्थितिरनुचिता । श्रेठ्याह निवृत्तरागस्य पुंसो गृहमिदं वनमिदमिति भेदो न । यदुक्तम्-


एक दिन पूजा के लिए आये हुए सेठ ने पुजारी से पूछा कि हे पुजारी जी! आज कोई अतिथि आया है क्या? पुजारी ने कहा कि-हे सेठ जी! नेत्र की पीड़ा से पीडि़त महातपस्वी ब्रह्मचारी अतिथि आया है । पुजारी के वचन सुन सेठ शीघ्र ही मन्दिर गया और इच्छाकार कर उससे कहने लगा कि - हे धर्मात्मन्! मुझ पर प्रसन्नता करो, पारणा के लिए घर पर पधारिये, वहाँ आपको नेत्र की औषध भी मिल जायेगी क्योंकि औषध के बिना नेत्र रोग शान्त नहीं होगा ।

उस मायाचारी ने कहा कि - हे सेठ जी! ब्रह्मचारियों को गृहस्थ के घर में रहना अनुचित है । सेठ ने कहा कि-जिसका राग दूर हो गया है उस पुरुष के लिए यह घर और यह वन इसका भेद नहीं है । जैसा कि कहा है -

वनेऽपि दोषा: प्रभवन्ति रागिणां, गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहं तप: ।
अकुत्सिते कर्मणि य: प्रवर्तते, निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥508॥
रागी मनुष्यों को वन में भी दोष उत्पन्न होते हैं और घर में भी पञ्चेन्द्रियों के निग्रह रूप तप किया जाता है । जो उत्तम कार्य में प्रवृत्ति करता है उस राग रहित मनुष्य का घर ही तपोवन है ॥508॥

इत्यादि कथनेन सम्बोध्य महता कष्टेन गृहमानीतो ब्रह्मचारी । केनचिद् धूर्तेन तं मायाविनं दष्ट्वा श्रेष्ठिनोऽग्रे भणितम्-भो श्रेष्ठिन्! नासौ ब्रह्मचारी, किन्तु दम्भकारी महाधूर्तस्तव गृहं मुषित्वा गमिष्याति एतच्छ्रुत्वा श्रेष्ठिनोक्तम्-रे पापिठ! जितेन्द्रियस्य निन्दा सर्वथा न कर्तव्या । जितेन्द्रियो लोकमध्ये दुर्लभ: । निन्दक: पापभाक् स्यात् । वणि्र्ाना दम्भधार्मिकेणाभाणि-भो श्रेष्ठिवर अस्य पुण्यवत् उपरि कोपं मा कुरु । श्रेष्ठिना चिन्तितम्-अहो, सत्पुरुषोऽयमस्य निन्दास्तुतिविधायिनि हर्षद्वेषौ न स्त: श्रेष्ठिसमीपस्थैर्जनैर्भणितम्-अस्य धार्मिकस्याहंकारो नास्त्येव । ततस्तेन मायाविना कथितम्-य: सर्वज्ञो भवति स गर्वं न करोत्यन्यस्य का वार्ता? तदुक्तम्-


इत्यादि कथन के द्वारा समझा कर बड़े कष्ट से ब्रह्मचारी को घर ले आया । किसी धूर्त ने उस मायाचारी को देखकर सेठ के आगे कहा कि-हे सेठजी! यह ब्रह्मचारी नहीं है किन्तु कपटी महाधूर्त हैं आपके घर को लूटकर जायेगा ।

यह सुन सेठ ने कहा कि - अरे पापी! जितेन्द्रिय की निन्दा सर्वथा नहीं करना चाहिए । लोगों के बीच जितेन्द्रिय मनुष्य दुर्लभ होता है । निन्दा करने वाला पाप को प्राप्त होता है । कपटी धर्मात्मा बने हुए उस ब्रह्मचारी ने कहा कि-हे सेठजी! इस पुण्यात्मा के ऊपर क्रोध मत कीजिये । सेठ ने विचार किया कि अहो, यह सत्पुरुष है, निन्दा और स्तुति करने वाले के ऊपर इसे हर्ष विषाद नहीं है ।

