+ पुद्गल का चेतन-स्‍वभाव -
असद्भूतव्यवहारेण कर्मनोकर्मणोरपि चेतनस्वभावः ॥160॥
अन्वयार्थ : असद्भूत-व्‍यवहार उपनय की अपेक्षा कर्म, नोकर्म के भी चेतन-स्‍वभाव है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

असद्भूत-व्‍यवहार नय का कथन सूत्र २०७ में है । असद्भूत-व्‍यवहार उपनय के तीन भेद हैं । उनमें जो दूसरा भेद 'विजात्‍यसद्भूतव्‍यवहार उपनय' है, उसकी अपेक्षा कर्म, नोकर्म के भी चेतन-स्‍वभाव है । सूत्र ८६ के विशेषार्थ में संस्‍कृत नयचक्र के आधार पर यह कहा गया है कि शरीर (नोकर्म) को जीव कहना विजात्‍य-सद्भूतव्‍यवहार उपनय का विषय है । श्री राजवार्तिक अ० ५ सूत्र १९ वार्तिक २४ में भी कहा है --

पौरूषेयपरिणामानुरत्र्जित्‍वात् कर्मणः स्‍याच्‍चैतन्‍यम् ॥रा.वा.५/१९/२४॥
अर्थ – पौद्गलिक कर्म पुरूष (जीव) के परिणामों से अनुरंजित होने के कारण कथंचित् चेतन है ।

मूलाराधना गाथा ६१९ की टीका में भी इसी प्रकार कहा गया है --

सह चित्तेनात्‍मना वर्तते इति सचित्तं जीवशरीरत्‍वेनावस्थितं पुद्गलद्रव्‍यं ॥मूलाराधना-६१९॥
अर्थ – इस आत्‍मा के साथ जो पुद्गल-पदार्थ रहता है वह सचित्त है । जीव का शरीर बनकर जो पुद्गल रहता है वह सचित्त है ।

प्राकृत नयचक्र में कहा है --

एइंदियादिदेहा जीवा ववहारदो य जिणदिठ्टा ।
हिंसादिसु जइ पापं सव्‍वत्‍थवि किं ण ववहोरा ॥प्रा.न.च.८२/२३४॥
अर्थ – एकेन्द्रिय आदि का शरीर जीव है, ऐसा जिनेन्‍द्र ने व्‍यवहार से कहा है । यदि हिंसा आदि में पाप है तो सर्वत्र व्‍यवहार का प्रयोग क्‍यों न हो ? अर्थात् व्‍यवहार सत्‍य है, उसका सर्वत्र प्रयोग होना चाहिए ।

इस प्रकार कर्म, नोकर्म के भी चेतनस्‍वभाव है किन्‍तु वह निजस्‍वभाव नहीं है। जीव से बंध की अपेक्षा उनमें चेतनस्‍वभाव है जो विजात्‍यसद्भूत-व्‍यवहार उपनय का विषय है ।