देशेन्द्रदेशनामनि वेणाकतटीपुरे महामहिमा ।
समुदितमुनीन् प्रति ब्रह्मचारिणा प्रापयल्लेखं ॥१०६॥
आदाय लेखपत्रं तेप्यथ तद्ब्रह्मचारिणो हस्तात् ।
प्रविमुच्य बंधनं वाचयाम्बभूवुस्तदा महात्मान: ॥१०७॥
स्वस्ति श्रीमत इत्यूर्जयंततटनिकट चंद्रगुहा-
वासाद्धरसेनगणी वेणाकतटसमुदितयतीन् ॥१०८॥
अभिवंद्य कार्यमेवं निगदत्यस्माकमायुरवशिष्टम् ।
स्वल्पं तस्मादस्मच्छ्रुतस्य शास्त्रस्य व्युच्छित्ति: ॥१०९॥
न स्याद्यथा तथा द्वौ यतीश्वरौ ग्रहणधारणसमर्थौ ।
निशितप्रज्ञौ यूयं प्रस्थापयतेति लेखार्थम् ॥११०॥
अन्वयार्थ : ऐसा विचार कर निपुणमति श्रीधरसेन महर्षि ने देशेन्द्रदेश के बेणातटाकपुर में निवास करने वाले महामहिमाशाली मुनियों के निकट एक ब्रह्मचारी के द्वारा पत्र भेजा। ब्रह्मचारी ने पत्र ले जाकर उक्त मुनियों के हाथ में दिया। उन्होंने बंधन खोलकर बाँचा। उसमें लिखा हुआ था कि-''स्वस्ति श्री बेणाकतटवासी यतिवरों को ऊर्जयन्ततट निकटस्थ चंद्रगुहानिवासी धरसेनगणि अभिवदंना करके यह कार्य सूचित करते हैं कि मेरीआयु अत्यंत स्वल्प रह गई है। जिससे मेरे हृदयस्थ शास्त्र की व्युच्छित्ति हो जाने की संभावना है अतएव उसकी रक्षा करने के लिये आप लोग दो ऐसे यतीश्वरों को भेज दीजिये जो शास्त्रज्ञान के ग्रहण-धारण करने में समर्थ और तीक्ष्ण बुद्धि हों।'' इन समाचारों का आशय भलीभाँति समझकर उन मुनियों ने भी दो बुद्धिशाली मुनियों को अन्वेषण करके तत्काल ही भेज दिया ॥१०६ से ११०॥