मुख्तार :
आत्मा एक अखण्ड द्रव्य है, उसमें ज्ञान-दर्शन आदि गुण नहीं हैं, ऐसा शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का प्रयोजन है । कहा भी है- णवि णाणं ण चरितं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥स.सा.॥ अर्थ – आत्मा में न ज्ञान है, न चारित्र है, न दर्शन है, वह तो ज्ञायक, शुद्ध है । आत्मा में ज्ञान, दर्शन आदि गुणों की कल्पना करना अशुद्ध-द्रव्यार्थिक नय का विषय है । अर्थात् एक अखण्ड द्रव्य में गुणों का भेद करना अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय है । भेदे सहि सम्बंधं गुणगुणिर्येईण कुणइ जो दव्वे ।
अर्थ – गुण-गुणी में भेद होने पर भी जो नय द्रव्य में गुण-गुणी का सम्बन्ध करता है वह भेद-कल्पना सहित अशुद्ध नय जानना चाहिये ।
सो वि अशुद्धो विठ्ठो सहिओ सो भेदकप्पेण ॥न.च.२३॥ |