अभयचन्द्रसूरि :
तात्पर्यवृत्ति-संग्रहनय सभी भेदरूप द्रव्यादि के ऐक्य-अभेद को ‘सर्वं सत्-सभी सत्रूप हैं’ इस सत्रूप से विषय करता है। ‘सत्सामान्यात्तु सर्वैक्यं१’ सत्सामान्य से सभी में ऐक्य-अभेद है’ ऐसा श्री समंतभद्रस्वामी का वचन है। सर्वथा सभी वस्तु एक रूप नहीं है क्योंकि वैसी प्रतीति नहीं होती है। शंका-इस प्रकार से तो आपने ब्रह्मवाद का ही समर्थन कर दिया है ? समाधान-नहीं। वह सत्ता द्वैतरूप भावैकांत ही ब्रह्मवाद है अत: वह संग्रहाभास है। शंका-क्यों ? समाधान-क्योंकि वह अपने ब्रह्मवाद विषय के भेदों का निराकरण करने वाला है। स्व-अपने ब्रह्मवाद का अर्थ-विषय, सन्मात्र, उसके भेद-जीवादि विशेषों का निराकरण-निषेध करने वाला है। निश्चित ही सर्वथा सत्रूप में भेदों को अवकाश नहीं है और भेद रहित वह सामान्य कैसे रह सकता है क्योंकि निराश्रय रूप है और अर्थक्रिया से रहित है। नैवंâ२ स्वस्मात् प्रजायते-’ एक ही ब्रह्म अपने आप से उत्पन्न नहीं हो सकता है’ ऐसा न्याय है। उस ब्रह्माद्वैत में क्रिया कारक का भेद भी नहीं है कि जिससे अर्थक्रिया संभव हो सके अर्थात् नहीं हो सकती है। भावार्थ-ब्रह्माद्वैतवादी का कहना है कि सभी चेतन-अचेतन रूप जगत् सत्रूप है वह सन्मात्र शरीरधारी परम ब्रह्म ही है। |