मुख्तार :
संस्कृत नयचक्र में इस नय का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है -- स्वद्रव्यादीनां विवक्षामकृत्वा परद्रव्यपरक्षेत्रपरकालपरभावापेक्षया द्रव्यस्य नास्तित्वकथक: परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिकनय: (सं.न.च./३)
अर्थ – स्व-द्रव्य आदि की विवक्षा न कर पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल, पर-भाव की अपेक्षा से द्रव्य के नास्तित्व को कथन करने वाला नय परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय है । अथवा परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से जो नय विवक्षित पदार्थ में वस्तु के नास्तित्व को बतलाता है वह परद्रव्यादि सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय है । जैसे रजत-द्रव्य रजत-क्षेत्र रजत-काल रजत-पर्याय अर्थात् रजतादि रूप से स्वर्ण नास्ति है ।नास्तित्वं वस्तुरूपस्य परद्रव्याद्यपेक्षया । वांछितार्येषु यो वक्ति परद्रव्याद्यपेक्षक: ॥सं.न.च.५९॥ आगे सूत्र १८९ में भी इसका कथन है । |