मुख्तार :
इन नयों का स्वरूप इस प्रकार है -- द्रव्यार्थिक नय द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिक नय है । (स.सि.१/६) । द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है, इस को विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक नय है (स.सि.१/३३) । जो उन उन पर्यायों को प्राप्त होता है, प्राप्त होगा अथवा प्राप्त हुआ था वह द्रव्य है । द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिक नय है । (ध.१/८३) आगे सूत्र १८४ में भी द्रव्यार्थिक नय का लक्षण इसी प्रकार कहा है । पर्यायार्थिक नय पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः ॥आ.प.१९१॥ (स.सि.१/६) अर्थ – पर्याय ही जिस नय का प्रयोजन है, वह पर्यायार्थिक नय है । पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत है, इसको विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय है (स.सि.१/३३) । अथवा 'परि' जो कालकृत भेद को प्राप्त होता है उसे पर्याय कहते हैं । वह पर्याय जिस नय का प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक नय है । (ध.१/८४) तित्थयर-वयण संगह-विसेस-पत्थार-मूल-वायरणी ।
अर्थ – तीर्थंकरों के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिक नय है और उन्हीं वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिक नय है । शेष सभी नय इन दोनों नयों के विकल्प अर्थात् भेद है ।दव्वठ्टिओ य पज्ज्य-णयो य सेसा वियप्पा सिं ॥ (ध.१/१२) नैगम नय द्रव्यार्थिक नयः स त्रिविघो नैगम-संग्रह-व्यवहारभेदेन । पर्याया-र्थिको नयश्चतुर्विघः ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढैवंभूतभेदेन । (ध.९/१७०-१७१) अर्थ – द्रव्यार्थिक नय है, वह नैगम, संग्रह और व्यवहार के भेद से तीन प्रकार है । पर्यायार्थिक नय ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत के भेद के चार प्रकार का है । ऋजुसूत्र नय अर्थनय है और शब्द, समभिरूढ, एवंभूत ये तीन, व्यञ्जन नय हैं, क्योंकि इनमें शब्द की मुख्यता है । कहा भी है -- पर्यायार्थिको द्विविध: अर्थनयो व्यञ्जननयश्चेति । (ध.१/८५) नैगमनय 'नैकं गच्छतीति निगमः, निगमो विकल्पः' जो एक को ही प्राप्त नहीं होता अर्थात् अनेक को प्राप्त होता है, वह निगम है । निगम का अर्थ विकल्प है । जो विकल्प को ग्रहण करे, वह नैगम नय है ।' अनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम है । यथा हाथ में फरसा लेकर जाते हुए किसी पुरूष को देखकर कोई अन्य पुरूष पू्छता है - आप किस काम के लिये जा रहे है ? वह कहता है -- प्रस्थ लेने के लिये जा रहा हूँ । यद्यपि उस समय वह प्रस्थ पर्याय सन्निहित नहीं है, तथापि प्रस्थ बनाने के संकल्प मात्र से उसमें प्रस्थ व्यवहार किया गया है । तथा ईंधन और जल आदि के लाने में लगे हुए किसी पुरूष से कोई पूछता है कि आप क्या कर रहे हैं ? उसने कहा- भात पका रहा हूँ । उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भात के लिये किये गये व्यापार में भात का प्रयोग किया गया है । इस प्रकार का जितना व्यवहार अनिष्पन्न अर्थ के अवलम्बन से संकल्प मात्र को विषय करता है वह सब नैगम नय का विषय है । (स.सि.१/३३) संग्रह नय जो नय अभेद रूप से सम्पूर्ण वस्तु समूह को विषय करता है वह संग्रह-नय है । भेद सहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सब को ग्रहण करने वाला नय संग्रह नय है । यथा- सत्, द्रव्य और घट आदि । 'सत्' कहने पर सत् इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्ति रूप लिये से अनुमित सत्ता के आधारभूत सब पदार्थों का सामान्य रूप से संग्रह हो जाता है । 'द्रव्य' ऐसा कहने पर भी 'उन-उन पर्यायों को द्रवता है, प्राप्त होता है' इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद प्रभेदों का संग्रह हो जाता है । तथा 'घट' ऐसा कहने पर घट, इस प्रकार की बुद्धि और घट, इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्त्िा रूप लिंग से अनुमित सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है । (स.सि.