+ जीव की विभाव अर्थ-पर्याय -
विभावार्थपर्याया: षड्विधा: मिथ्‍यात्‍व-कषाय-राग-द्वेष-पुण्‍य-पापरूपाऽध्‍यवसाया: ॥18॥
अन्वयार्थ : विभावअर्थपर्याय छ: प्रकार की है १ मिथ्‍यात्‍व २ कषाय ३ राग ४ द्वेष ५ पुण्‍य और ६ पाप । ये छ: अव्‍यवसाय विभाव अर्थ-पर्यायें हैं ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

मिथ्‍यात्‍व कषाय आदि रूप जीव के परिणामों में कर्मोदय के कारण जो प्रति समय हानि या वृद्धि होती रहती है, वह विभाव अर्थ-पर्याय है । यह हानि या वृद्धि अनन्‍तवें भाग आदि रूप षट्स्‍थान-गत ही होगी, क्‍योंकि कोई भी हानि या वृद्धि इन छ: स्‍थानों से बाहर नहीं हो सकती, इन छ: स्‍थानों के अन्‍तर्गत ही होती है । श्री जयसेन-आचार्य ने भी जीव की अशुद्ध-पर्याय का कथन करते हुए लिखा है -

अशुद्धार्थपर्याया जीवस्‍य षट्स्‍थानगतकषायहानिवृद्धि विशुद्धि-संक्‍लेशरूपशुभाशुभलेश्‍यास्‍थानेषु ज्ञातव्‍या: ॥पं.का.१६.टी.॥
अर्थ – कषायों की षट्स्‍थानगत हानि वृद्धि होने से विशुद्ध या संक्‍लेश रूप शुभ-अशुभ लेश्‍याओं के स्‍थानों में जीव की अशुद्ध (विभाव) अर्थ-पर्यायें जाननी चाहिये ।

पुद्गलस्‍य विभावार्थपर्याया द्वयणुकादिस्‍कंधेषु वर्णान्‍तरादि-परिणमनरूपा: ॥पं.का.१६.टी.॥
अर्थ – द्वि-अणुक आदिक स्‍कंधों में वर्णादि से अन्‍य वर्णादि होने रूप पुद्गल की विभाव अर्थ-पर्यायें हैं ।

इस प्रकार जीव के लेश्‍यारूप परिणामों में और पुद्गल-स्कंधों के वर्णादि में जो प्रतिक्षण परिणमन होता है वह विभावार्थ पर्याय है ।

॥ इति अर्थ पर्याय ॥