+ द्रव्‍यत्‍व गुण -
द्रव्‍यस्‍यभावो द्रव्‍यत्‍वम् निजनिजप्रदेशसमूहैरखण्‍डवृत्‍या स्‍वभावविभावपर्यायान् द्रवति द्रोष्‍यति अदुद्रुवदिति द्रव्‍यम् ॥96॥
अन्वयार्थ : जो अपने-अपने प्रदेश समूह के द्वारा अखण्‍डपने से अपने स्‍वभाव-विभाव पर्यायों को प्राप्‍त होता है, होवेगा, हो चुका है, वह द्रव्‍य है । उस द्रव्‍य को जो भाव है, वह द्रव्‍यत्‍व है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

वस्‍तु के सामान्‍य अंश को द्रव्‍यत्‍व कहते हैं, क्‍योंकि वह सामान्‍य ही विशेषों (पर्यायों) को प्राप्‍त होता है । जैसे -- पिंड और घट पर्यायों को मिट्टी प्राप्‍त होती है । सामान्‍य के बिना विशेष नहीं हो सकते और विशेष के बिना सामान्‍य नहीं रह सकता ।

पंचास्तिकाय की टीका में भी कहा है --

द्रवति गच्‍‍छति सामान्‍यरूपेण स्‍वरूपेण व्‍याप्‍नोति तांस्‍तान् क्रम-भुव: सहभुवश्‍च सद्धावपर्यायान् स्‍वभावविशेषानित्‍यनुगतार्थया निरूक्‍त्‍या द्रव्‍यं व्‍याख्‍यातम् ॥पं.का.९.टी॥
अर्थ – उन-उन क्रमभावी, सहभावी पर्यायों को अर्थात् स्‍वभाव-विशेषों को जो द्रवित (प्राप्‍त) होता है, सामान्‍यरूप स्‍वरूप से व्‍याप्‍त होता है वह द्रव्‍य है । इस प्रकार निरूक्ति से द्रव्‍य की व्‍याख्‍या की गई ।