१/३३) व्यवहार नय संग्रह नय से ग्रहण किये हुए पदार्थ को भेद रूप से व्यवहार करता है, ग्रहण करता है, वह व्यवहार नय है । संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है । सर्व संग्रह नय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गई है, वह अपने उतर भेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इस लिये व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है । यथा-संग्रह नय का विषय जो द्रव्य है, वह जीव अजीव की अपेक्षा किये बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिये जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है, इस प्रकार के व्यवहार का आश्रय लिया जाता है । जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रहनय के विषय रहते हैं तब तक वे व्यवहार कराने में असमर्थ हैं, इसलिये व्यवहार से जीव द्रव्य के देव नारकी आदि रूप और अजीव द्रव्य के घटादि रूप भेदों का आश्रय लिया जाता है । इस प्रकार इस नय की प्रवृत्ति वहां तक होती है जहां तक वस्तु में फिर कोई विभाग करना सम्भव नहीं रहता । (सर्वार्थसिद्धि १/३) इस व्यवहार नय में कालकृत भेद नहीं होता है । ऋजुसूत्र नय जो नय सरल को सूत्रित करता है अर्थात् ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्र नय है । ऋजुसूत्र नय अतीत और अनागत तीनों कालों के विषयों को ग्रहण न करके वर्तमान काल के विषयभूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्योंकि अतीत के विनष्ट और अनागत के अनुत्पन्न होने से उनमें व्यवहार नहीं हो सकता । वह वर्तमान काल समय मात्र है और उसके विषयभूत पर्यायमात्र को विषय करने वाला ऋजुसूत्र नय है । (स.सि.१/३३) ऋजुसूत्र नय का विषय पच्यमान पक्व है । जिसका अर्थ कथंचित् पच्यमान और कथंचित् उपरतपाक होता है । जिसने अंश में वह पक चुकी है उसकी अपेक्षा वह वस्तु पक्व अर्थात् कथंचित् उपरतपाक है और अन्तिम पाक की समाप्ति का अभाव होने की अपेक्षा अर्थात् पूरा पाक न हो सकने की अपेक्षा वही वस्तु पच्यमान भी है ऐसा सिद्ध होता है । इसी प्रकार कियमाण-कृत, मुज्यमान-मुक्त, बध्यमान-बद्ध और सिद्धभत्-सिद्ध आदि व्यवहार भी घटित हो जाता है । (ज.ध.१/२२३-२२४) ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा जिस समय प्रस्थ से धान्य मापे जाते हैं, उसी समय वह प्रस्थ है । इस नय की दृष्टि में 'कुंभकार' संज्ञा भी नहीं बन सकती, क्योंकि शिवक आदि पर्यायों को करने से उनके कर्ता को 'कुंभकार' यह संज्ञा नहीं दी जा सकती । ठहरे हुए किसी पुरूष से 'आप कहां से आ रहे हो' इस प्रकार प्रश्न होने पर । कहीं से भी नहीं आ रहा हूँ’ इस प्रकार यह ऋजु-सूत्र नय मानता है, क्योंकि जिस समय प्रश्न किया गया उस समय आगमन रूप किया नहीं पाई जाती । (ज.ध.१/२२५) तथा इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में 'काक कृष्ण होता है' यह व्यवहार भी नहीं बन सकता है, क्योंकि जो कृष्ण है वह कृष्णरूप ही है, काकरूप नहीं है । यदि कृष्ण को काकरूप माना जाय तो भ्रमर आदिक को भी काक-रूप मानने की आपत्त्िा प्राप्त होती है । उसी प्रकार काक भी काकरूप ही है कृष्णरूप नहीं है, क्योंकि यदि काक को कृष्णरूप माना जाय तो काक के पीले पित्त सफेद हड्डी और लाल रूधिर आदिक को भी कृष्णरूप मानने की आपत्त्िा प्राप्त होती है । (ज.ध.१/२२६) इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से विशेषण-विशेष्य भाव भी नहीं बनता है, क्योंकि भिन्न दो पदार्थों में तो विशेषण-विशेष्य भाव बन नहीं सकता, क्योंकि भिन्न दो पदार्थों में विशेषण-विशेष्य भाव मानने पर अव्यवस्था की आपत्त्िा प्राप्त होती है, अर्थात् जिन किन्हीं दो पदार्थों में भी विशेषण-विशेष्य भाव नहीं बन सकता, क्योंकि अभिन्न दो पदार्थों का अर्थ एक पदार्थ ही होता है और एक पदार्थ में विशेषण-विशेष्य भाव के मानने में विरोध आता है । (ज.घ.