अभयचन्द्रसूरि :
तात्पर्यवृत्ति-निगम-मुख्य गौण कल्पना, उसमें होने वाला नय ‘‘नैगम’’ कहलाता है, ऐसा स्याद्वादियों ने स्वीकार किया है। अन्योन्य-परस्पर में गुणभूत-अप्रधानभूत और एक-प्रधानभूत भेद- अभेद का प्ररूपण करता है अर्थात् गुण-गुणी में, अवयव-अवयवी में, क्रिया-कारकों में और सामान्यसामान्यवान् में कथंचित् भेद को गौण करके अभेद का प्ररूपण करता है अथवा अभेद को गौण करके भेद को प्ररूपित करता है, यह नैगमनय इस प्रकार का है। प्रमाण में भेद और अभेद का अनेकांत ग्रहण होता है। शंका-गुण-गुणी आदि में अत्यंत भेद ही है ? [समाधान-गुण और गुणी में अर्थांतर-अत्यंत भेद प्ररूपित करने पर तो वह नैगमाभास माना जावेगा क्योंकि वह अत्यंत भेद प्रमाण से बाधित है। निश्चित ही द्रव्य से अत्यन्त भिन्न गुण आदि प्रतीति में नहीं आते हैं क्योंकि द्रव्य से गुणादि का अशक्य विवेचन होने से उनमें तादात्म्य प्रतीत हो रहा है और उन्हें अत्यन्त भिन्न मानने पर उनमें संबंध का अभाव है। भावार्थ-वैशेषिक का कहना है कि अग्नि द्रव्य से उष्ण गुण सर्वथा भिन्न है, वस्त्र के सूतरूप अवयवों से वस्त्र अवयवी भी भिन्न है, सत् सामान्य से सत्सामान्य वाली वस्तु भी भिन्न है किन्तु आचार्यों का कहना है कि इस प्रकार से द्रव्यादि से गुणादि का अलग अस्तित्व प्रतीत नहीं हो रहा है इसलिए द्रव्य से गुणादि को भिन्न कहने में वह नैगमनय नहीं रहकर नैगमाभास हो जाता है। |