+ एकांत में अर्थक्रिया का विरोध ही है, इसी बात को और स्पष्ट करते हैं - -
अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयो:।
क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता॥1॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[नित्यक्षणिकपक्षयो:] नित्य और क्षणिक पक्ष में [अर्थ क्रिया न युज्येत] अर्थक्रिया घटित नहीं होती है, [सा] क्योंकि वह अर्थक्रिया [भावानां] पदार्थों में [क्रमाक्रमाभ्यां] क्रम और यौगपद्य के द्वारा [लक्षणतया मता] लक्षणरूप से मानी गई है॥१॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-कार्य को ‘अर्थ’ कहते हैं और ‘क्रिया’ का अर्थ है करना या निष्पन्न होना। चेतन-अचेतन पदार्थों को ‘भाव’ कहते हैं। ‘क्रम’ देश और काल से व्याप्त है, युगपत् को अक्रम कहते हैं। वस्तु को सर्वथा कूटस्थ मानना नित्य पक्ष है, सर्वथा अनित्य का दुराग्रह क्षणिक पक्ष कहलाता है। अभिप्राय यह हुआ कि नित्य और क्षणिक पक्ष में अर्थक्रिया असंभव है क्योंकि पदार्थों में क्रम-अक्रम का होना ही अर्थक्रिया है।

(नित्यपक्ष में अर्थक्रिया का अभाव)

कूटस्थ नित्य में क्रम से कार्य करना बन नहीं सकता है। एक कार्य के उत्पादन काल में ही सभी कार्यों का उत्पादन कर देने की सामथ्र्य नित्य में पायी जाती है। उसमें सहकारी कारणों का मिलना भी अकिंचित्कर है। सहकारी कारण के बिना कार्यों को करने की साम्यर्थ का अभाव होने पर तो नित्यपने की हानि का प्रसंग आ जाता है क्योंकि असमर्थ स्वभाव का परित्याग और समर्थ स्वभाव को ग्रहण करके परिणमन करने वाले को ही तो अनित्य कहते हैं।

भावार्थ-जैसे मिट्टी को सर्वथा वूâटस्थ नित्य कहने पर तो पहली बात यह है कि उस मिट्टी से कुछ कार्य नहीं होगा। यदि आप जबरदस्ती मानें भी तो मिट्टी से एक घड़ा बनते ही उसी समय संपूर्ण मिट्टी से सारे घड़े बन जावेंगे तथा सहकारी कारण दंड, चाक, कुंभार आदि की भी आवश्यकता नहीं रहेगी क्योंकि सर्वथा नित्यस्वभाव में ये कारण क्या परिवर्तन कर सकेंगे। यदि आप कहें कि सहकारी चक्र, कुंभार आदि कारणों के बिना घट को करने की सामथ्र्य मिट्टी में नहीं है, तब तो पूर्व के असमर्थ स्वभाव का त्याग करके और उत्तर के समर्थ स्वभाव को ग्रहण करके परिणत हुए को ही तो अनित्य कहा जाता है पुन: तुम्हारा नित्य एकांत पक्ष कहाँ रहा ?

इस नित्यपक्ष में युगपत से भी कार्य होना संभव नहीं है। पूर्व समय में कृतकृत्य होने से वह नित्य पदार्थ उत्तर समयों में भी कार्य करने से रहित है। पुन: अर्थक्रिया के बिना उसके अभाव का प्रसंग आ जाता है और स्वभाव में भी अनेक प्रकारता आ जाती है क्योंकि एक स्वभाव से ही अनेक कार्यों का होना युक्त नहीं है अति प्रसंग हो जाता है और कार्य में अभेद-एकत्व का भी प्रसंग आ जाता है।

सांख्य-सहकारी कारण के अनेक प्रकार होने से ही कार्य अनेक प्रकार के होते हैं।

जैन-यह कहना भी गलत है। जो स्वभाव में भेद करने वाले नहीं हैं उन्हें सहकारी कारण ही नहीं कहा जा सकता है इसलिए सर्वथा नित्यपक्ष में क्रम और अक्रम का अभाव होने से अर्थक्रिया का अभाव सिद्ध ही है अत: नित्य पदार्थ का अभाव ही है यह बात सिद्ध हो गई क्योंकि व्यापक का अभाव व्याप्य के अभाव को बतला ही रहा है।

भावार्थ-सांख्य ने कहा कि सभी पदार्थ कूटस्थ नित्य हैं तब आचार्य ने कहा इस नियम से पक्ष में अर्थ क्रिया-कार्य के करने का अभाव रहा तब उन पदार्थों का अस्तित्व वैâसे सिद्ध होगा। कार्य का करना मान भी लीजिए तो यह प्रश्न उठता है कि वह नित्य पदार्थ कार्य करने में समर्थ है या असमर्थ ? यदि समर्थ है तो एक साथ ही सारे कार्य हो जावेंगे और सहकारी कारणों की अपेक्षा भी नहीं रखेंगे क्योंकि वह नित्य पदार्थ हमेशा ही समर्थ स्वभाव वाला है। यदि आप कहें कि सहकारी के मिलने पर ही कार्य होते हैं तब तो तुम्हारा नित्य पदार्थ कार्य करने में स्वयं समर्थ नहीं रहा। सहकारी कारण मिलने पर पूर्व के असमर्थ स्वभाव को छोड़कर समर्थ स्वभाव को ग्रहण करने से वह नित्य कहाँ रहा ? अनित्य ही हो गया। नित्यपक्ष में क्रम से अर्थक्रिया मानने पर ये दोष आते हैं।

