याथात्म्यमुल्लंघ्य गुणोदयाऽऽख्या
लोके स्तुतिर्भूरि गुणोदधेस्ते ।
अणिष्ठमप्यंशमशक्नुवंतो
वक्तुं जिन ! त्वां किमिव स्तुयाम ॥2॥
अन्वयार्थ : [याथात्म्यं] यथार्थता का [उल्लंघ्य] उल्लंघन करके, [गुणोदयाऽऽख्या] गुणों के उत्कर्ष की जो कथनी है, उसे [लोके] लोक में [स्तुतिः] 'स्तुति' कहा जाता है । परन्तु [जिन] हे वीर जिन! [ते] आप [भूरिगुणोदधेः] अनन्त गुणों के समुद्र हैं और [अणिष्ठं अंशं अपि] उस गुणसमुद्र के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंश का भी हम [वक्तुं] कथन करने के लिए [अशक्नुवन्तः] समर्थ नहीं हैं, तब हम [किमिव] किस तरह [त्वां] आपके [स्तुयाम] स्तोता बनें?
वर्णी
वर्णी :
याथात्म्यमुल्लंघ्य गुणोदयाऽऽख्या
लोके स्तुतिर्भूरि गुणोदधेस्ते ।
अणिष्ठमप्यंशमशक्नुवंतो
वक्तुं जिन ! त्वां किमिव स्तुयाम ॥2॥
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