+ एवंभूत-नय -
एवं क्रियाप्रधानत्‍वेन भूयत इत्‍येवंभूतः ॥202॥
अन्वयार्थ : जिस नय में वर्तमान क्रिया की प्रधानता होती है, वह एवंभूत नय है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

इसका विशेष कथन सूत्र ४१ के विशेषार्थ में है तथा सूत्र ७९ में भी इस नय का कथन है ।

'चिडि़या ग्राम में, वृक्ष में, झाड़ी में, शाखा में, शाखा के एक भाग में, अपने शरीर में तथा कण्‍ठ में चहचहाती है' - इस दृष्‍टान्‍त में कहे गये सात स्‍थान सूक्ष्‍म, सूक्ष्‍म होते गये हैं । इसी प्रकार नैगमादि सात नयों का विषय भी सूक्ष्‍म, सूक्ष्‍म होता गया है ।

कं पि णरं द्ट्ठूण य पावजणसमागमं करेमाणं ।;;णेगमणण्‍ण भण्‍णइ णेरइओ एन्‍त पुरिसो त्ति ॥१॥;;ववहारस्‍स दु वयणं जइया कोद्ंड-कंडगयहत्‍थो ।;;भमइ मए मग्‍गंतो तइया सो होइ णेरइओ ॥२॥;;उज्‍जुसुदस्‍स दु वयणं जदश्रा हर ठाइदूण ठाणम्मि ।;;आहणदि मए पावो तइया सो होइ णेरइओ ॥३॥;;सद्दणयस्‍स दु वयणं जइया पाणेहि भोइदो जंतू ।;;तइया सो णेरइयो हिंसाकम्‍मेण संजुत्तो ॥४॥;;वयणं तु समभिरूढं णारयकम्‍मरस बंघगो जइया ।;;तइया सो णेरइओ णारयकम्‍मेण संजुत्तो ॥५॥;;णिरयगइं संपत्तो जइया अणुहवइ णारयं दुक्‍खं ।;;तइया सो णेरइओ एवंभूदो णक्षो भणदि ॥६॥ (ध.७/२८-२९)

अर्थ – किसी मनुष्‍य को पापी जीवों का समागम करते हुए देखकर नैगम-नय से कहा जाता है कि यह पुरूष नारकी है । (जब वह मनुष्‍य प्राणिवध करने का विचार कर सामग्री का संग्रह करता है तब वह संग्रह नय से नारकी है ।) जब कोई मनुष्‍य हाथ में धनुष और बाण लिये मृगों की खोज में भट-कता फिरता है तब वह व्‍यवहार नय से नारकी कहलाता है । जब आखेट-स्‍थान पर बैठकर पापी, मृगों पर आघात करता है तब वह ऋजुसूत्र नय से नारकी है । जब जन्‍तु प्राणों से विमुक्‍त कर दिया जाय तभी वह आघात करने वाला, हिंसा कर्म से संयुक्‍त मनुष्‍य, शब्‍द नय से नारकी है । जब मनुष्‍य नारक-कर्म का बंधक होकर नारक-कर्म से संयुक्‍त हो जाय तब वह समभिरूढ नय से नारकी है । जब वही मनुष्‍य नारक गति को पहुंच कर नरक के दुःख अनुभव करने लगता है तब वह एवंभूत नय से नारकी है ।