+ अविनाभाव का प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से निर्णय हो जाता है। पुन: तर्क नाम के एक भिन्न प्रमाण को क्यों आपने कल्पित किया है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं - -
अविकल्पधिया लिंगं न किन्चित्संप्रतीयते।
नानुमानादसिद्धत्वात् प्रमाणांतरमांजसं॥2॥
अन्वयार्थ : [अविकल्पधिया] निर्विकल्प ज्ञान से [विंâचित् लिंगं न प्रतीयते] कुछ हेतु लिंग प्रतीति में नहीं होता है। [अनुमानात् न] अनुमान से भी वह प्रतीत नहीं होता है [असिद्धत्वात्] क्योंकि वह असिद्धरूप है, [आंजसं प्रमाणांतरं] अत: वास्तविक प्रमाणांतर सिद्ध हो जाता है॥२॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

साध्य-साधन के अविनाभाव को लिंग कहते हैं। सौगत द्वारा मान्य निर्विकल्प प्रत्यक्ष से किन्चित् भी अविनाभाव प्रतीत नहीं होता है और पूर्णरूप से भी नहीं जाना जाता है। जितना कुछ भी धूम है वह सभी अग्नि से उत्पन्न होने वाला ही है अथवा अनग्नि से उत्पन्न होने वाला नहीं होता है। इस तरह वह निर्विकल्प प्रत्यक्ष इतने विकल्प से रहित है अन्यथा वह सविकल्प हो जावेगा।

प्रश्न-सविकल्प प्रत्यक्ष से अविनाभाव का निर्णय हो जावे, क्या बाधा है ?

उत्तर-यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि वह सविकल्पक अपने से संबंधित वर्तमान को विषय करता है। भिन्न-भिन्न देश, काल से व्यवहित (दूरवर्ती) ऐसे साध्य और साधन विशेष में होने वाली व्याप्ति का विकल्प नहीं कर सकता है इसलिए प्रत्यक्ष से अविनाभाव का निर्णय नहीं होता है।

अनुमान से भी नहीं होता है क्योंकि वह असिद्धरूप है। व्याप्ति के ग्रहणपूर्वक ही अनुमान उत्पन्न होता है। यदि आप भिन्न अनुमान से उसमें भी अविनाभाव का निर्णय मानें तब तो अनवस्था आ जाती है।

यदि आप कहें कि प्रथम अनुमान से दूसरे अनुमान में व्याप्ति का निर्णय हो जावेगा तब तो परस्पराश्रय दोष आ जाता है इसलिए अनुमान भी व्याप्ति को ग्रहण करने वाला नहीं है। इसलिए उस व्याप्ति को ग्रहण करने वाला ‘तर्क’ नाम का एक भिन्न प्रमाण और स्वीकार करना चाहिए और उसको पारमार्थिक मानना चाहिए न कि विकल्पात्मक मिथ्यारूप। अन्यथा-यदि आप इसको नहीं मानेंगे तब तो अनुमान की प्रमाणता भी नहीं बन सकेगी।

भावार्थ-पूर्व की कारिका में परोक्ष प्रमाण के भेद करके स्मृति और प्रत्यभिज्ञान का लक्षण और उनकी सार्थकता बताई है। इस कारिका में तर्वâ प्रमाण का लक्षण और उपयोगिता सिद्ध की है और यहस्पष्ट बताया है कि तर्वâ प्रमाण को माने बिना अनुमान ज्ञान भी उत्पन्न हो सकता है क्योंकि वह व्याप्ति के ज्ञानपूर्वक ही होता है और व्याप्ति को ग्रहण करने वाला तर्वâ ही है, अन्य कोई प्रमाण नहीं है। वास्तव में जैन के सिवाय किसी ने भी स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्वâ इन तीनों को पृथक् प्रमाण नहीं माना है और चार्वाक के सिवाय अनुमान को प्रमाण सभी मानते हैं। तर्कादि को प्रमाण माने बिना वह प्रमाण व्यवस्था भी बिगड़ जाती है।