१/२२९) इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में संयोग अथवा समवाय सम्बन्ध नहीं बनता है । इसीलिये सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार की उपाधियों से रहित केवल शुद्ध परमाणु ही है, अतः जो स्तंभादिकरूप स्कन्धों का प्रत्यय होता है वह ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में भ्रान्त है, तथा वह परमाणु निरवयव है, क्योंकि परमाणु के उर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि अवयवों के मानने पर अनवस्था दोष की आपत्ति प्राप्त होती है और परमाणु को अपरमाणुपने का प्रसंग प्राप्त होता है । (ज.ध.१/२३०) इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में बन्घ्य-बन्धक भाव, वघ्य-घातक भाव, दाह्य-दाहकभाव और संसारादि कुछ भी नहीं बन सकते । (ज.ध.१/२२८) इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में ग्राह्य-ग्राहकभाव भी नहीं बनता है । ज्ञान से असंबद्ध अर्थ का तो ग्रहण होता नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अव्यवस्था दोष की आपत्त्िा प्राप्त होती है। अर्थात् असम्बद्ध अर्थ का ग्रहण मानने पर किसी भी ज्ञान से किसी भी पदार्थ का ग्रहण हो जायगा । तथा ज्ञान से सम्बद्ध अर्थ का भी ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि वह ग्रहण काल में रहता नहीं है। यदि कहा जाय कि अतीत होने पर भी उसका ज्ञान के साथ कार्य-कारणभाव सम्बन्घ पाया जाता है, अतः उसका ग्रहण हो जायगा ; सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर चक्षुइन्द्रिय से व्यभिचार दोष आता है । अर्थात् पदार्थ की तरह चक्षुइन्द्रिय से भी ज्ञान का कार्यकारण सम्बन्ध पाया जाता है, फिर भी ज्ञान चक्षु को नहीं जानता है । (ज.ध.१/२३०-२३१) इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में वाच्य-वाचक्र भाव भी नहीं होता है। इस प्रकार इस नय की दृष्टि में सकल व्यवहार का उच्छेद होता है । (ज.ध.१/२३२) शब्द नय जो नय शब्द अर्थात् व्याकरण से, प्रकृति और प्रत्यय के द्वारा सिद्ध अर्थात् निष्पन्न शब्द को मुख्यकर विषय करता है वह शब्द नय है । 'शपति' अर्थात् जो पदार्थ को बुलाता है अर्थात् पदार्थ को कहता है या उसका निश्चय कराता है वह शब्दनय है । यह शब्दनय लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरूष और उपग्रह के व्यभिचार को दूर करता है। पुल्लिंग के स्थान में स्त्रीलिंग का और स्त्रीलिंग के स्थान में पुल्लिंग का कथन करना आदि लिंग-व्यभिचार है । जैसे -- 'तारका स्वातिः' स्वाति नक्षत्र तारका है । यहाँ पर तारका शब्द स्त्रीलिंग और स्वाति शब्द पुल्लिंग है, अतः स्त्रीलिंग शब्द के स्थान पर पुल्लिंग शब्द का कथन करने से लिंग-व्यभिचार है अर्थात् तारका शब्द स्त्रीलिंग है उसके साथ में पुल्लिंग स्वाति शब्द का प्रयोग किया गया है जो व्याकरण अनुसार ठीक नहीं है। एकवचन आदि के स्थान पर द्विवचना आदि का कथन करना संख्या-व्यभिचार है । जैसे 'नक्षत्रं पुनर्वसू' पुनर्वसू नक्षत्र हैं । यहाँ पर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और पुनर्वसू शब्द द्विवचनान्त है, इसलिये एकवचन के साथ में द्विवचन का कथन करने से संख्या-व्यभिचार है । भूत आदि काल के स्थान में भविष्यत् आदि काल का कथन करना काल-व्यभिचार है । जैसे -- 'विश्वद्दश्वास्य पुत्रों जनिता' जिसने समस्त विश्व को देख लिया है ऐसा इसको पुत्र होगा । यहाँ पर 'विश्वद्दश्वा' शब्द भूतकालीन है और 'जनिता' यह भविष्यत्कालीन है । अतः भविष्य अर्थ के विषय में भूतकालीन प्रयोग करना काल-व्यभिचार है । एक कारक के स्थान पर दूसरे के कारक के प्रयोग करने को साधन-व्यभिचार कहते हैं । उतमपुरूष के स्थान पर मध्यपुरूष और मध्यपुरूष के स्थान पर उतमपुरूष आदि के प्रयोग करने को पुरूष-व्यभिचार कहते हैं । इस प्रकार जितने भी लिङ्ग आदि व्यभिचार हैं वे सभी अयुक्त हैं, क्योंकि अन्य अर्थ का अन्य अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता । इसलिये जैसा लिंग हो, जैसी संख्या हो और जैसा साधन हो उसी के अनुसार शब्दों का कथन करना उचित्त है । (ज.ध.