सेठ के पास खड़े लोगों ने कहा कि - इस धर्मात्मा को अहंकार है ही नहीं ।

तब उस मायाचारी ने कहा कि - जो सर्वज्ञ होता है वह गर्व नहीं करता फिर अन्य की तो बात ही क्या है? जैसा कि कहा है-

अहङ्कारेण नश्यन्ति सन्तोऽपि गुणिनां गुणा: ।
कथं कुर्यादहङ्कारं गुणार्थी गुणनाशनम् ॥509॥
वृश्चिक: पुच्छमात्रेण मूधि्र्न वहति कण्टकम् ।
भरन् विष-सहस्राणि गर्वं नायाति पन्नग: ॥510॥
जब अहंकार से गुणी मनुष्यों के विद्यमान गुण भी नष्ट हो जाते हैं तब गुणों का अभिलाषी मनुष्य गुणनाशक अहंकार को कैसे कर सकता है? ॥509॥

बिच्छू के एक काँटा है उसे ही वह पूँछ के द्वारा अपने शिर पर धारण करता है परंतु सर्प विष रूप हजारों काँटों को धारण करता हुआ भी गर्व को प्राप्त नहीं होता है ॥510॥

तत: सूरदेवेन श्रेष्ठिना तं वर्णिनं महाभक्त्या स्वगृहं समानीय भोजनं कारयित्वा यत्र घोटकोऽस्ति तत्र विजने स्थापित: । प्रतिदिनमत्यर्थं वैयावृत्यं करोति श्रेठी स्वयमेव । स धार्मिकोऽप्यनुदिनमुपदेशदानेन श्रेष्ठिनं संतोषयत्येव । हे श्रेष्ठिन्! त्वं धन्यो यज्जिनोक्तानि षट् कर्माणि करोषि । मुनयोऽपि तव गृहे भिक्षार्थमागच्छन्ति । यदुक्तम्-


तदनन्तर सूरदेव सेठ ने उस ब्रह्मचारी को बड़ी भक्ति से अपने घर लाकर भोजन कराया और जहाँ एकान्त में वह आकाशगामी घोड़ा रहता था, वहाँ उसे ठहरा दिया । सेठ स्वयं ही प्रतिदिन उस ब्रह्मचारी की अत्यधिक वैयावृत्य-सेवा करता था । वह दम्भी धार्मिक भी प्रतिदिन उपदेश देकर सेठ को सन्तुष्ट करता था । वह कहा करता था कि हे सेठ जी, तुम धन्य हो जो जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए छह कर्मों को करते हो । मुनि भी भिक्षा के लिए तुम्हारे घर आते हैं । श्रावक के छह कर्म ये हैं ।

देवपूजा गुरुपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप: ।
दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने ॥511॥
देवपूजा, गुरुपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान; ये गृहस्थों के प्रतिदिन करने योग्य छह कर्म हैं ॥511॥

एवं सति निद्राविलासिनीवेष्टितमेकदा श्रेष्ठिनं दृष्ट्वा रात्रावश्वमारुह्याकाशमार्गे निर्गतो वर्णी । तेन कुन्तलेनाश्वस्य कशाघातो दत्त: । तं कशाघातमसहमानेनाश्वेन भूमौ पतितो वर्णी दम्भक: । स पतित: सन् चिन्व्यति- अहो, मम दुर्बुद्धिर्जाता । येनाङ्गभङ्गो मरणं च विजने जातम् । सम्प्रति किं करोमि? तत्र स कु न्तल: पीडया तृषा बुभुक्षादिना च मृत: । स वाजिराजोऽप्यष्टापदे गत्वा चैत्यालयस्य त्रिप्रदक्षिणां दत्वा जिनं नत्वा च जिनाग्रे स्थित: । अस्मिन् प्रस्तावे चिन्तागतिमनोगतिचारणश्रमणयुगलं चैत्यनमस्करणार्थं समागतम् । तदैव काले बहुविद्याधराश्च समागता: । देवं वन्दित्वा जिनाग्रे स्थितमश्वं दृष्ट्वा केनचिद् विद्याधरेशेन पृष्टम्-हे मुने! कोऽयमश्व: किमर्थं जिनाग्रे स्थितोऽस्ति । ततो मुनिनावधिना विज्ञाय आमूलचूलं घोटकवृत्तान्त: कथित: । पुनरुक्तं मुनिना- हे खगपते! अश्वनिमित्तं सूरदेव श्रेष्ठिनो महोपसर्गो वर्तते । अतएव लालयित्वा त्रिभिर्वारै: करेण ताड़यित्वा चाश्वमारुह्य श्रेष्ठिसमीपे धर्मरक्षणार्थं झटिति गच्छ । यदुक्तम्-


