नाभ्यासस्तादृगस्ति प्रवचनविषयो नैव बुद्धिश्च तादृक।
नोपाध्यायोऽपि शिक्षानियमनसमयस्तादृशोऽस्तीह काले॥
विंâत्वेतन्मे मुनींदुव्रतिपतिचरणाराधनोपात्तपुण्यं।
श्रीमद्भट्टाकलंकप्रकरणविवृतावस्ति सामथ्र्यहेतु:॥1॥
माऽयं मदांध इति चेतसि कोपमाधु-।
र्माधुर्यमेव वहते सुधियां मदुक्ति:॥
किं कामिनीजनमदोत्कटचाटुवाणी।
प्राणेश्वरस्य रसनाटकनर्तकी न॥2॥
तथाऽप्येतत्परीक्षंतां। मदुक्तम् मत्सरोज्झिता:॥
हीनाधिकमभिव्यक्तु। मेते हि निकषोपमा:॥3॥
विरुद्धं दर्शनं यस्य। निह्नवस्तस्य विंâकर:।
तेजोभिर्दुर्निरीक्ष्यं किं। घूकशूकोऽर्वâमृच्छति॥4॥
-अंतिम आशीर्वाद:-
भद्रमस्तु जिनशासनश्रिये। श्रायसैकपदकार्यजन्मने॥
जन्मजन्मकृततापलोपन-। प्रायशुद्धनिजतत्त्ववित्तये॥1॥
अन्वयार्थ : [अर्थ]-न तो मेरा वैसा प्रवचनविषयक अभ्यास है और न वैसी मुझमें बुद्धि है, न इस पंचमकाल में नियमितरूप से आगम की शिक्षा देने वाले उपाध्याय ही हैं किन्तु फिर भी जो मुनीन्दु व्रतियों के स्वामी हैं उनके चरणों की आराधना से उपार्जित किया हुआ ही यह पुण्य है कि जो श्रीमान् भट्टाकलंकदेव के इस लघीयस्त्रय प्रकरण की विवृत्ति-वृत्तिरूप टीका के करने में समर्थवान हेतु है।।१।।
[अर्थ]-‘यह मदांध है’ इस प्रकार से चित्त में क्रोध को मत कीजिए क्योंकि मेरे वचन विद्वानजनों में मधुरता को ही धारण करते हैं। क्या कामिनी स्त्रियों के मद से उत्कट हुए चाटुकर वचन उनके पतिदेव के रस नाटक को नर्तन कराने वाले नहीं होते हैं।।२।।
[भावार्थ]-जैसे स्त्रियों के प्रिय वचन उनके पतिदेवों को मधुर लगते हैं वैसे ही मेरे ये टीका में कहे गये वचन भी विद्वानों को मधुर लगेंगे।
[अर्थ]-फिर भी मत्सरभाव से रहित बुधजन इन मेरे वचनों की परीक्षा करें क्योंकि ये हीनाधिक को प्रगट करने के लिए कसौटी के पत्थर के समान हैं।।३।।
[भावार्थ]-श्री अभयचंद्राचार्य कहते हैं कि जिनके हृदय में मत्सर, ईष्र्या आदि भाव नहीं हैं ऐसे बहुश्रुतज्ञानी इस मेरे ग्रंथ की समीक्षा करें क्योंकि जैसे कसौटी का पत्थर इस सुवर्ण में कितने अंश में अन्य धातु का मिश्रण है या नहीं है इस बात को स्पष्ट बता देता है ऐसे ही यह मेरा ग्रंथ भी हीनाधिक दोषों को स्पष्ट कर देता है अर्थात् यह ग्रंथ हीनाधिक दोषों से रहित, निर्दोष, सरल और संक्षिप्त है और न्याय के क्लिष्ट विषय का प्रतिपादन करने वाला होते हुए भी इसकी सुंदर कथन शैली से विषय मधुर बन गया है।
[अर्थ]-जिनका दर्शन-सिद्धांत विरुद्ध है, निन्हव उनका किंकर है, क्या किरणों से दुर्निरीक्ष्य जिसको देखना कठिन है ऐसे सूर्य को उल्लू का बालक देख सकता है ?।।४।।
[भावार्थ]-जिनका मत स्याद्वाद से विपरीत एकांतरूप है उनका नौकर निन्हव है अर्थात् वे हमेशा सच्चे तत्त्वों का अपलाप किया करते हैं, सो ठीक ही है क्योंकि उल्लू के बच्चे को संख्यातों किरणों से व्याप्त ऐसा तेजस्वी सूर्य नहीं दिख सकता है वैसे ही नयरूपी संख्यातों किरणों से व्याप्त ऐसे स्याद्वादरूपी सूर्य का दर्शन वे एकांतवादी लोग नहीं कर सकते हैं। इस कथन से यहाँ पर अनेकांत की दुर्लभता को बतलाया है।
इस प्रकार से श्री अभयचंद्रसूरिकृत लघीयस्त्रय की स्याद्वादभूषण नामक तात्पर्यवृत्ति टीका में निक्षेप का प्ररूपण करने वाला सप्तम परिच्छेद पूर्ण हुआ।
प्रवचनप्रवेश नामक तृतीय महा अधिकार पूर्ण हुआ।
इस प्रकार से श्री भट्टाकलंकदेव रूपी चंद्रमा से अनुस्मृत लघीयस्त्रय नामक प्रकरण समाप्त हुआ है।
[अंतिम आशीर्वाद]
[श्लोकार्थ]-जन्म-जन्म में किये हुए ताप का लोप करने में प्राय: शुद्ध निजतत्त्व के ज्ञान स्वरूप, मोक्षरूप एक अद्वितीय पद उस पदस्वरूप कार्य को उत्पन्न करने वाली ऐसी जो जिनशासनरूपी लक्ष्मी है उसके लिए भद्र-कल्याण होवे।।१।।
[भावार्थ]-जो जिनशासन भव्यजीवों के जन्म-जन्म के संताप को दूर करने में समर्थ ऐसे शुद्ध आत्मा तत्त्व का बोध कराने वाला है और जो मोक्ष को प्रदान करने वाला है उस जिनशासन का सदा ही कल्याण होवे अथवा वह सदैव हितस्वरूप होता हुआ जयशील रहे।
सूरि