१/२३५-२३७) समभिरूढ़ नयः आगे सूत्र २०१ में कहेंगे 'परस्परेणाभिरूढाः समाभिरूढाः । शब्दभेदेऽप्यर्थभेदो नास्ति, यथा शक इन्द्रः पुरंदर इत्याद् य: समभिरूढाः ।' परस्पर में अभिरूढ शब्दों को ग्रहण करने वाला नय समभिरूढ़ नय कहलाता है । इस नय के विषय में शब्द-भेद रहने पर भी अर्थ-भेद नहीं है, जैसे शक, इन्द्र और पुरंदर ये तीनों ही शब्द देवराज के पर्यायवाची होने देवराज में अभिरूढ हैं । किन्तु शोलापुर से प्रकाशित नयचक्र पृ० १८ पर लिखा है– 'शब्दभेदेप्यर्थभेदो भवत्येवेप्ति' अर्थात् शब्द-भेद होने पर अर्थ-भेद होता ही है । जयधवल में भी इस प्रकार कहा है -- शब्दभेद से जो नाना अर्थों में अभिरूढ़ है अर्थात् जो शब्दभेद से अर्थभेद मानता है वह समभिरूढ़नय है। जैसे एक ही देवराज इन्दनकिया का कर्ता होने से अर्थात् आज्ञा और ऐश्वर्य आदि से युक्त होने के कारण इन्द्र कहलाता है और वही देवराज शकनात् अर्थात् सामर्थ्यवाला होने के कारण शक कहलाता है तथा वही देवराज पुर अर्थात् नगरों को दारण अर्थात् विभाग करने बाला होने के कारण पुरन्दर कहलाता है। ये तीनों शब्द भिन्न भिन्न अर्थ से सम्बन्ध रखते हैं, इसलिये एक अर्थ के वाचक्र नहीं है । आशय यह है कि अर्थभेद के बिना पदों में भेद बन नहीं सकता है, इसलिये पदभेद से अर्थभेद होना ही चाहिये, इस अभिप्राय को स्वीकार करने वाला समभिरूढ़ नय है । (ज.ध.१/२३९) इस समभिरूढ़ नय में पर्यायवाची शब्द नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि यह नय प्रत्येक पद का भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। इस नय की दृष्टि में दो शब्द एक अर्थ में रहते हैं ऐसा मानता भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न दो शब्दों का एक अर्थ में सद्भाव मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि उन दोनों शब्दों में समान शक्ति पार्इ जाती है, इसलिये वे एक अर्थ में रहते हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि दो शब्दों में सर्वथा समान शक्ति मानी जाय तो फिर वे दो नहीं रहेंगे, एक हो जायेंगे । इसलिये जब वाचक्र शब्दों में भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थ में भेद होना ही चाहिये । (ज.ध.१/२४०) श्री पूज्यवाद आचार्य ने सर्वार्थसिद्धि में इस प्रकार कहा है -- नाना अर्थो का समभिरोहण करने वाला समभिरूढ़ नय है। क्योंकि जो नाना अर्थो को 'सम' अर्थात् छोड़कर प्रधानता से एक अर्थ में रूढ़ होता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे 'गो' इस शब्द के वचन आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं, तथापि वह 'पशु' अर्थ में रूढ़ है । अथवा अर्थ का ज्ञान कराने के लिये शब्दों का प्रयोग किया जाता है । एक अर्थ का ज्ञान एक शब्द के द्वारा हो जाता है, अतः इस नय की दृष्टि में पर्यायवाची शब्दों को प्रयोग निरर्थक है । यदि शब्दों में भेद हैतो अर्थभेद अवश्य है । इस प्रकार नाना अर्थो का समभिरोहण करने वाला समभिरूढ नय है। जैसे इन्द्र, शक और पुरन्दर ये तीन शब्द होने से इनके अर्थ भी तीन हैं । इन्द्र का अर्थ ऐश्वर्यवान् है, शक का अर्थ सामर्थ्यवान् है, पुरन्दर का अर्थ नगर का विभाव करने वाला है । (स.सि.१/३३) एवंभूत नय जिस नय में वर्तमान किया की प्रधानता होती है वह एवंभूत नय है । जिस शब्द का जिस कियारूप अर्थ है तद् रूप किया से परिणत समय में ही उस शब्द का प्रयोग करना युक्त है, अन्य समय में नहीं, ऐसा जिस नय का अभिप्राय है वह एवंभूत नय है । इस नय में पदों का समाप्त नहीं होता है, क्योंकि जो स्वरूप और काल की अपेक्षा भिन्न हैं उनको एक मानने में विरोध आता है । यदि कहा जाय कि पदों में एककालवृत्ति रूप समास पाया जाता है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पद कम से ही उत्पन्न होते हैं और वे जिस क्षण में उत्पन्न होते हैं, उसी क्षण में विनष्ट हो जाते हैं, इसलिये अनेक पदों का एक काल में रहना नहीं बन सकता । तथा इस नय में जिस प्रकार पदों कर समाप्त नहीं बन सकता है, उसी प्रकार घ,ट आदि वर्णो का भी समास नहीं बन सकता, क्योंकि अनेक पदों के समास मानने में जो कह आये हैं, वे सब दोष अनेक वर्णो के समास मानने में भी प्राप्त होते हैं । इसलिये एंवभूत नय की दृष्टि में एक ही वर्ण एक अर्थ का वाचक्र है । (ज.ध.१/२४२) |