ऐसा होने पर एक दिन सेठ को निद्रारूपी स्त्री से आलिंगत-सोता हुआ देखकर वह ब्रह्मचारी घोड़े पर सवार हो आकाश मार्ग से चला गया । उस कुन्तल ने घोड़े पर कोड़े का प्रहार किया । कोड़े के प्रहार को न सहन कर घोड़े ने उस कपटी ब्रह्मचारी को नीचे गिरा दिया । नीचे गिरता हुआ कुन्तल विचार करता है कि अहो! मेरी दुर्बुद्धि हो गयी जिससे अंग-भंग और निर्जन स्थान में मरण का अवसर आया । अब क्या करँ ? वह कुन्तल अंग-भंग की पीड़ा, प्यास तथा भूख आदि से मर गया ।

वह घोड़ा भी कैलाश पर्वत पर जाकर मन्दिर की तीन प्रदक्षिणाएँ देकर तथा जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर उनके आगे खड़ा हो गया । उसी समय चिन्तागति और मनोगति नाम के दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज प्रतिमाओं को नमस्कार करने के लिए आये थे । उसी समय बहुत से विद्याधर भी वहाँ आ गये । देववन्दना कर जिनेन्द्रदेव के आगे खड़े हुए घोड़े को देखकर किसी विद्याधर राजा ने पूछा कि हे मुनिराज! यह घोड़ा कौन है ? और किसलिए जिनेन्द्र भगवान् के आगे खड़ा है । तदनन्तर मुनिराज ने अवधिज्ञान से जानकर घोड़े का प्रारंभ से लेकर अन्त तक का सब वृत्तान्त कह दिया । पश्चात् मुनिराज ने यह भी कहा कि-हे विद्याधर नरपते! घोड़े के कारण सूरदेव के ऊपर बड़ा उपसर्ग आ पड़ा है इसलिए पुचकार कर तथा तीन बार हाथ से ताडि़त कर घोड़े पर सवार हो जाओ और धर्म की रक्षा करने के लिए शीघ्र ही सेठ के पास जाओ । जैसा कि कहा है -

भृष्टं कुलं कूपतडागवापी: प्रभृष्टराज्यं शरणागर्त ।
गां ब्राह्मणं जीर्णसुरालयं च य उद्धरेत्पुण्यं चतुर्गुणं स्यात् ॥512॥
भ्रष्टकुल का, जीर्णशीर्ण कुआं, तालाब और बावड़ी का, राज्यभ्रष्ट शरणागत राजा का, गाय का, ब्राह्मण का तथा जीर्ण मन्दिर का जो उद्धार करता है उसे चौगुना पुण्य होता है ॥512॥

एतद्वचनं श्रुत्वा खेचराधिपो घोटकमारुह्याकाशमार्गेण यावत् कोशाम्बीनगर्यामागच्छति तावत्तत्र किं जातम्? निद्राविलासिनीं परित्यज्य श्रेठी यावदुत्तिष्ठति तावद् वाजिनं नापश्यत् । कर्मकरान् प्रति भणति भो कर्मकरा: अश्व: यास्ते? तैरुक्तम्-वयं न जानीम: । पश्चात्सर्वत्र विलोकितोऽपि न दृष्टस्ततश्चिन्ता जाता । श्रेष्ठिना भणितम्-अहो खलानां महाप्रपञ्चं कोऽपि न जानाति । यदुक्तम्-


