
मुख्तार :
सूत्र ६ में 'सद्द्रव्यलक्षणम' और सूत्र ७ में 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' का अर्थ कहा जा चुका है । द्रव्य-सामान्य ही अपने गुण और पर्यायों में व्याप्त होता है, वह द्रव्य सामान्य ही द्रव्यार्थिक नय का विषय है । जैसे -- स्वर्ण ही अपने पीतत्त्व आदि गुणों को तथा कुण्डल आदि पर्यायों को प्राप्त होता है । द्रव्य आधार है; गुण और पर्यायें आधेय हैं । कहा भी है – द्रव्याश्रयानिर्गुणागुणा: ॥त.सू.५/४१॥
जिनके रहने का आश्रय द्रव्य है, वे द्रव्याश्रय कहलाते हैं अर्थात् जो सदा द्रव्य के आश्रय से रहते हैं और जो गुणों से रहित हैं, वे गुण हैं ।
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