+ अर्थ-पर्याय के भेद -
अर्थपर्यायास्‍ते द्वेधा स्‍वभावविभावपर्यायभेदात् ॥16॥
अन्वयार्थ : अर्थ-पर्याय स्वभाव-पर्याय और विभाव-पर्याय के भेद से दो प्रकार की है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

स्‍वभाव-पर्याय सर्व-द्रव्‍यों में होती है किन्‍तु विभाव-पर्याय जीव और पुद्गल इन दो द्रव्‍यों में ही होती है, क्‍योंकि ये दो द्रव्‍य ही बंघ अवस्‍था को प्राप्‍त होते हैं ।

सब्‍भावं खु विहावं दव्‍वाणं पज्‍जयं जिणुद्दिट्ठं ।
सव्‍वेसिं च सहावं विब्‍भावं जीवपोग्गलाणं च ॥१८॥
दव्‍वगुणाण सहावं पज्‍जायं तह विहावदो णेयं ।
जीवे जे वि सहावा ते वि विहावा हु कम्‍मकदा ॥न.च.१९॥
अर्थ – जिनेन्‍द्र देव ने द्रव्‍यों की पर्याय स्‍वभाव और विभाव रूप कहीं है । सब द्रव्‍यों में स्‍वभाव-पर्यायें होती हैं । केवल जीव और पुद्गल द्रव्य में विभाव-पर्यायें भी होतीं हैं । द्रव्‍य और गुणों में स्‍वभाव-पर्याय और विभाव-पर्याय जाननी चाहिए । जीव में जो स्‍वभाव हैं, कर्मकृत होने से वे ही विभाव हो जाते हैं ।

पोग्‍गलद्व्‍वे जो पुण विब्‍भाओ कालपेरिओ होदि ।
सो णिद्धलुक्‍खसहिदो बंधो खलु होइ तस्‍सेव ॥न.च.वृ./२०॥
पुद्गल में विभाव-पर्यायें काल-प्रेरित होती हैं जो स्निग्‍घ व रूक्ष गुण के कारण बंध-रूप होती हैं ।

कम्‍मोपाधिविवज्जिय पज्‍जाया ते सहावमिदि भणिदा ॥नि.सा.१५॥
अर्थ – जो पर्यायें कर्मोपाधि से रहित हैं ये स्‍वभाव-पर्यायें कहीं गईं हैं ।