+ अब पहले कहे गये भी नैगम आदि नयों को मंदमति वाले शिष्यों के अनुग्रह के लिए पुन: कहने की इच्छा रखते हुए पहले नैगम और नैगमाभास का निरूपण करते हैं -
गुणप्रधानभावेन धर्मयोरेकधर्मिणि ॥
विवक्षा नैगमोऽत्यंतभेदोक्ति: स्यात्तदाकृति:॥18॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[धर्मयो:] एकत्व-अनेकत्वरूप दो धर्मों को [गुण प्रधान भावेन] गौण तथा प्रधानभाव से [एकधर्मिणि] एक धर्मी में [विवक्षा] कहने की इच्छा [नैगम:] नैगमनय है और [अत्यंतभेदोक्ति:] दोनों धर्मों में अत्यंत भेद का कथन करना [तदाकृति: स्यात्] नैगमाभास होता है॥१८॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-एकत्व और अनेकत्व ऐसे दो धर्मों को गौण और प्रधान भाव से अर्थात् मुख्य और अमुख्य भाव से एक-अभिन्न, धर्मी-द्रव्य में। कहने का जो अभिप्राय है वह नैगमनय है और अत्यंत रूप से भेद का कथन करना, अत्यंत-निरपेक्षरूप से नानात्व का जो कथन है, ऐसा जो नैयायिक आदि जनों का अभिप्राय नैगमाभास कहलाता है, यहाँ वह अर्थ हुआ है।