मुख्तार :
चार घाति-कर्मो का क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है । कहा भी है - मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम् ॥त.सू.१०/१॥
अर्थ – मोहनीय कर्म के क्षय होने से, पुनः ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घाति कर्मों का युगपत् क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है । उस केवलज्ञान का विषय मूर्त-अमूर्त आदि सर्वद्रव्य और उनकी भूत-भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल की सर्व पर्यायें है । कहा भी है --सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥त.सू.१/२९॥
अर्थ – केवलज्ञान का विषय सर्व-द्रव्य और सर्व-पर्यायें हैं ।तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं ।
अर्थ – उन जीवादि समस्त द्रव्यों की सर्व विद्यमान पर्यायों को और अविद्यमान पर्यायों को तात्कालिक अर्थात् वर्तमान पर्याय की तरह विशेषता सहित ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान जानता है ।वट्टन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं ॥प्र.सा.३७॥ इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने इसका टृष्टान्त देते हुए कहा है - दृश्यते हि छद्मस्थस्यापि वर्तमानमिव व्यतीतमनागतं वा वस्तु चिन्तयतः संविदालंबितस्तदाकारः ॥प्र.सा.३७.टी॥
अर्थ – जगत में देखा जाता है कि छद्मस्थों का ज्ञान भी जैसे वर्तमान वस्तु का चिंत्तवन करते हुए उसके आकार का अवलम्बन करता है उसी प्रकार भूत और भविष्यत् वस्तु का चिंतवन करते हुए उसके आकार का अवलम्बन करता है ।श्री अनन्तवीर्य आचार्य ने कहा है- कथमतीन्द्रियज्ञानस्य वैशद्यमिति चेत् ? यथा सत्यस्वप्नज्ञानस्य भावनाज्ञानस्य चेति । द्दश्यते दि् भावनावलादेतद् देश: वस्तुजोऽपि विशददर्शनमिति ॥प्र.र.मा.२/१२.टी.
अर्थ – अतीन्द्रिय ज्ञान के विशदता कैसे सम्भव है ? जैसे कि सत्य स्वप्न ज्ञान के और भावना (मानसिक) ज्ञान के विशदता सम्भव है । भावना के बल से दूरदेशवर्ती दूरकालवर्ती (अतीत, अनागत) वस्तु का भी विशद दर्शन पाया जाता है ।अर्थात् जिस प्रकार छद्मस्थ भी भावना का चिंत्तवन के बल से अतीत अनागत पर्यायों को स्पष्ट जान लेता है उसी प्रकार केवली भी केवलज्ञान के बल से अतीत अनागत पर्यायों को स्पष्ट जानते है । किन्तु अतीत और अनागत पर्यायें ज्ञान का विषय हो जाने मात्र से विद्यमान या सद्भाव रूप नहीं हो जातीं, क्योंकि छद्मस्थज्ञान भी और केवलज्ञान भी अविद्यमान (अतीत, अनागत) पर्यायों को अविद्यमान (अभाव) रूप से जानता है, इसका कारण यह है कि द्रव्य में मात्र वर्तमान पर्याय का सद्भाव रहता है और शेष पर्यायों का अभाव अर्थात् प्रागभाव या प्रध्वंसाभाव रहता है । सर्वथा अभाव नहीं है, क्योंकि वे शक्तिरूप से रहती हैं । श्री वीरसेन आचार्य ने जयधवल में केवलज्ञान की निम्न प्रकार विशद व्याख्या की है- केवलमसहायं इन्द्रियालेाकमनस्कारनिरपेक्षत्वात् । आत्मसहाय-सिति न तत्केवलमिति चेत् ? न, ज्ञानव्यतिरिक्तात्मनोऽसत्त्वात्त् । अर्थ – सहायत्वान्न केवलमिति चेत् ? न, विनष्टानुत्पन्नातीतानागतार्थेष्वपि तत् प्रवृत्त्युपलम्भात् । असति प्रवृत्तौ खरविषाणेऽपि प्रवृत्तिरस्त्विति चेत् ? न, तस्य भूतभविष्यच्छत्तिःरूपतयाऽप्यसत्त्वात् । वर्तमानपर्या--याणामेव किमित्यर्थत्वमिष्यत; इति चेत् ? न, 'अर्यते परिच्छिद्यते' इति न्यायतस्तत्रार्थत्वोपलम्भात् । तदनागतातीतपर्यायेष्वपि समान-मिति चेत् ? न, तद् ग्रहणस्य वर्तमानार्थप्रहणपूर्वकत्वात् । आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम् । केवलं च तव्ज्ञानं च केवलज्ञानम् ॥ज.ध.१/२१-२३॥
अर्थ – असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार की अपेक्षा से रहित है ।