+ शब्द और अर्थ में संबंध का अभाव होने से शब्द की प्रमाणता कैसे होगी ? कि जिससे उसके विषय में शब्दादिक नय समीचीन होवें ? ऐसी आशंका का निराकरण करते हुए आचार्य कहते है -
अक्षशब्दार्थविज्ञानमविसंवादत: समं।
अस्पष्टं शब्दविज्ञानं प्रमाणमनुमानवत्॥16॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[अक्षशब्दार्थविज्ञानं] इंद्रिय से होने वाला अर्थ का ज्ञान और शब्द से होने वाला अर्थ का ज्ञान [अविसंवादत:] ये दोनों अविसंवाद की अपेक्षा से [समं] समान हैं, [शब्दज्ञानं] शब्दज्ञान [अनुमानवत्] अनुमान के समान [अस्पष्टं] अस्पष्ट [प्रमाणं] प्रमाण है॥१६॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-अक्षार्थ विज्ञान और शब्दार्थ विज्ञान समान प्रमाण है। अक्ष अर्थात् इंद्रिय, शब्द अर्थात् वर्ण पदवाक्यात्मक ध्वनि। अर्थ अर्थात् सामान्य विशेषात्मक वस्तु अर्थात् इंद्रिय से होने वाला वस्तु का ज्ञान और शब्द से होने वाला वस्तु का ज्ञान दोनों ही समान प्रमाण हैं। ये दोनों ही वि-विशिष्ट हैं अर्थात् संशयादि से रहित हैं और ये अविसंवादी हैं अर्थात् अर्थक्रिया में व्यभिचरित नहीं होते हैं। जैसे-इंद्रिय से उत्पन्न हुआ अर्थज्ञान अविसंवादी होने से प्रमाण है वैसे ही शब्द से उत्पन्न होने वाला अर्थज्ञान भी अविसंवादी होने से प्रमाण है, ऐसा अर्थ हुआ।

अनाप्त के वचन से उत्पन्न हुआ ज्ञान अर्थक्रिया में विसंवादी होने से अप्रमाण है, इसी प्रकार आप्त के वचन से उत्पन्न हुए ज्ञान को अप्रमाण कहना शक्य नहीं है क्योंकि इन्द्रियज्ञान में भी कहीं पर विसंवाद देखा जाता है और एक जगह विसंवाद देखकर सभी जगह अप्रमाणीक कहने पर तो सर्वत्र ही अप्रमाणता की आशंका बनी रहेगी।

शंका-इंद्रियज्ञान प्रमाण है क्योंकि वह स्पष्ट है, शब्द ज्ञान-आगमज्ञान प्रमाण नहीं है क्योंकि वह अस्पष्ट है ?

समाधान-अस्पष्ट-अविशद भी शब्दज्ञान को प्रमाण मानना चाहिए क्योंकि वह अविसंवादी है। कारण कि अविसंवाद हेतु ही प्रमाणता को घोषित करता है। स्पष्टता अथवा अस्पष्टता प्रमाणता और अप्रमाणता में निमित्त नहीं है क्योंकि इन प्रमाणता और अप्रमाणता में अविसंवाद और विसंवाद ही निमित्त है। जैसे-अनुमानज्ञान अस्पष्ट होते हुए भी विसंवाद का अभाव होने से प्रमाण माना जाता है। उसी प्रकार शब्द से होने वाला आगम ज्ञान भी भले ही अस्पष्ट हो किन्तु उसे प्रमाण मानना चाहिए क्योंकि वह भी अविसंवादी है। यह अविसंवादी हेतु दोनों जगह समान ही है।