यह वचन सुन विद्याधर राजा घोड़े पर सवार हो आकाशमार्ग से जब तक कौशाम्बी नगरी में आता है तब तक क्या हुआ? निद्रारूपी स्त्री का परित्याग कर-जागकर जब सेठ उठता है तब उसने घोड़ा नहीं देखा । काम करने वाले सेवकों से उसने कहा कि-हे कर्मचारियों! घोड़ा कहाँ है ?

उन्होंने कहा कि-हम नहीं जानते हैं । पश्चात् सब जगह देखने पर भी जब घोड़ा नहीं दिखा तब चिन्ता हुई । सेठ ने कहा कि-अहो! दुष्टों के प्रपञ्च को कोई नहीं जानता है । जैसा कि कहा है-

न सूरि: सुराणां रिपुर्नासुराणां, पुराणां रिपुर्नापि नापि स्वयंभू: ।
खलानां चरित्रे खला एव विज्ञा भुजङ्ग प्रयातं भुजङ्गा: विदन्ति ॥513॥
दुर्जनों के चरित्र को न देवों का गुरु-बृहस्पति जानता है, न असुरों का शत्रु जानता है, न रुद्र जानता है, न ब्रह्मा जानता है । वास्तव में दुर्जनों की चेष्टा में दुर्जन ही निपुण होते हैं क्योंकि साँप की चाल को साँप ही जानते हैं ॥513॥

और भी कहा है-

एके सत्पुरुषा: परार्थघटका: स्वार्थं परित्यज्य ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृत: स्वार्थाविरोधेन ये ।
तेऽमी मानुषराक्षसा: परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ॥514॥
जो अपना स्वार्थ छोड़कर दूसरे का अर्थ सिद्ध करते हैं, वे सत्पुरुष तो एक ही हैं सबसे महान् हैं । जो अपने प्रयोजन का विरोध कर दूसरों का प्रयोजन सिद्ध करने में उद्यमी रहते हैं, वे सामान्य हैं । जो अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए दूसरों के हित को नष्ट करते हैं । वे मनुष्य राक्षस हैं और जो निरर्थक ही दूसरे के हित को नष्ट करते हैं वे कौन हैं? यह हम नहीं जानते ॥514॥

तत: स्वमनसि चिन्तितम्-अहो, ममाशुभकर्माद्य समायातम् । अश्वनिमित्तमवश्यं राजा शिरश्छेदं करिष्यति । यत् सुखं दु:खं वा, भोक्तव्यं मे भविष्यति । एवं निश्चित्य स्वकुटुम्बमाकार्य भणितम्-मम यद्भाव्यं तद् भवतु तथापि दानपूजादिकं न त्यजनीयं भवद्भि: । तथा चोक्तम्-


तदनन्तर अपने मन में विचार किया कि अहो, आज मेरा अशुभ कर्म आया है । घोड़े के कारण राजा अवश्य ही शिरच्छेद करेगा । जो सुख अथवा दु:ख होगा वह मुझे भोगने के योग्य है । ऐसा विचार कर तथा अपने कुटुम्ब को बुलाकर कहा कि-मेरा जो होनहार है वह हो तथापि आप लोगों को दान पूजा आदि का त्याग नहीं करना चाहिए । जैसा कि कहा है -

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै-
प्र्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्या: ।
विघ्नै: पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना:
प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति ॥515॥
नीच मनुष्य, विघ्नों के भय से कार्य का प्रारम्भ ही नहीं करते हैं, मध्यम मनुष्य कार्य का प्रारम्भ तो करते हैं परन्तु विघ्नों से पीडि़त हो विरत हो जाते हैं, परन्तु उत्तम मनुष्य विघ्नों के द्वारा बार-बार पीडि़त होने पर भी प्रारंभ किये हुए कार्य को नहीं छोड़ते हैं ॥515॥

केनचिदुपहासेन भणितम्-भो श्रेष्ठिन्! तव गुरु: समीचीनमकार्षीत् न श्रेष्ठिनोक्तम्-भो मूर्ख! स मायावी । एकस्यापराधेन किं दर्शनहानिर्जायते? ततो जिनशासनं निर्मलम्, इह परलोके सुखदायि च । स मायावी स्व-पापेन निधनं यास्यति । तथा चोक्तम्-


किसी ने हँसी में सेठ से कहा कि- हे सेठजी! तुम्हारे गुरु ने अच्छा किया न ?

