+ सत् -
सद्द्रव्‍यलक्षणम् सीदति स्‍वकीयान् गुणपर्यायान् व्‍याप्‍नोतीति सत्; उत्‍पादव्‍ययध्रौव्‍ययुक्‍तं सत् ॥97॥
अन्वयार्थ : द्रव्‍य का लक्षण सत् है । अपने गुण-पर्यायों को व्‍याप्‍त होने वाला सत् है । अथवा जो उत्‍पाद-व्‍यय-ध्रौव्‍य से युक्‍त है, वह सत् है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

सूत्र ६ में 'सद्द्रव्‍यलक्षणम' और सूत्र ७ में 'उत्‍पादव्‍ययध्रौव्‍ययुक्‍तं सत्' का अर्थ कहा जा चुका है ।

द्रव्‍य-सामान्‍य ही अपने गुण और पर्यायों में व्‍याप्‍त होता है, वह द्रव्‍य सामान्‍य ही द्रव्‍यार्थिक नय का विषय है । जैसे -- स्‍वर्ण ही अपने पीतत्त्व आदि गुणों को तथा कुण्‍डल आदि पर्यायों को प्राप्‍त होता है । द्रव्‍य आधार है; गुण और पर्यायें आधेय हैं । कहा भी है –

द्रव्‍याश्रयानिर्गुणागुणा: ॥त.सू.५/४१॥
जिनके रहने का आश्रय द्रव्‍य है, वे द्रव्‍याश्रय कहलाते हैं अर्थात् जो सदा द्रव्‍य के आश्रय से रहते हैं और जो गुणों से रहित हैं, वे गुण हैं ।