मुख्तार :
संस्कृत नयचक्र में इस नय का स्वरूप निम्न प्रकार कहा गया है -- संसारमुक्तपर्यायाणामाधारं भूत्वाप्यात्मद्रव्यकर्मबंधमोक्षाणां कारणं न भवतीति परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकनय: । (सं.न.च.३) कर्मभिर्जनितो नैव नोत्पन्नस्तत्क्षयेन च ।
अर्थ – यद्यपि आत्म-द्रव्य संसार और मुक्त पर्यायों का आधार है तथापि आत्म-द्रव्य कर्मों के बंध और मोक्ष का कारण नहीं होता है । यह परमभाव-ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है । अथवा, आत्मा कर्म से उत्पन्न नहीं होता और न कर्मक्षय से उत्पन्न होता है -- द्रव्य के ऐसे भाव को बतलाने वाला परमभाव-ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है ।नय: परमभावस्य ग्राहको निश्चयो भवेन् ॥ सं.न.च.१०॥ प्राकृत नयचक्र में इस नय का स्वरूप इस प्रकार कहा है -- गेह्णइ दव्वसहावं असुद्धसुद्धोवयारपरिचत्तं । सो परमभावगाही णायव्वो सिद्धिकामेण ॥न.च.वृ.१९९॥ अर्थ – जो (औदयिकादि) अशुद्ध / शुद्ध (क्षायिक) स्वभावों के उपचार से रहित ग्रहण करता है उसे मोक्षाभिलाषी को परमभावग्राही नय जानना चाहिए । |