अभयचन्द्रसूरि :
तात्पर्यवृत्ति-एकत्व और अनेकत्व ऐसे दो धर्मों को गौण और प्रधान भाव से अर्थात् मुख्य और अमुख्य भाव से एक-अभिन्न, धर्मी-द्रव्य में। कहने का जो अभिप्राय है वह नैगमनय है और अत्यंत रूप से भेद का कथन करना, अत्यंत-निरपेक्षरूप से नानात्व का जो कथन है, ऐसा जो नैयायिक आदि जनों का अभिप्राय नैगमाभास कहलाता है, यहाँ वह अर्थ हुआ है। |