सेठ ने कहा कि - हे मूर्ख! वह मायाचारी था परन्तु एक के अपराध से क्या दर्शन की हानि होती है? क्योंकि जिनशासन निर्मल है और इहलोक तथा परलोक में सुख देने वाला है । वह मायाचारी अपने पाप से मरण को प्राप्त होगा ।

और कहा भी है -

अशक्तस्यापराधेन किं धर्मो मलिनो भवेत् ।
न हि भेके मृते याति समुद्र: पूतिगन्धताम् ॥516॥
असमर्थ मनुष्य के अपराध से क्या धर्म मलिन होता है ? क्योंकि-मेंढ़क के मर जाने से क्या समुद्र दुर्गन्ध को प्राप्त होता है? अर्थात् नहीं ॥516॥

किञ्च-


और भी कहा है -

कर्णेजपानां वचनप्रपञ्चान्महत्तमा: यापि न दूषयन्ति ।
भुजङ्गमानां गरल-प्रसङ्गान्नापेयतां यान्ति महा सरांसि ॥517॥
चुगलखोर मनुष्य के मायापूर्ण वचनों से उत्तम मनुष्य कहीं भी दोष युक्त नहीं होते क्योंकि सर्पों के विष के प्रसंग से बड़े-बड़े तालाब अपेय अवस्था को प्राप्त नहीं होते ॥517॥

अन्यत्र-


और भी कहा है -

काल: सम्प्रति वर्तते कलियुग: सत्या नरा दुर्लभा,
देशाश्च प्रलयं गता: करभरैर्लोभं गता: पार्थिवा: ।
नाना चोरगणा मुषन्ति पृथिवीमार्यो जन: क्षीयते,
साधु: सीदति दुर्जन: प्रभवति प्राय: प्रविष्ट:कलि: ॥518॥
इस समय कलिकाल चल रहा है, क्योंकि सत्य मनुष्य दुर्लभ है, देश टैक्सों के भार से नष्ट हो गये हैं, राजा लोभ को प्राप्त हो चुके हैं, अनेक चोरों के दल पृथ्वी को लूट रहे हैं, आर्य मनुष्य ह्रास को प्राप्त हो रहे हैं, सज्जन दु:खी हो रहे हैं और दुर्जन प्रभाव युक्त हो रहे हैं, ठीक है प्राय: कर कलिकाल प्रविष्ट हो चुका है ॥518॥

तदनन्तरं श्रेठी झटिति चैत्यालयं गत: । देववन्दनां कृत्वा भणति भो परमेश्वर! यदा ममायमुपसर्गो गच्छति तदान्नपानादिप्रवृत्तिर्नान्यथेत्युच्चार्य देवस्याग्रे सल्लेखनां कृत्वा स्थित: । ततो घोटकवृत्तान्तं सर्वमपि श्रुत्वा कुपितेन राज्ञा भणितम्-भो भटा:! सूरदेवस्य शिरश्छेदं विहायान्यत् किमपि न करणीयं तथा सर्वमपि गृहं मोषणीयम् । राज्ञ: समीपस्थैरपि जनैस्तथैव भणितम् । "" यथा राजा तथा प्रजाङ्घ" इति । ततो यमदण्डतलवरमाकार्य राज्ञा भणितम्-मदीय: शत्रुसूरदेवस्योत्तमाङ्गं छेदयित्वा झटिति समानय मम समीपे । यदुक्तम्-


