+ अब इस समय परोक्ष प्रमाण के कारण और भेद को कहते हैं। -
ज्ञानमाद्यं मतिस्संज्ञा चिंता चाभिनिबोधनं॥
प्राङ्नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात्॥1॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानं मति:] मतिज्ञान, [संज्ञा चिंता च आभिनिबोधिकं] संज्ञा, चिंता और आभिनिबोधिक ज्ञान [नामयोजनात् प्राङ्] नाम योजना से पहले [आद्यं] आदि के सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं और [शब्दानुयोजनात्] शब्द योजना होने पर [श्रुतं शेषं] श्रुत हैं अत: परोक्ष हैं॥१॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

जो अविशद परोक्ष ज्ञान है वह ‘शेष’ शब्द से कहा गया है। उसके कितने भेद हैं ? स्मृति, संज्ञा, चिंता, आभिनिभोधक और श्रुत ऐसे पाँच भेद होतें हैं । कारिका के ‘च’ शब्द से स्मृति का ग्रहण किया गया है। ये पाँच प्रकार का परोक्ष ज्ञान शब्द प्रयोग के पूर्व उत्पन्न होता है। इस प्रकार ‘उत्पद्यते’ क्रिया का अध्याहार किया गया है।

केवल इसी प्रकार नहीं किन्तु शब्दोच्चारण से भी होता है। ‘च’ शब्द भिन्न प्रकरण रूप से यहाँ भी संबंधित किया जाता है।

उस ज्ञान की उत्पत्ति के कारण को कहते हैं - मतिसंज्ञक साम्व्यव्हारिक प्रत्यक्ष ज्ञान आद्य-कारण है । उसमें धारणा के बल से उत्पन्न हुई अतीत अर्थ को विषय करने वाली ‘तत्-वह’ इस शब्द की परामर्शिनी स्मृति है।

प्रश्न-स्मृति प्रमाण नहीं है क्योंकि गृहीत को ग्रहण करने वाली है ?

उत्तर-नहीं! तत् यह अतीताकार विषय प्रत्यक्ष आदि से गृहीत नहीं है।

प्रश्न-‘असत्’ (अर्थ) में प्रवृत्त होने से स्मृति में प्रमाणता नहीं है ?

उत्तर-यह कथन भी सुन्दर नहीं है। वह स्मृति देश आदि के विशेष से सत् को ही ग्रहण करती है क्योंकि सर्वथा असत् की अनुपपत्ति (अभाव) है इसलिए ‘स्मृति प्रमाण है’ क्योंकि प्रत्यभिज्ञान के प्रमाणता की अन्यथा अनुपपत्ति है अर्थात् स्मृति को प्रमाण माने बिना प्रत्यभिज्ञान की प्रमाणता सिद्ध नहीं हो सकती है।

प्रश्न-पुन: वह प्रत्यभिज्ञान क्या है?

उत्तर-प्रत्यक्ष और स्मृतिहेतुक जोड़रूप-अनुसंधान ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। इसी का नाम संज्ञा है। जैसे-यह वही देवदत्त है, गाय के सदृश रोझ है, गाय से विलक्षण महिष है, यह इससे अल्प है, यह बहुत है, यह इससे दूर है, यह इससे पास है, यह वृक्ष है इत्यादि। पूर्वोत्तराकार में व्यापी, ‘तत्’ को विषय करने वाला द्रव्य दर्शन और स्मरण के द्वारा गृहीत नहीं है और इस प्रत्यभिज्ञान के बिना तर्क प्रमाण के नहीं हो सकने से यह प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है। अन्यथा देना-लेना आदि संपूर्ण व्यवहार समाप्त हो जावेगा।

प्रश्न-तर्क क्या है ?

उत्तर-अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा जो व्याप्ति का ज्ञान है, वह तर्वâ है। वह दर्शन-स्मरण के द्वारा अगृहीत प्रत्यभिज्ञान में कारण है। उसे चिंता भी कहते हैं। जैसे-अग्नि के होने पर ही धूम होता है उसके अभाव में नहीं होता है।

भावार्थ-यहाँ पर अविशद लक्षण वाले परोक्ष ज्ञान के पाँच भेद बताये हैं और यह बताया है कि ये पाँचों ज्ञान शब्द प्रयोग के पहले उत्पन्न होते हैं। पुन: कहा है कि केवल इतनी ही बात नहीं है किन्तु ये ज्ञान शब्दोच्चारण से भी उत्पन्न होते हैं। अनंतर सांव्यवहारिक मतिज्ञान को स्मृति में कारण बतलाया है। वह स्मृति प्रत्यभिज्ञान में कारण है और प्रत्यभिज्ञान तर्वâज्ञान में कारण है ऐसा सिद्ध किया है तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्वâ इन तीनों को प्रमाणीक सिद्ध किया है।