मुख्तार :
अवधि का अर्थ मर्यादा या सीमा है । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिये हुए ज्ञान है वह अवधिज्ञान है । कहा भी है -- अवधिर्मर्यादा सीमेत्यर्थः । अवधिसहचरितं ज्ञानअवधिः । अवधिश्च सः ज्ञानं च तदवधिज्ञानम् । नातिव्याप्तिः रूढिबलाधानवशेन क्वचिदेव ज्ञाने तस्यावघिशब्दस्य प्रवृत्तेः । किमठ्ंट तत्थ आहिसद्दो परूविदो ? ण; एदम्हादो हेठ्टिमसव्वणाणाणि सावहियाणि उवरिमणाणं णिरवहियमिदि जाणावणठ्टं । ण मणपज्जवणाणेण वियहिचारो; तस्स वि अवहिणाणादो अप्पविसयत्तेण हेठ्टिमतब्भुव गमादो । पश्रोगस्स पुण ठ्टणविवज्जासो संजमसहगयत्तेण कयवि-मेसपदुप्पाणफलोत्ति ण कोच्छि दोसो । ॥ज.ध.१/१७॥
अर्थ – अवधि, मर्यादा और सीमा ये शब्द एकार्थवाची हैं । अवधि से सहचरित ज्ञान भी अवधि कहलाता है इस प्रकार अवधिरूप जो ज्ञान है वह अवधिज्ञान है । यदि कहा जाय कि अवधिज्ञान का लक्षण इस प्रकार करने पर मतिज्ञान अलक्ष्यों में यह लक्षण चला जाता है, इसलिये अतिव्याप्ति दोष प्राप्त होता है, सो ऐसा नहीं है, क्योंकि रुढि़ की मुख्यता से किसी एक ही ज्ञान में अवधि शब्द की प्रवृत्ति होती है । अवधिज्ञान से नीचे के सभी ज्ञान सावधि हैं और ऊपर का केवलज्ञान निअवधि है, इस बात का ज्ञान कराने के लिये अवधिज्ञान में अवधि शब्द का प्रयोग किया है । यदि वहा जाय कि इस प्रकार का कथन करने पर मनःपर्ययज्ञान से व्यभिचार दोष आता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि मनःपर्ययज्ञान से भी अवधिज्ञान से अल्प विषय वाला है, इसलिये विषय की अपेक्षा उसे अवधिज्ञान से नीचे का स्वीकार किया है । फिर भी संयम के साथ रहने के कारण मनःपर्ययज्ञान में जो विशेषता आती है उस विशेषता को दिखलाने के लिये मनःपर्ययज्ञान को अवधिज्ञान से नीचे न रखकर ऊपर रखा है, इसलिये कोई दोष नहीं है | वह अवधिज्ञान तीन प्रकार का है- देशाविघ, परमावधि और सर्वावधि । अथवा दो प्रकार का है -- भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । अथवा छह प्रकार का है – हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी और अननुगामी ।अवधिज्ञान का विषय रूपी पदार्थ है । कहा भी है- रूपिष्ववधे: ॥त.सू.१/२७॥
इसलिये अवधिज्ञान पुद्गल द्रव्य और संसारी जीव को जानता है । कहा भी है -- परमाणुपज्जंतासेसपोग्गलदव्वाणमसंखेज्जलोगमेत्तखेत्त कालभा-वाणं कम्मसंबंधवसेण पोग्गलभावमुवगयजीवदव्वणं च पञ्चक्खेण परिच्छित्तिं कुणइ ओहिणाणं ॥ज.ध.१/४३॥
अर्थ – महास्कंध से लेकर परमाणु पर्यन्त समस्त पुद्गल द्रव्यों को असंख्यात-लोकप्रमाण क्षेत्र को, असंख्यात-लोकप्रमाण काल की और असंख्यात-लोकप्रमाण भावों को तथा कर्म के सम्बन्ध से पुद्गल भाव की प्राप्त हुए जीवों को जो प्रत्यक्ष रूप से जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं ।गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५९२ में 'रूपी जीवा' शब्दों द्वारा संसारी को रूपी कहा है तथा २१ स्वभावों में जीव के मूर्त-स्वभाव कहा है इसलिए संसारी जीव अवधिज्ञान का विषय बन जाता है । धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश-द्रव्य, काल-द्रव्य और सिद्ध-जीव ये अवधि-ज्ञान के विषय नहीं हैं । (ध.१५/७व३२) णेरइयदेवतित्थयरोहिक्खेतरसबाहिरं एदे ।
