मुख्तार :
जीव और पुद्गलों में ही विभाव पर्यायें होती हैं । द्रव्य की व्यंजन पर्याय द्रव्य-व्यंजन-पर्याय है । विभावरूप परिणत द्रव्य की व्यंजन-पर्याय विभाव-द्रव्य-व्यंजन-पर्याय है । स्वभाव से अन्यथारूप होना विभाव है । द्रव्य के लक्षण या चिह्र को व्यंजन कहते हैं । परिणमन को पर्याय कहते हैं । नारक, तिर्यंच, मनुष्य ओर देव, ये चारों जीव की द्रव्य पर्यायें हैं, क्योंकि ये जीव के किसी गुण की पर्यायें नहीं हैं । ये पर्यायें गति व आयु-कर्मोदय-जनित है और जीव स्वभाव का पराभव करके उत्पन्न होती हैं इसलिये विभाव पर्यायें है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है -- कम्मं णामसमक्खं सभावमध अध्यणो सहावेण ।
अर्थ – नाम संज्ञा वाला कर्म अपने स्वभाव से जीव के स्वभाव का पराभव करके मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देव पर्यायों को करता है ।अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि ॥प्र.सा.११७॥ जीवस्य भवांतरगतस्य शरीरनोकर्मपुद्गलेन सह मनुष्यदेवादि-पर्यायोत्पत्ति: चेतनजीवस्याचेतनपुद्गलद्रव्येण सह मेलापकादसमान-जातीय: द्रव्यपर्यायो भण्यते । एतेसमानजातीया असमानजातीयाश्च अनेकद्रव्यात्मिकैकरूपा द्रव्यपर्याया जीवपुद्गलयोरेव भवन्ति अशुद्धा एव भवन्ति । कस्मादिति चेत् ? अनेकद्रव्याणां परस्परसंश्लेषरूपेण सम्बन्धात् ॥पं.का.१६.टी.॥
अर्थ – जीव जब दूसरी गति को जाता है तब नवीन शरीररूप नोकर्म पुद्गलों के साथ सम्बन्ध को प्राप्त करता है, उससे मनुष्य, देव, तिर्यंच, नारक पर्यायों की उत्पत्ति होती है । चेतनरूप जीव के साथ अचेतनरूप पुद्गल के मिलने से जो मनुष्यादि पर्याय हुई यह असमानजाति द्रव्य-पर्याय है। ये समानजातीय तथा असमानजातीय अनेक द्रव्यों की एकरूप द्रव्य-पर्यायें पुद्गल और जीव में ही होती हैं । ये अशुद्ध ही होती हैं, क्योंकि अनेक द्रव्यों के परस्पर संश्लेष-सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं ।
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