अभयचन्द्रसूरि :
क्षणिकैकांतवादी बुद्ध यदि स्वयं अपने स्वरूप से ठहरता है, निर्वाण को नहीं जाता है । किसलिए ? सभी के लिए-दु:ख से शिष्यजनों का उद्धार करने के लिए करुणा बुद्धि से ठहरता है । 'तिष्ठंत्येव पराधीना येषां तु महती कृपा' ऐसा वाक्य है । प्रतिपादक बुद्ध तो स्व है और प्रतिपाद्य दिङ्नाग आदि आचार्य पर हैं, स्वपर के संकल्प से-असत् में सत् का आरोप करके वह बुद्ध भगवान ठहरता है । अवास्तविक कार्य कारण स्वरूप परस्पर में भिन्न निरन्वय क्षणिक चित्तों की असत् रूप संततियों के होने पर भी वह स्वपर का संकल्प करता है अर्थात् स्व और पर जब दोनों ही क्षणिक हैं, निरन्वय हैं फिर भी पर में करुणा करके आप स्वयं ठहरता है । पुन: वह बुद्ध धर्मतीर्थंकर कैसे हो सकता है ? यहाँ यह अभिप्राय है । क्योंकि मिथ्या-असत्यरूप संकल्प करने वाला वह बुद्ध स्वयं मिथ्या विकल्पस्वरूप है । यहाँ प्रथमांत में भी हेतु का प्रयोग संभव है अत: मिथ्याविकल्पात्मक होने से वह बुद्ध धर्म तीर्थंकर नहीं है । ऐसा अर्थ होता है । जिस प्रकार से सर्वथा नित्यत्व में परमार्थसत् की व्यवस्था करने वाले ईश्वर कपिल और ब्रह्मा धर्मतीर्थंकर नहीं होते हैं क्योंकि वे मिथ्या विकल्प वाले हैं उसी प्रकार बुद्ध भी नहीं हैं, यह अर्थ सिद्ध हुआ । वेदांती - आपका यह सभी कथन हमें इष्ट ही है क्योंकि हमारे द्वारा मान्य प्रतिभासाद्वैत-ब्रह्माद्वैत सिद्धांत ही परमार्थ से सत रूप है । जैन - समय अर्थात् सम्-संगत संपूर्ण ज्ञानों में अनुगत अय-प्रतिभास को समय कहते हैं । मतलब संपूर्ण ज्ञानों में या जीवों में अनुगत-अन्वयरूप से रहने वाले ज्ञान या ब्रह्म को समय कहते हैं । इस निरुक्ति के अनुसार समय का अर्थ प्रतिभासाद्वैत हो गया है । यह तुम्हारा प्रतिभासाद्वैत-ब्रह्माद्वैतवाद सिद्धांत में भी ठीक नहीं है । सभी वस्तु को अद्वैत-एकरूप मान लेने पर तो अर्थ क्रियारूप अनुभव नहीं हो सकता है क्योंकि मिथ्या-विकल्प दोनों जगह समान ही है । माध्यमिक - स्वप्न और इंद्रजाल के ज्ञान के समान सभी ज्ञान निरालंबन हैं पुन: अनुमान ज्ञान को प्रमाणता कैसे हो सकती है कि जिससे आप अर्हंत भगवान् को तीर्थंकर सिद्ध कर सकें ? जैन - सम-स्वप्न और जाग्रत दशा में समान रूप से होने वाला अय-ज्ञान समय है । इस निरुक्ति से आप माध्यमिक की मान्यता समय कहलाती है । ऐसे इस आप के समय-सिद्धांत में हेयोपादेयरूप अर्थ में त्याग और ग्रहण लक्षण क्रिया परमार्थ से नहीं हो सकती है । यहाँ श्लोक में वस्तुन: की जगह वस्तुत: पाठ भी मिलता है उसके आधार से यह अर्थ किया है क्योंकि अप्रमाण से त्याग और ग्रहण लक्षण व्यवस्था नहीं हो सकती है अन्यथा अतिप्रसंग दोष हो जावेगा । इसी कथन से विभ्रमैकांत-वाद का भी खंडन हो गया है अत: जैसे क्षणिकत्व, नित्यत्व आदि एकांत मत मिथ्या-विकल्प -- गलत कल्पनारूप हैं। उसी प्रकार यथा-अवसर शास्त्र-कार स्वयमेव आगे कहेंगे, इसलिए हम यहाँ विराम लेते हैं । भावार्थ – बौद्धों का सिद्धांत है कि महात्मा बुद्ध जीवों के उद्धार की करुणा बुद्धि से जगत में रुकते हैं, मुक्ति में नहीं जाते हैं पुन: उनके यहाँ सभी को निरन्वय क्षणिक माना है इसलिए आचार्य कहते हैं कि आपके यहाँ सर्वथा क्षणिक मान्यता में स्व-पर की कल्पना भी कैसे बनेंगी क्योंकि आप भी क्षण-क्षण में नष्ट हो रहे हैं और आपके शिष्यादि भी क्षण-क्षण में नष्ट हो रहे हैं। तब तो बुद्ध कैसे तो ठहरेंगे और किसको तो उपदेश देंगे कुछ समझ में नहीं आता है । ब्रह्माद्वैत-वाद में भी सर्वथा अद्वैत होने से किसको तो छोडना और किसको ग्रहण करना इत्यादि अर्थ-क्रिया असंभव है । ऐसे ही माध्यमिक स्वप्न-ज्ञान के समान ही सारे ज्ञानों को निरालंब कहता है क्योंकि बाह्य पदार्थों को सर्वथा ही काल्पनिक कह दिया है पुन: उसके त्यागोपादान-रूप अर्थ-क्रिया असंभव है । इन-इन मतों का यथा-संभव आगे खंडन किया जायेगा । |