अर्थ – नारकी, देव और तीर्थकर का अवधिज्ञान सर्वांग से जानता है और शेष जीवों का अवधिज्ञान शरीर के एकदेश से जानता है ।जाणंति सव्वदो खलु सेसा देसेण जाणंति ॥ध.१३/२९५॥ मनःपर्ययज्ञान -- परकीयमनोगतोऽर्थो मनः, मनसः पर्यायाः विशेषाः मनःपर्यायाः, तान् जानातीति मनःपर्ययज्ञानम् ।.......एद्ं वयणं देसामासिथं । कुदो ? अचिंतियाणमद्धचिंतियाणं च अत्थाणमवग-मादो । अथवा मणपज्जवसण्णा जेण रूढिभवा तेण चिंतिए वि अचिंतिए वि अत्थे वट्टमाणणाणविसया त्ति घेत्तव्वा । ओहिणाणं व एद्ं पि पच्चक्खं, अर्णिदियजत्तादो ॥ध.१३/२१२॥
अर्थ – परकीय मन को प्राप्त हुए अर्थ का नाम मन है और मन की (मनोगतअर्थ की) पर्यायों अर्थात् विशेषों का नाम मनःपर्यय है । उन्हें जो जानता है वह मनःपर्यय ज्ञान है । यह वचन देशामर्षक है, क्योंकि इससे अचिन्तित्त और अर्धचिन्तित्त अर्थो का भी ज्ञान होता है । अथवा मनःपर्यय’यह संज्ञा रुढि़जन्य है, इसलिये चिन्तित्त और अचिन्तित्त दोनों प्रकार के अर्थ में विद्यमान ज्ञान को विषय करने वाली यह संज्ञा है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अवधिज्ञान के समान यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है, क्योंकि यह इन्द्रियों से नहीं उत्पन्न होता ।ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥त.सू.१/२३॥
अर्थ – ऋजुमति और विपुलमति के भेद से मनःपर्यय ज्ञान दो प्रकार का है । ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान ऋजुमनोगत अर्थ को विषय करता है, ऋजु-वचनगत अर्थ को विषय करता है और ऋजुकायगत अर्थ को विषय करता है (ध.१३/३२९सू६२) । विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान ऋजुमनोगत अर्थ को जानता है, अनृजुमनोगत अर्थ को जानता है, ऋजुवचनगत अर्थ को जानता है, अनृजुवचनगत अर्थ को जानता है, ऋजुकायगत अर्थ को जानता है, और ऋनृजुकायगत अर्थ को जानता है । (ध.१३सू.७०/३४०)ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानी काल की अपेक्षा जघन्य से दो-तीन भव और उत्कर्ष से सात और आठ भवों को जानता है, क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से आठ-कोस भीतर की बात और उत्कर्ष से आठ-योजन के भीतर की बात जानता है, बाहर की नहीं जानता । (ध.१३/३३८-३३९) विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान काल की अपेक्षा जघन्य से सात आठ भवों और उत्कर्ष से असंख्यात भवों को जानता है, क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से आठ योजन और उत्कर्ष से मानुषोतरशैल अर्थात् ४५ लाख योजन के भीतर की बात को जानता है। (ध.१३/३४२-३४३) |