तदनन्तर सेठ शीघ्र ही जिनमन्दिर गया और देववंदना कर कहने लगा कि - हे परमेश्वर! जब मेरा यह उपसर्ग टल जायेगा तब अन्न-पान में प्रवृत्ति होगी अन्यथा नहीं । ऐसा उच्चारण कर वह देव के आगे सल्लेखना का नियम लेकर खड़ा हो गया । तत्पश्चात् घोड़े का सब वृत्तान्त सुनकर क्रोध को प्राप्त हुए राजा ने कहा कि-हे सुभटो! सूरदेव का शिर काटने के सिवाय और कुछ नहीं करना है तथा उसका सब घर लूट लिया जाय । राजा के पास स्थित लोगों ने भी ऐसा ही कहा - सो ठीक है क्योंकि जैसा राजा होता है वैसी प्रजा होती है ।

तदनन्तर यमदण्ड कोतवाल को बुलाकर राजा ने कहा कि - हमारे शत्रु सूरदेव का शिर काट कर शीघ्र मेरे पास लाओ । जैसा कि कहा है -

धर्मारम्भे ऋणच्छेदे कन्यादाने धनागमे ।
शत्रुघाताग्निरोगेषु कालक्षेपं न कारयेत् ॥519॥
धर्म को प्रारम्भ करने में, ऋण चुकाने में, कन्यादान में, धन कमाने में, शत्रु के घात में, अग्नि बुझाने में तथा रोग दूर करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए ॥519॥

ततो राजादेशं प्राप्य सूरदेवसमीपमागत्य यावदुपसर्गं करोति तावच्छासनदेवव्या स्तम्भितो यमदण्ङ: । ततस्तद्व्यतिकरं ज्ञात्वा राजा सेनानी: प्रहित: । सोऽपि तथैव कृतो देवव्या । पश्चाद् भूपाल: ससैन्य: समागत: । परमेकं नरपतिं विना सर्वे स्तम्भिताश्चित्रलिखिता इवासन् । नगरमध्ये सर्वेषामाश्चर्यमभूत् । अत्रान्तरे स विद्याधरो घोटकमारुह्य जिनालयं गत: । चैत्यालयं त्रि:प्रदक्षिणी कृत्य जिनं विधिवत्प्रणम्य श्रेष्ठिनं च, घोटकमग्रे धृत्वा स्थित: । ततो देवव्या पञ्चाश्चर्यं कृतम् राजाग्रे कथितञ्च-यद्येवं धर्मनिधिं श्रेष्ठिनं शरणं गच्छसि तदा तव सैन्यस्य मोक्षो नान्यथा । तद्देवव्योक्तं श्रुत्वा राज्ञा भणितम्-अहो, अर्थोऽनर्थस्य कारणं भवत्येव । अर्थ: कस्यानर्थो न भवति? भरत: समस्तधन लोभरतोऽनुजवधार्थं मनश्चक्रे । एवं निरूप्य झटिति चैत्यालयमध्यमागत्य करकमलं मुकुलीकृत्य च वदति राजा-भो श्रेष्ठिन्! क्षमां कुरु ममोपरि प्रसादं कुरु । अज्ञानव्या यत्किञ्चिन्मया कृतं तत्सर्वं सहनीयं त्वया । तत: श्रेष्ठिना कायोत्सर्ग: पारित: । खेचरानीतस्तुरग: समर्पित:, खेचराधीशोऽपि ससन्मानं विसर्जित: । अत्रान्तरे केनचिदुक्तम्-भो श्रेष्ठिन्! गतोऽसि त्वम्, परं दैवेन रक्षित: । श्रेष्ठिनोक्तम्-तत्तथैव वरं, कालेन क्षयं तु क: को न गत:? तथा च-


