+ जीव की विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय -
विभावपर्यायाश्‍चतुर्विधा: नरनारकादिपर्याया: अथवा चतुरशीतिलक्षा योनय: ॥19॥
अन्वयार्थ : नर-नारक आदि रूप चार-प्रकार की अथवा चौरासी लाख योनि रूप जीव की विभाव द्रव्‍य-व्‍यंजन-पर्याय है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

जीव और पुद्गलों में ही विभाव पर्यायें होती हैं । द्रव्‍य की व्‍यंजन पर्याय द्रव्‍य-व्‍यंजन-पर्याय है । विभावरूप परिणत द्रव्‍य की व्‍यंजन-पर्याय विभाव-द्रव्‍य-व्‍यंजन-पर्याय है । स्‍वभाव से अन्‍यथारूप होना विभाव है । द्रव्‍य के लक्षण या चिह्र को व्‍यंजन कहते हैं । परिणमन को पर्याय कहते हैं । नारक, तिर्यंच, मनुष्‍य ओर देव, ये चारों जीव की द्रव्‍य पर्यायें हैं, क्‍योंकि ये जीव के किसी गुण की पर्यायें नहीं हैं । ये पर्यायें गति व आयु-कर्मोदय-जनित है और जीव स्‍वभाव का पराभव करके उत्‍पन्‍न होती हैं इसलिये विभाव पर्यायें है । श्री कुन्‍दकुन्‍द आचार्य ने कहा भी है --

कम्‍मं णामसमक्‍खं सभावमध अध्‍यणो सहावेण ।
अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि ॥प्र.सा.११७॥
अर्थ – नाम संज्ञा वाला कर्म अपने स्‍वभाव से जीव के स्‍वभाव का पराभव करके मनुष्‍य, तिर्यंच, नारक अथवा देव पर्यायों को करता है ।

जीवस्‍य भवांतरगतस्‍य शरीरनोकर्मपुद्गलेन सह मनुष्‍यदेवादि-पर्यायोत्‍पत्ति: चेतनजीवस्‍याचेतनपुद्गलद्रव्‍येण सह मेलापकादसमान-जातीय: द्रव्‍यपर्यायो भण्‍यते । एतेसमानजातीया असमानजातीयाश्‍च अनेकद्रव्‍यात्मिकैकरूपा द्रव्‍यपर्याया जीवपुद्गलयोरेव भवन्ति अशुद्धा एव भवन्ति । कस्‍मादिति चेत् ? अनेकद्रव्‍याणां परस्‍परसंश्‍लेषरूपेण सम्‍बन्धात् ॥पं.का.१६.टी.॥
अर्थ – जीव जब दूसरी गति को जाता है तब नवीन शरीररूप नोकर्म पुद्गलों के साथ सम्‍बन्‍ध को प्राप्‍त करता है, उससे मनुष्‍य, देव, तिर्यंच, नारक पर्यायों की उत्‍पत्ति होती है । चेतनरूप जीव के साथ अचेतनरूप पुद्गल के मिलने से जो मनुष्‍यादि पर्याय हुई यह असमानजाति द्रव्‍य-पर्याय है। ये समानजातीय तथा असमानजातीय अनेक द्रव्‍यों की एकरूप द्रव्‍य-पर्यायें पुद्गल और जीव में ही होती हैं । ये अशुद्ध ही होती हैं, क्‍योंकि अनेक द्रव्‍यों के परस्‍पर संश्‍लेष-सम्‍बन्‍ध से उत्‍पन्‍न होती हैं ।