अभयचन्द्रसूरि :
भावार्थ-वस्तु में या ज्ञान में एकत्व मानने पर भी परिणमन पाया जाता है। पूर्व आकार का परित्याग और अपने मूल स्वभाव को न छोड़ते हुए उत्तराकार की प्राप्ति इसी को विक्रिया, विकार या परिणाम कहते हैं। तात्पर्यवृत्ति-वि-विशेष अर्थात् काल के भेद से जो क्रिया होती है वह विक्रिया कहलाती है। वह पूर्वाकार के परिहार, उत्तराकार के ग्रहण और स्थितिलक्षण परिणत रूप है। कथंचित् द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से विवक्षित अन्वयरूप-अनुगताकार को अभेद कहते हैं। वह विक्रिया इस द्रव्यार्थिक नय से विवक्षित अभेद में भी प्रत्यक्षादि से बाधित नहीं होती है। केवल विक्रिया नहीं किन्तु युगपत् अनेकाकार में व्याप्ति लक्षण अविक्रिया विरुद्ध नहीं है क्योंकि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से वस्तु के धर्मों में अभेद है, जो ही मिट्टीरूप एक द्रव्य पिंड आदि आकार से परिणत हुआ है, वही द्रव्य उस पिंडादि आकार को छोड़ते हुए और आगे के घट के आकार को प्राप्त करते हुए प्रतीति में आ रहा है और प्रतीति में आने वाले विषय में विरोध की कल्पना करना शक्य नहीं है, क्योंकि वह विरोध अभाव से सिद्ध होता है। कारिका में जो ‘अपि’ शब्द है, उससे भेद में भी विक्रिया विरुद्ध नहीं है, यह भी अर्थ ग्रहण किया जाता है। कथंचित् पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से भेद में भी द्रव्य और पर्याय को अर्पित-विवक्षित करने से क्रम और युगपत् विरुद्ध नहीं हो सकते हैं कि जिससे अर्थक्रिया का विरोध हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है क्योंकि पूर्व के आकार का विनाश होते ही उत्तर पर्याय उत्पन्न हो जाती है अन्यथा यदि ऐसा नहीं मानोगे तो संकर आदि दोषों का प्रसंग आ जावेगा इसलिए तत्त्व को कथंचित भेदाभेदात्मक , नित्यानित्यात्मक आरै सदसदात्मक स्वीकार करना चाहिए। उसी में अर्थक्रिया संभव है अन्यथा ऐसा नहीं मानने से विरोध आता है। भावार्थ-कारिका के इस पूर्वार्ध की टीका में आचार्य ने यह स्पष्ट किया है कि प्रत्येक वस्तु अनंत धर्मात्मक है। द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से उस वस्तु के सभी धर्म गौण हो जाते हैं और तब सभी वस्तुएं एक अभेद रूप ही रहती हैं और पर्यायार्थिकनय से द्रव्य गौण हो जाता है और उसके अनेकों धर्म दिखते हैं अर्थात् द्रव्यार्थिक नय वस्तु के अभेदरूप (द्रव्य) को ग्रहण करता है और पर्यायार्थिक नय वस्तु की भेदरूप (पर्यायों) को ग्रहण करता है। अत: अभेद में भी क्रम से और युगपत् कार्य होने रूप अर्थक्रिया पायी जाती है तथा भेद में भी क्रम और युगपत् से अर्थक्रिया पायी जाती है इसलिए तत्त्व भेदाभेदस्वरूप आदि रूप ही है। |