मुख्तार :
मिथ्यात्व कषाय आदि रूप जीव के परिणामों में कर्मोदय के कारण जो प्रति समय हानि या वृद्धि होती रहती है, वह विभाव अर्थ-पर्याय है । यह हानि या वृद्धि अनन्तवें भाग आदि रूप षट्स्थान-गत ही होगी, क्योंकि कोई भी हानि या वृद्धि इन छ: स्थानों से बाहर नहीं हो सकती, इन छ: स्थानों के अन्तर्गत ही होती है । श्री जयसेन-आचार्य ने भी जीव की अशुद्ध-पर्याय का कथन करते हुए लिखा है - अशुद्धार्थपर्याया जीवस्य षट्स्थानगतकषायहानिवृद्धि विशुद्धि-संक्लेशरूपशुभाशुभलेश्यास्थानेषु ज्ञातव्या: ॥पं.का.१६.टी.॥
अर्थ – कषायों की षट्स्थानगत हानि वृद्धि होने से विशुद्ध या संक्लेश रूप शुभ-अशुभ लेश्याओं के स्थानों में जीव की अशुद्ध (विभाव) अर्थ-पर्यायें जाननी चाहिये ।पुद्गलस्य विभावार्थपर्याया द्वयणुकादिस्कंधेषु वर्णान्तरादि-परिणमनरूपा: ॥पं.का.१६.टी.॥
अर्थ – द्वि-अणुक आदिक स्कंधों में वर्णादि से अन्य वर्णादि होने रूप पुद्गल की विभाव अर्थ-पर्यायें हैं । इस प्रकार जीव के लेश्यारूप परिणामों में और पुद्गल-स्कंधों के वर्णादि में जो प्रतिक्षण परिणमन होता है वह विभावार्थ पर्याय है । ॥ इति अर्थ पर्याय ॥
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