+ प्रमाण का लक्षण -
सम्‍यग्‍ज्ञानं प्रमाणम् ॥34॥
अन्वयार्थ : सम्‍यग्‍ज्ञान को प्रमाण कहते हैं ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

संशय, विपर्यय और अनध्‍यवसाय से रहित ज्ञान को सम्‍यग्‍ज्ञान कहते हैं । समीचीन ज्ञान को सम्‍यग्‍ज्ञान कहते हैं ।

अन्‍यूनमनतिरिक्‍तं याथातत्थ्‍यं विना च विपरीतात् ।
निःसन्‍देहं वेद: यदाहुस्‍तज्‍ज्ञानमागमिनः ॥र.क.श्रा.४२॥
अर्थ – जो ज्ञान न्‍यूनता रहित, अधिकता रहित, विपरीतता रहित और सन्‍देह रहित, जैसा का तैसा जानता है, शास्‍त्र के ज्ञाता पुरूष उसको सम्‍यक्ज्ञान कहते हैं ।

  • अनादि को सादि रूप जानना,
  • अनन्‍त (अन्‍त रहित) को सान्‍त रूप जानना,
  • अविद्यमान पर्याय को विद्यमान रूप से जानना,
  • अभाव रूप पर्यायों को सद्भाव रूप से जानना,
  • अनियत को नियत रूप जानना
सम्‍यग्‍ज्ञान नहीं है, क्‍योंकि उसने यथार्थ नहीं जाना है ।