अभयचन्द्रसूरि :
अवयव अर्थ के ज्ञानपूर्वक समुदाय के अर्थ का ज्ञान होता है । इस न्याय से इस आदि श्लोक का सबसे प्रथम अवयव अर्थ कहते हैं। वृषभदेव को आदि लेकर वर्धमान पर्यंत सभी तीर्थंकरों को पुन:-पुन: अथवा अतिशयरूप से नमस्कार होवे । यहाँ 'नम:' शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति है । यहाँ नमस्कार के करने में आस्तिक्य भावना व्यक्त की गई है और 'नमो नम:' ऐसा दो बार कहने से नमस्कार में अतिशय रुचि दिखाई गई है । यहाँ कहते हैं कि जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करना ही परम मंगल है । मलं-पाप को जो गालन करे-ध्वंस करे अथवा जो मंगं-पुण्य को लाता है-देता है वह मंगल है ऐसा निरुक्ति अर्थ है । शंका – जिनेन्द्र नमस्कार के समान श्रुत आदि का नमस्कार भी मंगलरूप है पुन: ग्रंथकार ने उन्हें भी नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान – नहीं, ऐसी बात नहीं है । इस श्लोक में 'धर्मतीर्थकर' ऐसा जो पद है, उससे उनको भी नमस्कार हो जाता है । धर्म ही 'तीर्थ' है, अथवा धर्म के प्रतिपादक को 'तीर्थ' कहते हैं अथवा धर्म के लिए जो प्रवर्तन है वह तीर्थ है । इस लक्षण से धर्म-तीर्थ से प्रवचन-परमागम भी कहे जाते हैं । जो इस धर्म-तीर्थ को करते हैं - अपनी वाणी द्वारा प्रतिपादन करते हैं, वे धर्म-तीर्थकर कहलाते हैं । प्रश्न – यह धर्म क्या है ? उत्तर – उत्तम क्षमा आदि दशलक्षण वाला धर्म है । जीवादि वस्तु का जो स्वभाव है वह धर्म है । जीव को सुख देने वाला धर्म है और शुभ धर्मरूप पुद्गल का जो परिणाम है वह धर्म है। यह धर्म ही तीर्थ है क्योंकि संसार से पार करने में कारण है । धर्म और तीर्थ का उत्तम क्षमादि के साथ सामानाधिकरण अविरुद्ध है । तस्य तीर्थं उस का तीर्थ (धर्म के प्रतिपादक तीर्थ) ऐसा कहना भी विरुद्ध नहीं है, क्योंकि जीवादि तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाला होने से प्रवचन भी तीर्थ है । तस्मै तीर्थं उसके लिए जो है वह तीर्थ है (धर्म के लिए जो प्रवर्तन है वह तीर्थ है) यह अर्थ भी हमें इष्ट ही है क्योंकि परमागम नवीन पुण्य के आस्रव को कराने वाला है । इसलिए परमागम को तीर्थ माना है । इसलिए यह बात ठीक ही है कि 'वृषभादि महावीर पर्यंत तीर्थंकर अर्हंत भगवान ही स्वहित इच्छुकों के द्वारा नमस्कार करने योग्य हैं, क्योंकि वे धर्मतीर्थ के करने वाले हैं। जो अर्हंत नहीं हैं वे धर्मतीर्थ के करने वाले भी नहीं हैं । जैसे-पागल पुरुष । और ये धर्मतीर्थंकर हैं इसीलिए ये ही नमस्कार के योग्य हैं ।' इस प्रकार से अविनाभाव नियम से निश्चय एक लक्षण वाले हेतु से साध्य की सिद्धि हो जाती है । इसमें बाधा नहीं आती है । शंका – आपका यह 'धर्म तीर्थकरत्वात्' हेतु अनैकांतिक है क्योंकि जो अर्हंत नहीं हैं ऐसे सुगत आदि में भी देखा जाता है । वे भी अपने-अपने इष्ट धर्म-रूपी आगम के प्रतिपादक-रूप से उन-उन वादियों द्वारा कहे जाते हैं ? समाधान – ऐसी बात नहीं है । उनका व्यवच्छेद करने के लिए ही तो श्लोक में 'स्याद्वादिभ्य:' ऐसा विशेषण दिया गया है । स्यात्-कथंचित्-सत् असत्रूप वस्तु को वंदतीति-कहने वाले स्याद्वादी कहलाते हैं । तथाहि - 'अर्हंत ही धर्म तीर्थ को करने वाले हैं क्योंकि स्याद्वादी हैं ।' अर्हंत से अतिरिक्त जीवों में स्याद्वादी-पना बन नहीं सकता है कि जिससे उन्हें धर्म-तीर्थकर कहा जा सके । क्योंकि क्षणिक, नित्यत्व आदि सर्वथा एकांत-वादी होने से उनमें स्याद्वादी-पना विरुद्ध ही है । प्रश्न – शास्त्र-कार ने यहाँ मंगल किसलिए किया है ? उत्तर – 'स्वात्मोपलब्धये' अपने नमस्कार करने वाले का आत्मा अनंतज्ञानादि स्वरूप है उसकी उपलब्धिसिद्धि के लिए यहाँ नमस्कार किया गया है । 'सिद्धि: स्वात्मोपलब्धि:' ऐसा कथन भी है अर्थात् अपने आत्मा के स्वरूप की उपलब्धि हो जाना ही सिद्धि है, ऐसा पूज्यपाद-स्वामी ने कहा है और ज्ञानावरण आदि कर्म-मल का अभाव हो जाने से अनंतज्ञानादि स्वरूप का लाभ होना ही मंगल का फल कहलाता है । यहाँ यह बात सिद्ध हुई है । |