+ अब नय के भेदों को कहते हैं -
श्रुतभेदा नया: सप्त नैगमादिप्रभेदत:॥
द्रव्यपर्यायमूलास्ते द्रव्यमेकान्वयानुगं॥16॥
निश्चयात्मकमन्योऽपि व्यतिरेकपृथक्त्वग:॥
निश्चयव्यवहारौ तु द्रव्यपर्यायमाश्रितौ॥17॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[श्रुतभेदा: नया:] श्रुतज्ञान के भेद नय हैं, वे [नैगमादिप्रभेदत:] नैगम आदि के भेद से [सप्त] सात हैं, [ते द्रव्य पर्याय मूला:] वे द्रव्य और पर्यायमूलक हैं। [एकं अन्वयानुगं द्रव्यं] एक और अन्वय का अनुसरण करने वाला द्रव्य है, [निश्चयात्मकं] वह निश्चय स्वरूप है और [अन्य: अपि] अन्य पर्याय भी [व्यतिरेक पृथक्त्वग:] व्यतिरेक तथा पृथक्त्व का अनुसरण करने वाली है। [निश्चय व्यवहारौ तु] निश्चय और व्यवहार तो [द्रव्यपर्यायमाश्रितौ] द्रव्य और पर्याय का आश्रय लेने वाले हैं॥१६-१७॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-वे पूर्वोक्त लक्षण वाले नय होते हैं, वे श्रुत-सकलादेशरूप आगम के भेदरूप हैं इसलिए वे विकलादेश कहलाते हैं। वे नैगम, संग्रह अदि प्रभेदों का आश्रय लेकर सात हो जाते हैं। वे द्रव्य और पर्याय को विषय करने वाले होने से द्रव्य पर्यायमूलक हैं।

(द्रव्य का स्वरूप)

द्रव्य सामान्य होता है, वह एक और अन्वय को अनुसरण करता है अर्थात् व्याप्त करता है। उसमेंअर्थ ता सामान्य पूर्वापर पर्याय में व्यापक है वह एकनुग-एक का अनुसरण करने वाला है और सदृश परिणाम लक्षण जो तिर्यक् सामान्य है वह अन्वयानुंग-अन्वय का अनुसरण करता है पुन: वह द्रव्य निश्चयात्मक है-निकल गया है पर्यायांतर का संकर जिससे, ऐसा जो निश्चय-पर्याय, वह जिसके स्वरूप हैं वैसा है अर्थात् पर्यायांतर के मिश्रण से रहित पर्याय स्वरूप है।

और पुन: अन्य पर्याय को विशेष कहते हैं, वह पर्याय व्यतिरेक और पृथक्त्व का अनुसरण करने वाला है, व्यतिरेक और पृथक्त्व को जो प्राप्त करता है, तादात्म्य रूप से परिणत होता है वह वैसा कहलाता है। उसमें एक द्रव्य में क्रम से होने वाली पर्याय को व्यतिरेक कहते हैं और अर्थांतरगत विसदृश परिणाम पृथक्त्व का अनुसरण करने वाला है।

प्रश्न-अन्य शास्त्रों में निश्चय और व्यवहार नयों को प्रतिपादन किया गया है, उनका क्या आलंबन विषय है ?

उत्तर-वे निश्चय और व्यवहार मूलनय हैं, वे द्रव्य और पर्याय का आलंबन लेते हैं अर्थात् निश्चयनय द्रव्य को विषय करता है और व्यवहारनय पर्याय को विषय करता है। द्रव्य का आश्रय लेने वाला निश्चयनय द्रव्यार्थिक कहलाता है तथा पर्यायाश्रित व्यवहारनय पर्यायार्थिक कहलाता है ऐसा अर्थ हुआ है। यहाँ कारिका में द्रव्यपर्यायं ऐसा पद है ‘उसमें’ ‘द्रव्यं च पर्यायश्च तयो: समाहार:’ ऐसा समाहार द्वंद्व समास करने पर नपुंसकलिंग और एकवचन हो जाता है। ऐसा व्याकरण शास्त्र का नियम है।