यदि आप नित्य पदार्थ में युगपत् अर्थक्रिया मानें तो एक समय में ही सारे कार्य हो जाने से आगे कुछ कार्य नहीं होगा अथवा आगे-आगे कार्य करने में अनेकों स्वभाव मानने पड़ेंगे क्योंकि एकस्वभाव अनेक समयों में अनेक कार्य करे यह संभव नहीं है। आप कहें कि सहकारी कारणों में भेद होने से कार्यों में भेद दिखता है तब तो सहकारी कारण नित्य के स्वभाव में भेद करता है अत: पदार्थ की नित्यता नहीं टिकती है और यदि स्वभाव में भेद नहीं करता है तो वह सहकारी कारण ही नहीं कहलायेगा क्योंकि जो कुछ सहायता करे वही तो सहकारी कारण है अत: नित्यपक्ष में क्रम-अक्रम से अर्थक्रिया का अभाव है।

(क्षणिकपक्ष में भी अर्थक्रिया असंभव है)

क्षणिक एकांत पक्ष में भी क्रम से कार्य करना नहीं बन सकता है क्योंकि उसमें देश और काल के क्रम का अभाव है।

श्लोकार्थ-जो जहाँ पर है वह वहीं पर है, जो जिस काल में है वह उसी काल में है। पदार्थों की देशकाल में व्याप्ति नहीं है, ऐसा उन्होंने कहा है अर्थात् सर्वथा क्षणिकपक्ष में कोई भी पदार्थ एक क्षण ही टिकता है अनंतर क्षण में नष्ट हो जाता है अतएव वह जिस देश में रहेगा, वहीं उसी क्षण में नष्ट हो जायेगा, दूसरे क्षण टिकेगा ही नहीं पुन: अन्यत्र जायेगा कैसे ? वैसे जिस समय है उसी समय रहेगा, दूसरे क्षण में समाप्त हो जाता है। तब देश काल से उसकी व्याप्ति कैसे बनेगी ?

अन्यथा यदि व्याप्ति मानोगे तो क्षणिकपने का विरोध हो जावेगा।।१।।

बौद्ध-हमारे यहाँ संतान की अपेक्षा से क्रम माना गया है।

जैन-यह बात ठीक नहीं है। वह संतान तो अवस्तु है। दूसरी बात यह है कि संतान ही कार्यकारी है अथवा स्वलक्षण कार्यकारी है। प्रथम पक्ष में संतान को कार्य करने वाला मानने से तो वही वस्तु (वास्तविक) हो जावेगी पुन: क्षणिकवस्तु की कल्पना से क्या प्रयोजन रहा ?

द्वितीय पक्ष में-स्वलक्षण को कार्य करने वाला मानने पर तो संतान के अवस्तु होने से उसकी अपेक्षा रखने वाले स्वलक्षण का क्रम से कार्य करना भी अवास्तविक हो जावेगा। यदि आप तीसरा पक्ष लेते हैं अर्थात् न संतान कार्य करता है न स्वलक्षण किन्तु तीसरा ही कोई कार्य करता है, ऐसा मानने पर तो कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तु ही आ जाती है क्योंकि उन दो के सिवाय तीसरी चीज तो यही है और कुछ नहीं है, पुन: आप जैन हो जाते हैं। इसलिए क्षणिक में क्रम से कार्य करना नहीं घटता है।

इसमें युगपत् भी अर्थक्रिया संभव नहीं है क्योंकि विभ्रम का प्रसंग आ जाता है। कारण के काल में ही कार्य की उत्पत्ति हो जावेगी और उसके कार्य की भी उसी काल में उत्पत्ति हो जावेगी।

शंका-नित्य और क्षणिकपक्ष में अर्थक्रिया न होवे, तो न सही, क्या हानि है ?

समाधान-वह क्रिया भाव-सद्भूत पदार्थों की वह अर्थक्रिया ज्ञप्ति और उत्पत्ति लक्षण से जानी जाती है। चिन्ह को लक्षण कहते हैं। उस लक्षण के भाव को लक्षणता कहते हैं। सभी आस्तिक लोगों ने इसी लक्षण-चिन्ह रूप से उस अर्थक्रिया को स्वीकार किया है क्योंकि वह सभी पदार्थों में व्यापक है तथा व्यापक का अभाव नित्य और क्षणिकपक्ष में व्याप्य जो अस्तित्व है उसके निषेध को सिद्ध कर देता है, यहाँ यह अभिप्राय है क्योंकि उसी प्रकार का कथन किया गया है।

प्रत्यक्ष से सिद्ध बहिरंग और अंतरंग पदार्थ अस्तित्व अपने में व्यापक अर्थक्रिया को बतलाता है। वह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य परिणति लक्षण वाली अर्थक्रिया भी अपने में व्यापक क्रम और युगपत् का ज्ञान कराती है। वे क्रम-युगपत् अपने में व्यापक अनेकांत को सिद्ध करते हैं और क्रम-युगपत् से विरुद्ध सर्वथा एकांत का निषेध कर देते हैं, यह अभिप्राय हुआ इसलिए उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य परिणाम वाली ही अर्थक्रिया के संभव होने से द्रव्य पर्यायात्मक (वस्तु) प्रमाण का विषय है, यह बात सुस्थित हो गई।

भावार्थ-इस कारिका की टीका में इस बात को स्पष्ट किया कि सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा क्षणिक पक्ष में क्रम या अक्रम दोनों प्रकार से कार्य होना संभव नहीं है इसलिए अनेकांतात्मक द्रव्य पर्यायस्वरूप पदार्थ ही ज्ञान से जाने जाते हैं।