+ पर्याय और उसके भेद -
गुणविकाराः पर्यायास्‍ते द्वेधा अर्थव्‍यंजनपर्यायभेदात् ॥15॥
अन्वयार्थ : गुणों के विकार को पर्याय कहते हैं । वे पर्यायें दो प्रकार की हैं- अर्थ-पर्याय, व्‍यंजन-पर्याय ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

परिणाम अर्थात् परिणमन को विकार कहते हैं । कहा भी है -

परिणाम अह वियारं ताणं तं पज्‍जयं दुविहं ॥न.च.१७॥
अर्थात् परिणाम या विकार को पर्याय कहते हैं और वे पर्यायें दो प्रकार की हैं ।

गुणद्वारेणान्वयरूपाया एकत्वप्रतिपत्तेर्निबन्धनं कारणभूतो गुणपर्यायः ॥पं.का./ता.वृ./१६/३६/४॥
अर्थ – जिन पर्यायों में गुणों के द्वारा अन्वयरूप एकत्व का ज्ञान होता है, उन्हें गुण-पर्याय कहते हैं । जैसे -- वर्ण-गुण की हरी पीली आदि पर्याय होती हैं, हर एक पर्याय में वर्ण-गुण की एकता का ज्ञान है, इससे यह गुण-पर्याय है ।

अर्थ-पर्याय सूक्ष्‍म होती है, क्षण-क्षण में नाश होने वाली तथा वचनों के अगोचर होती है । व्‍यंजन-पर्याय स्‍थूल होती है, चिरकाल तक रहती है, वचन के गोचर तथा छद्मस्‍यों की दृष्टि का विषय भी होती है ।

सुहुमा अवायविसया खणखइणो अत्‍थपज्‍जया दिट्ठा ।
वंजणपज्‍जाया पुण थूला गिरगोयरा चिरविवत्‍था ॥व.श्रा.-२५॥
अर्थ – पर्याय के दो शब्‍द भेद हैं - अर्थ पर्याय और व्‍यंजन पर्याय । इनमें अर्थ-पर्याय सूक्ष्‍म है, ज्ञान का विषय है, शब्‍दों से नहीं कही जा सकती और क्षण-क्षण में नाश होती रहती है । किन्‍तु व्‍यंजन-पर्याय स्‍थूल है, शब्‍दगोचर है अर्थात् शब्‍दों द्वारा कही जा सकती है और चिर-स्थायी है ।

तत्रार्थपर्यायाः सूक्ष्‍माः क्षणक्षयिणस्‍तथाऽवाग्‍गोचरा विषया भ‍वन्ति । व्‍यंजनपर्यायाः पुनः स्‍थूलाश्चिरकालस्‍थायिनो वाग्‍गोचराश्‍छद्मस्‍थदृष्टिविषयाश्‍च भवन्ति । समयवर्तिनोऽर्थपर्याया भण्‍यंते चिरकालस्‍थायिनो व्‍यंजनपर्याया भण्‍यंते इति कालकृतभेदः । ॥पं.का.१६.टी.॥
अर्थ – अर्थ-पर्याय सूक्ष्‍म है, प्रतिक्षण नाश होने वाली है तथा वचन के अगोचर है । और व्‍यंजन-पर्याय स्‍थूल होती है, चिरकाल तक रहने वाली, वचनगोचर व अल्‍पज्ञानी को दृष्टिगोचर भी होती है । अर्थ-पर्याय और व्‍यंजन-पर्यायों में कालकृत भेद है क्‍योंकि समयवर्ती अर्थ-पर्याय है और चिरकाल स्‍थायी व्‍यंजन पर्याय है ।

मूर्तो व्‍यंजनपर्यायो वाग्‍गम्‍योऽनश्‍वरः स्थिरः ।
सूक्ष्‍मः प्रतिक्षणध्‍वंसी पर्यायश्‍चार्थसंज्ञिकः ॥ज्ञानार्णव-६/४४॥
अर्थ – व्‍यंजन-पर्याय मूर्तिक है, वचन के गोचर है, अनश्‍वर है, स्थिर है और अर्थ-पर्याय सूक्ष्‍म है, क्षणविध्‍वंसी है ।

द्रव्‍य-पर्यायें और गुण-पर्यायें दोनों ही अर्थ-पर्याय और व्‍यंजन-पर्याय के भेद से दो-दो प्रकार की होती है ।

यतरे च विशेषांस्ततरे गुणपर्यया भवन्त्येव ॥पं.ध./पू./१३५॥
अर्थ – जितने गुण के अंश हैं, उतने वे सब गुण-पर्याय ही कहे जाते हैं ।

एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्यायाः गुणपर्यायाणामेक-द्रव्यत्वात्। एकद्रव्यत्वं हि तेषां सहकारफलवत् ॥प्र.सा./त.प्र./१०५॥
अर्थ – गुणपर्यायें एक-द्रव्य पर्यायें हैं, क्योंकि गुण-पर्यायों को एक-द्रव्यत्व है तथा वह द्रव्यत्व आम्रफल की भाँति हैं ।

इन पर्यायों का कथन सूत्रकार स्‍वयं करेंगे ।