+ प्रत्यक्ष से भेद सिद्ध है पुन: अभेद नयरूप संग्रह मिथ्या है क्योंकि प्रत्यक्ष से बाधित है। इस प्रकार की सौगत की विचारधारा का निराकरण करते हुए कहते हैं -
प्रत्यक्षं बहिरंतश्च भेदाज्ञानं सदात्मना॥
द्रव्यं स्वलक्षणं शंसेद्भेदात्सामान्यलक्षणात्॥4॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[भेदाज्ञानं प्रत्यक्षं] भेद को नहीं ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान [सदात्मना] सत्रूप से [बहि: अंत: च] बहिरंग और अंतरंग पदार्थ में [सामान्य लक्षणात्] सामान्य लक्षण वाले [भेदात्] भेद से [द्रव्यं स्वलक्षणं] द्रव्य को वस्तुभूत [शंसेत्] कहता है॥४॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-इंद्रिय और मन से होने वाला विशद ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। वह भेदाज्ञान अर्थात् बौद्धों के द्वारा परिकल्पित भेदों को-निरंश क्षणों को नहीं जानता है-नहीं ग्रहण करता है, ऐसा वह भेद को नहीं ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान सद्रूप से बाह्य-अचेतन घटादि और अंतरंग चेतन में शुद्ध अथवा अशुद्ध द्रव्य को स्वलक्षण-वास्तविक कहता है, कल्पित नहीं कहता है क्योंकि पदार्थों में सत्रूप से भेद प्रत्यक्ष से नहीं जाना जाता है कि जिससे प्रत्यक्षज्ञान द्रव्य को (एकरूप) न कहे।

कैसे ? सामान्य-अन्वय, लक्षण-लिंग है जिसका उस सामान्य लक्षण भेद का आश्रय लेकर कहता है अर्थात् प्रत्यक्ष अथवा अन्य अनुमानादि प्रमाण भेदनिरपेक्ष अभेद को सिद्ध नहीं करते हैं क्योंकि वैसी उपलब्धि नहीं होती है। इस हेतु से प्रत्यक्ष भी द्रव्य सिद्धि का कारण ही है इसलिए संग्रहनय मिथ्या कैसे हो सकेगा ? अर्थात् नहीं हो सकेगा।

भावार्थ-प्रत्यक्ष प्रमाण भी सत्रूप से किन्हीं भी चेतन-अचेतन पदार्थों में भेद को नहीं करते हुए सत् लक्षण वाले द्रव्य को सिद्ध कर देता है इसलिए सत्सामान्य-सबको एक सत् रूप ग्रहण करने वाला संग्रहनय मिथ्या नहीं है प्रत्युत् समीचीन ही है क्योंकि यहाँ अभेद भी भेद निरपेक्ष विवक्षित नहीं है।