+ अब व्यवहारनय का निरूपण करते हैं - -
व्यवहारानुकूल्यात्तु प्रमाणानां प्रमाणता॥
नान्यथा बाध्यमानानां ज्ञानानां तत्प्रसंगत:॥20॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[व्यवहारानुकूल्यात्तु] व्यवहार की अनुकूलता से ही [प्रमाणानां] ज्ञानों की [प्रमाणता] प्रमाणता है [अन्यथा न] अन्य प्रकार से नहीं है, [बाध्यमानानां] अन्यथा बाधित होने वाले [ज्ञानानां] ज्ञानों में भी [तत्प्रसंगत:] प्रमाणता का प्रसंग हो जावेगा।।२०।।

  सूरि 

सूरि :

तात्पर्यवृत्ति-प्रमाणपने से स्वीकृत प्रमाणों की प्रमाणता-अविसंवादकता होती है। कैसे ? व्यवहार की अनुकूलता से अर्थात् संग्रह के विषय में भेद करने वाला व्यवहार है, उसकी अनुकूलता-अविसंवाद है उससे ही प्रमाणता है अन्यथा उसमें विसंवाद होने से प्रमाणता नहीं हो सकेगी। नहीं तो बाध्यमान-बाधित होने वाले संशय आदि विसंवादी ज्ञानों में भी प्रमाणता का प्रसंग आ जावेगा अर्थात प्रमाण आरै अप्रमाण की व्यवस्था का कारण होने से व्यवहारनय कहलाता है अन्यथा वह तदाभास कहलाता है, ऐसा अर्थ है।