+ अब पुन: परार्थ संपत्ति का निर्देश करते हैं -
प्रवचनपदान्यभ्यस्यार्थांस्तत: परिनिष्ठिता-।
नसकृदवबुद्ध्येद्धाद्बोधाद्बुधो हतसंशय:॥
भगवदकलंकानां स्थानं सुखेन समाश्रित:।
कथयतु शिवं पंथानं व: पदस्य महात्मनां॥6॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[प्रवचनपदानि] प्रवचन के पदों का [अभ्यस्य] अभ्यास करके [तत: परिनिष्ठितान् अर्थान्] उसमें व्यवस्थित अर्थों को [असकृत्] पुन:-पुन: [अवबुध्य] निश्चित करके [हतसंशय:] संशयादि दोषों से रहित [इद्धात् बोधात्] उज्ज्वल बोध से युक्त [बुध:] ज्ञानी [भगवदकलंकानां] भगवान् अकलंक- अर्हंतदेव के [स्थानं समाश्रित:] स्थान को प्राप्त हुए हैं, वे [महात्मनां] सिद्ध आत्माओं के [पदस्य] पद के [शिवं पंथानं] कल्याणकारी मार्ग को [व:] आप लोगों के लिए [सुखेन] तालु आदि के व्यापार के क्लेश से रहित सुखपूर्वक [कथयतु] प्रतिपादित करें।।६।।

  सूरि 

सूरि :

तात्पर्यवृत्ति-बुध-ज्ञानी महात्मा के-संसारी से अतिरिक्त सिद्धात्माओं के पद के शिवमार्ग को-मोक्ष की प्राप्ति के उपाय को आप सभी शिष्यों के लिए प्रतिपादित करें। कैसे प्रतिपादित करें ? सुख से-तालु, ओष्ठपुट, व्यापार के क्लेश के अभाव से। कैसे होते हुए ? त्रिलोक में पूजा के योग्य और दोष-आवरणरूप कलंक से रहित अकलंक हैं ऐसे भगवान् अर्हंतदेव के स्थान को जो प्राप्त हो चुके हैं, न कि क्षणिक स्थान को क्योंकि वहाँ पर उपदेश का अभाव है।

वे कैसे होते हुए इस स्थान को प्राप्त हुए हैं ? संशयरहित होते हुए-यहाँ यह संशय शब्द उपलक्षण मात्र है इसलिए नष्ट हो गये हैं संशय आदि दोष जिनके ऐसे होते हुए। क्या करके नष्ट हुए हैं ? उन प्रवचन पदों में व्यवस्थित जीवादि पदार्थों को ज्ञान से पुन:-पुन: निश्चित करके-ध्या करके। वह ज्ञान कैसा है ? इद्ध-उज्ज्वल है-संकर व्यतिकर से रहित है, मैं-मैं इस रूप प्रकाशमान है।

क्या करके निश्चित करते हैं ? उन प्रवचन पदों का अभ्यास करके पुन:-पुन: उपयोग करके। वे प्रवचनपद कैसे हैं ? प्रकृष्ट पूर्वापर विरोध रहित वचन प्रवचन हैं अथवा प्रकृष्ट पुरुष के वचन प्रवचन हैं, उस प्रवचन के पद ‘सम्यग्दर्शन’ आदि अथवा ‘णमो अरिहंताणं’ इत्यादि हैं।

परमागम के अभ्यास से श्रुतज्ञानरूप परिणत होते हुए, पुन: शुक्लध्यानरूपी अग्नि से दग्ध कर दिया द्रव्य कलंक और भाव कलंक को जिसने ऐसे भगवान सर्वज्ञ अवस्था को प्राप्त हुए हैं वे पर के लिए मोक्षमार्ग के उपदेश में चेष्टा करें-प्रयत्न करें, ऐसा श्रीमान् भट्टाकलंक देव का अभिप्राय है।

भावार्थ-यहाँ पर आचार्यदेव ने प्रवचन के अभ्यास की महत्ता को स्पष्ट किया है। वास्तव में जिनागम के अभ्यास से ही भव्य जीव ज्ञान और वैराग्य शक्ति से अपने आत्मबल को बढ़ा लेते हैं और पुन: दुद्र्धर तपश्चरण आदि का अनुष्ठान करते हुए एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान से परिणत होकर घातिया कर्मों का नाश करके अर्हंत अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं पुन: वे ही हितोपदेशी, वीतरागी और सर्वज्ञ भगवान तीर्थंकर महापुरुष भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हुए असंख्यातों जीवों को संसार समुद्र से पार करने में समर्थ हो जाते हैं। ऐसा परमागम का उपदेश सदैव हमें मोक्षमार्ग का प्रकाश करता रहे।