तदनन्तर राजा की आज्ञा पाकर तथा सूरदेव के पास आकर ज्योंही यमदण्ड उपसर्ग करता है त्योंही शासन देवता ने उसे कील दिया । पश्चात् यह समाचार जानकर राजा ने सेनापति को भेजा परन्तु शासन देवता के द्वारा वह भी यमदण्ड के समान कील दिया गया । पश्चात् राजा स्वयं आया परन्तु एक राजा को छोड़कर सब कील दिये गये, जिससे चित्र लिखित के समान रह गये । नगर के बीच सबको आश्चर्य हुआ । इसी के बीच वह विद्याधर घोड़े पर बैठकर जिन मन्दिर आ पहुँचा और मन्दिर की तीन प्रदक्षिणाएँ देकर जिनेन्द्र भगवान् को विधिपूर्वक नमस्कार कर और घोड़े को आगे पकड़ कर खड़ा हो गया । पश्चात् देवता ने पञ्चाश्चर्य किये तथा राजा के आगे कहा कि-यदि धर्म के निधानस्वरूप सेठ की शरण में जाओगे तो तुम्हारी सेना का छुटकारा होगा अन्यथा नहीं । देवता का कथन सुनकर राजा ने कहा कि-अहो! अर्थ, अनर्थ का कारण होता ही है । अर्थ किसका अनर्थ नहीं करता है ? समस्त धन के लोभ में रत हुए भरत ने छोटे भाई-बाहुबली का घात करने में मन लगाया । ऐसा कहकर तथा शीघ्र ही जिनमन्दिर के बीच आकर हस्त-कमल जोड़ राजा कहता है-हे सेठ जी! क्षमा करो, अज्ञान से जो कुछ भी मैंने किया है वह तुम्हारे द्वारा क्षमा करने के योग्य है । मेरे ऊपर कृपा करो । तदनन्तर सेठ ने कायोत्सर्ग पूरा किया । विद्याधर के द्वारा लाया हुआ घोड़ा सौंपा गया तथा विद्याधर नरेश को सम्मान के साथ विदा किया । इस प्रसंग में किसी ने कहा - सेठ जी! तुम तो चले ही गये थे परन्तु दैव ने रक्षा कर ली । सेठ ने कहा - वह वैसा ही ठीक था परन्तु काल को पाकर कौन क्षय को प्राप्त नहीं हुआ है? जैसा कि कहा है -

दुर्गं त्रिकूटं परिखा समुद्रो रक्षापरो वा धनदोऽस्य वित्ते ।
संजीवनी यस्य मुखे च विद्या स रावण: कालवशाद् विपन्न:॥520॥
त्रिकूटाचल जिसका दुर्ग था, समुद्र जिसकी परिखा थी, कुबेर जिसका धन रक्षक था और संजीवनी विद्या जिसके मुख में थी, वह रावण भी काल के वश में मृत्यु को प्राप्त हो गया ॥520॥

तदनन्तरं श्रेठी सर्वजनै: पूजित: प्रशंसितश्च । राज्ञोक्तं जिनधर्मं विहायान्यस्मिन् धर्मेऽतिशयो न दृश्यते । तदनन्तरं स्वस्वपुत्रान् स्वस्वपदे संस्थाप्य राज्ञा सुदण्डेन, मन्त्रिणा सुमतिना, राजश्रेष्ठिना सूरदेवेन, वृषभसेने-नान्यैर्बहुभिश्च जिनदत्तभट्टारकसमीपे दीक्षा गृहीता । केचन श्रावका जाता:, केचन भद्रपरिणामिनश्च जाता: राह्या विजयया, मन्त्रिभार्यया गुणश्रिया, सूरदेवभार्यया गुणवत्यान्याभिश्च बह्वीभिश्चानन्तमत्यार्यिका-समीपे दीक्षा गृहीता । काश्चन श्राविका जाता: । विद्युल्लव्या भणितम्-भो स्वामिन्! एतत्सर्वं प्रत्यक्षं दृष्ट्वा धर्मे मतिर्मे निश्चला जाता, मम दृढं सम्यक्त्वं च जातम् । एव श्रुत्वार्हद्दासेन विद्युल्लतां प्रशंस्य भणितम्-हे प्रिये! तव सम्यक्त्वमहं भक्त्या श्रद्दधामि, भक्त्या इच्छामि रोचे च । अन्याभि: प्रियतमाभि: प्रशंसिता विद्युल्लता । कुन्दलतां प्रति श्रेष्ठिना भणितम्-हे कुन्दलते त्वमपि निश्चलचित्ता सती देवपूजादिकं कुरु । तत् कुन्दलव्योक्तम्-एतत्सर्वमसत्यम् । त्वया तव सप्तभार्याभिश्च यद्दर्शनं गृहीतं तदहं न श्रद्दधामि नेच्छामि, न रोचे । तद्वचनं श्रुत्वा राज्ञा मन्त्रिणा चौरेण च स्वमनसि चिन्तितम्-अहो, विद्युल्लव्या यत्प्रत्यक्षेण दृष्टं तत्कथमियं पापिठा कुन्दलता "असत्य" मिति निरूपयति । प्रातरस्या निग्रहं करिष्याम: । चौरेण स्वमनसि पुनश्चिन्तितम्-दुर्जनस्वभावोऽयम् ।

