
सूरि :
तात्पर्यवृत्ति-समस्त-जीव-अजीव विशेष को एकरूप से संग्रह करने वाला-संक्षिप्तरूप से ग्रहण करने से संग्रहनय होता है। प्रश्न-अनेक को संक्षेप से कैसे ग्रहण करता है ? उत्तर-सत् अभेद से अर्थात् सत् सामान्यरूप जो अभेद है उसका आश्रय करके ग्रहण करता है। ‘सत्त्व से भिन्न किंचित भी वस्तु है’ ऐसा कहना शक्य नहीं है क्योंकि विरोध आता है अर्थात् जिसका अस्तित्व ही नहीं है उसको ‘यह है’ ऐसा कैसे कह सकते हैं ? दुर्नय संग्रहाभास है, वह कौन है ? वह ब्रह्मवाद अर्थात् सत्ताद्वैत है। क्यों ? उसके स्वरूप को नहीं प्राप्त करने से अर्थात् उस पर परिकल्पित ब्रह्म का स्वरूप भेद के प्रपंचों से शून्य है और सत्तामात्र है उसकी अप्राप्ति होने से, प्रमाण से प्राप्ति न होने से वह दुर्नय है। वह वास्तव में प्रत्यक्षादि प्रमाण से प्राप्त नहीं किया जाता है क्योंकि वैसी प्रतीति नहीं होती है। |