एवं तस्यार्हद्बलेर्मुनिजनसंघप्रवर्तकस्यासन् ।
विनययजना मुनीन्द्रा: पंचकुलाचारतोपास्या: ॥१०१॥
तस्यानंतरमनगारपुंगवो माघनन्दिनामाऽभूत् ।
सोऽप्यंगपूर्वदेशं प्रकाश्य समाधिना दिवं यात: ॥१०२॥
देशे तत: सुराष्ट्रे गिरिनगरपुरान्तिकोर्जयंतगिरौ ।
चंद्रगुहाविनिवासी महातपा: परममुनिमुख्य: ॥१०३॥
अग्रायणीयपूर्वस्थितपंचमवस्तुगतचतुर्थमहाकर्म
प्राभृतकज्ञ: सूरिर्धरसेननामाऽभूत् ॥१०४॥
सोऽपि निजायुष्यांतं विज्ञायास्माभिरलमधीतमिदं ।
शास्त्रम व्युच्छेदमवाप्स्यतीति संचिन्त्य निपुणमति: ॥१०५॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार से मुनिजनों के संघ प्रवर्तन करने वाले उक्त श्री अर्हद्बलि आचार्य के वे सब मुनीन्द्र शिष्य कहलाये। उनके पश्चात् एक श्री माघनंदि नामक मुनिपुंगव हुए और वे भी अंगपूर्व-देश का भलीभाँति प्रकाश करके स्वर्गलोक को पधारे। तदनंतर सुराष्ट्र (सोरठ) देश के गिरिनगर के समीप ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार) की चंद्रगुफा में निवास करने वाले महातपस्वी श्रीधरसेन आचार्य हुए। इन्हें अग्रायणीय पूर्व के अंतर्गत पंचमवस्तु के चतुर्थ महाकर्मप्राभृत का ज्ञान था। अपने निर्मल ज्ञान में जब उन्हें यह भासमान हुआ कि, अब मेरी आयु थोड़ी शेष रह गई है और अब मुझे जो शास्त्रका ज्ञान है, वही संसार में अलम् होगा अर्थात् इससे अधिक शास्त्रज्ञ आगे कोई नहीं होगा और यदि कोई प्रयत्न नहीं किया जावेगा तो श्रुत का विच्छेद हो जावेगा ॥१००-१०५॥