+ शब्द और अर्थ में संकेत ग्रहण का अभाव होने से शब्द के भेद से अर्थ में भेद कैसे हो सकता है ? प्रत्यक्ष से संकेत का ग्रहण होने पर भी वह व्यवहार में उपयोगी नहीं है क्योंकि गृहीत और संकेत उसी समय नष्ट हो जाते हैं। स्मृति भी संकेत को विषय नहीं करती है क्योंकि वे दोनों अतीत हो चुके हैं। इस प्रकार सौगत की आशंका का निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं -
अक्षबुद्धिरतीतार्थं वेत्ति चेन्न कुत: स्मृति:॥
प्रतिभासभिदैकार्थे दूरासन्नाक्षबुद्धिवत्॥15॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[चेत् अक्षधी:] यदि इंद्रियज्ञान [अतीतार्थं] अतीत अर्थ को [वेत्ति] जानता है तब तो [दूरासन्नार्थबुद्धिवत्] दूर और निकटवर्ती पदार्थ के ज्ञान के समान [एकार्थे] एक विषय में [प्रतिभासमिदा] प्रतिभास के भेद से [स्मृति: कुत: न] स्मृति ज्ञान प्रमाण कैसे नहीं होगा ?॥१५॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-सौगत के मत में विषय को ज्ञान का कारण माना है और कार्य के क्षण से पूर्व क्षणवर्ती को कारण कहते हैं। इस प्रकार से यदि ज्ञान अतीत अर्थ अर्थात् स्वकारणभूत शब्द और वाच्य को जानता है तब किस कारण से स्मृति भी अतीत अर्थ को नहीं जानती है ? अपितु जानती ही है।

शंका-इस प्रकार से तो स्मृति को प्रमाणता कैसे है क्योंकि वह तो गृहीत को ग्रहण करने वाली है ?

समाधान-एक-अभिन्न अतीतपने रूप विशेषता से रहित होने से साधारण जो शब्दार्थ लक्षण वाला विषय है वह अर्थ कहलाता है उस एक अर्थ में भी अतीताकार को परामर्श करने वाले प्रतिभास के भेद से वह स्मृति प्रमाण है।

प्रत्यक्ष से ही जो ‘यह’ इस प्रकार से अनुभव में आता है वही कालांतर में पुन: ‘तत्-वह’ इस आकार से स्मृतिज्ञान के द्वारा विषय किया जाता है। जैसे-दूर और निकटवर्ती पदार्थ का ज्ञान अर्थात् जिस प्रकार से दूरवर्ती वृक्ष में प्रत्यक्ष ज्ञान अस्पष्ट होता है और निकटवर्ती वृक्ष में स्पष्ट होता है। जैसे-दूर और निकटवर्ती वृक्षादि में प्रत्यक्ष ज्ञान अस्पष्ट और स्पष्ट प्रतिभास के भेद से प्रमाण है उसी प्रकार से स्मृति भी प्रमाण है यह अर्थ हुआ है।