शंका – केवलज्ञान आत्मा की सहायता से होता है, इसलिये उसे केवल अर्थात् असहाय नहीं कह सकते ? समाधान – नहीं, क्योंकि ज्ञान से भिन्न आत्मा का सत्व नहीं है, इसलिये केवलज्ञान असहाय है । शंका – केवलज्ञान अर्थ की सहायता लेकर प्रवृत्त होता है इसलिये केवल अर्थात् असहाय नहीं है ? समाधान – नहीं, नष्ट हुए अतीत पदार्थों में और अनुत्पन्न अनागत पदार्थों में केवलज्ञान की प्रवृत्ति पाई जाती है, इसलिये केवलज्ञान अर्थ की सहायता से नहीं होता । शंका – यदि विनष्ट और अनुत्पन्नरूप असत् पदार्थों में केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है तो खरविषाण में भी उसकी प्रवृत्ति होनी चाहिये ? समाधान – नहीं, क्योंकि खरविषाण का जिस प्रकार वर्तमान में सत्व नहीं पाया जाता है, उसी प्रकार उसका भूतशक्ति और भविष्यत्शति:रूप से भी सत्त्व नहीं पाया जाता, अतः उसमें केवलज्ञान की प्रवृत्ति नहीं होती है । शंका – वर्तमान पर्यायों को ही अर्थ क्यों स्वीकार किया जाता है ? अर्थात् अतीत और अनागत पर्यायों को अर्थ क्यों नहीं माना जाता ? समाधान – नहीं, क्योंकि 'जो जाना जाता है उसको अर्थ कहते है' इस व्युत्पत्ति के अनुसार वर्तमान पर्यायों में अर्थपना पाया जाता है । शंका – वर्तमान पर्याय के समान अतीत और अनागत पर्यायों में भी यह व्युत्पत्ति-अर्थ पाया जाता है अर्थात् जिस प्रकार वर्तमान पर्यायें जानी जाती हैं उसी प्रकार अतीत और अनागत पर्यायें भी जानी जाती हैं, अतः अतीत और अनागत पर्यायों को भी अर्थ कहना चाहिये ? समाधान – नहीं, क्योंकि अतीत और अनागत पर्यायों का ग्रहण (ज्ञान) वर्तमान अर्थ के ग्रहण पूर्वक होता है इसलिये अतीत, अनागत पर्यायों की 'अर्थ' संज्ञा स्वीकार नहीं की गई । केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त इन्द्रियादि की सहायता की अपेक्षा से रहित है, इसलिये भी वह केवल अर्थात् असहाय है । केवल अर्थात् असहाय जो ज्ञान है उसको केवलज्ञान समझना चाहिये । (ज.ध.१/२१-२४) जिस प्रकार से वर्तमान पर्याय की 'अर्थ' संज्ञा है यदि उसी प्रकार अतीत और अनागत पदार्थों की भी 'अर्थ' संज्ञा होती तो ज्ञेयों के परिणमन के कारण केवलज्ञान में परिणमन सम्भव नहीं हो सकता था । ज्ञेयों के परिणमन अनुसार केवलज्ञान में भी परिणमन होता है यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि निम्न आर्षवाक्यों से यह सिद्ध है - ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिणमन्ति तथा ज्ञानमपि परि-च्छित्त्यपेक्षया भग्ङत्रयेण परिणमति ॥प्र.सा.८-टी.
अर्थ – जिस प्रकार ज्ञेय पदार्थों में प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होता रहता है उसी के अनुसार केवलज्ञान में भी जानने की अपेक्षा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होता रहता है ।येन येनोत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण प्रतिक्षणं ज्ञेयपदार्थाः परिणमन्ति तत्परिच्छित्त्याकारेणानीहितवृत्त्या सिद्धज्ञानमपि परिणमति तेन कारणेनोत्पादव्ययन्वम् ॥वृ.द्र.सं.१४.टी.॥
अर्थ – ज्ञेय पदार्थ जिस जिस प्रकार उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप से प्रतिक्षण परिणमन करते हैं, उसी उसी प्रकार से सिद्धों का केवलज्ञान भी उन उन ज्ञेय- पदार्थों के जानने रूप आकार से विना इच्छा परिणमन करता है ।ण च णाणविसेसदुवारेण उप्पज्जमाणम्स केवलणाणंसस्स केवल-णाणत्तं फिट्टदिः, पमेयवसेण परियतमाणसिद्धजीवणाणंसाणं पि केवलणाणत्ताभावप्पसंगादो । ॥ज.ध.१/५०-५१॥
अर्थ – यदि कहा जाय कि केवलज्ञान का अंश ज्ञानविशेष रूप से उत्पन्न होता है, इसलिये उसका केवज्ञानत्व हो नष्ट हो जाता है, तो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर पमेप के पिमित से परिवर्तन करने वाले सिद्धजीवों के ज्ञानांशो को भी केवलज्ञान के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । अर्थात् यदि केवलज्ञान के अंश मतिज्ञानादि ज्ञानविशेष रूप से उत्पन्न होते हैं, इसलिये उनमें केवलज्ञान नहीं माना जा सकता है तो प्रमेयों के निमित्त से सिद्धजीवों के ज्ञान में परिवर्तन होता है, अतः सिद्धों का ज्ञान भी केवलज्ञान नहीं बनेगा ।प्रतिक्षणं विवर्तमानानर्थानपरिणामि केवलं कथं परिछिनत्तीति चेत्र, ज्ञेयसमविपरिवर्तिनः केवलस्य तद् विरोधात् ॥ध.१/१९८॥
अर्थ – अपरिवर्तनशील केवलज्ञान प्रत्येक क्षण में परिवर्तनशील पदार्थों को कैसे जानता है ? ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञेय पदार्थों को जानने के लिये तदनुकूल परिवर्तन करने वाले केवलज्ञान के ऐसे परिवर्तन मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है ।इस प्रकार जो पर्यायें प्रतिक्षण उत्पन्न होती हैं उनको केवलज्ञान सद्भाव रूप से जानता है । और जो उत्पन्न होकर विनष्ट हो चुकी हैं या उत्पन्न नहीं हुई हैं उनको अभाव रूप से जानता है अन्यया ज्ञेयों के परिणमन के अनुकूल केवलज्ञान में परिणमन नहीं बन सकता । |