कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं
त्वां वर्द्धमानं स्तुतिगोचरत्वम् ।
निनीष्व: स्मो वयमद्य वीरं
विशीर्ण-दोषाऽऽशय-पाश-बंधनम् ॥1॥
अन्वयार्थ : [विशीर्णदोषाऽऽशय-पाश-बंधनम्] आप दोषों और दोषाऽऽशयों के पाश-बन्धन से विमुक्त हुए हैं, [वर्द्धमानं] आप निश्चित रूप से ऋद्धमान हैं, [महत्या कीर्त्या] और आप महती कीर्ति से [भुवि वर्द्धमानं] भूमण्डल पर वर्द्धमान हैं । [अद्य] अब [वयं] हम, [त्वां वीरं] हे वीर जिन! आपको [स्तुतिगोचरत्वम्] स्तुतिगोचर मानकर अपनी स्तुति का विषय बनाने के [निनीषवः स्मः] अभिलाषी हुए हैं ।
वर्णी
वर्णी :
कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं
त्वां वर्द्धमानं स्तुतिगोचरत्वम् ।
निनीष्व: स्मो वयमद्य वीरं
विशीर्ण-दोषाऽऽशय-पाश-बंधनम् ॥1॥
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