तदुक्तम्-


तदनन्तर सेठ सब मनुष्यों के द्वारा पूजित और प्रशंसित हुआ । राजा ने कहा - जिनधर्म को छोड़कर अन्य धर्म में अतिशय नहीं दिखाई देता । तदनन्तर अपने-अपने पुत्रों को अपने-अपने पदों पर स्थापित कर राजा सुदण्ड, मन्त्री सुमति, राजश्रेठी सूरदेव, वृषभसेन तथा अन्य बहुत लोगों ने जिनदत्त भट्टारक के समीप दीक्षा ले ली । कोई श्रावक हुए और कोई भद्रपरिणामी हुए । रानी विजया, मन्त्री की स्त्री गुणश्री, सूरदेव की स्त्री गुणवती तथा अन्य बहुत-सी स्त्रियों ने अनन्तमति आर्यिका के समीप दीक्षा ले ली । कोई श्राविकाएँ हुई । विद्युल्लता ने कहा कि-हे स्वामिन्! यह सब प्रत्यक्ष देखकर मेरी बुद्धि धर्म में दृढ़ हुई है और मुझे दृढ़ सम्यक्त्व हुआ है । यह सुन अर्हद्दास ने विद्युल्लता की प्रशंसा कर कहा - हे प्रिये! तुम्हारे सम्यक्त्व की मैं भक्तिपूर्वक श्रद्धा करता हूँ, भक्ति से इच्छा करता हूँ और उसकी रुचि करता हूँ । अन्य स्त्रियों ने भी विद्युल्लता की प्रशंसा की । कुन्दलता से सेठ ने कहा कि-हे कुन्दलते! तुम भी निश्चलचित्त होती हुई देवपूजा आदि करो । तदनन्तर कुन्दलता ने कहा कि-यह सब असत्य है । आपने और आपकी सात स्त्रियों ने जिस सम्यग्दर्शन को ग्रहण किया है उसकी मैं न श्रद्धा करती हूँ, न इच्छा करती हूँ और न रुचि करती हूँ । कुन्दलता के वचन सुन राजा, मन्त्री और चोर ने अपने मन में विचार किया कि अहो! विद्युल्लता ने जिसे प्रत्यक्ष देखा है उसे यह पापिनी कुन्दलता असत्य है ऐसा बतलाती है । प्रात:काल इसका निग्रह करेंगे । चोर ने अपने मन में फिर भी विचार किया कि यह दुर्जन का स्वभाव है । जैसा कि कहा है-

जगदपकारोपकृतौ खलसत्पुरुषौ न तृप्तिमायातौ ।
ग्रसते हि तमो भुवनं सविता तु सदा प्रकाशयति॥521॥
जगत् का अपकार और उपकार करने में दुर्जन और सुजन तृप्ति को प्राप्त नहीं होते क्योंकि अन्धकार जगत् को ग्रसता है और सूर्य सदा प्रकाशित करता है ॥521॥

॥इत्याष्टमी कथा॥


॥इस प्रकार आठवीं कथा पूर्ण हुई॥