प्राघूर्णिकोचितविधिं तयोर्विधायादरात्ततस्ताभ्यां ।
विश्राम्य त्रीन्दिवसान् निवेदितागमनहेतुभ्याम् ॥११४॥
सुपरीक्षा हृन्निर्वर्तिकरीति संचिन्त्य दत्तवान् सूरि: ।
साधयितुं विद्ये द्वे हीनाधिकवर्णसंयुक्ते ॥११५॥
श्रीमन्नेमिजिनेश्वर सिद्धिशिलायां विधानतो विद्या
संसाधनं विदधतोस्तयोश्च पुरत: स्थिते देव्यौ ॥११६॥
हीनाक्षरविद्यासाधकस्य देव्येकलोचनाग्रेऽस्थात् ।
अधिकाक्षरविद्यासाधकस्य सा दंतुरा तस्थौ ॥११७॥
अन्वयार्थ : श्री धरसेनाचार्य ने आदरपूर्वक उनका अतिथि-सत्कार किया और फिर मार्गपरिश्रम शमन करने के लिये तीन दिन तक विश्राम करने दिया। तत्पश्चात् यह सोचकर कि ''सुपरीक्षा चित्त को शांति देने वाली होती है'' अर्थात् जिस विषय की भलीभाँति परीक्षा कर ली जाती है, उसमें फिर किसी प्रकार की शंका नहीं रहती है, उन्होंने उन दोनों को दो विद्याएँ साधन करने के लिये दीं, जिनमें से एक विद्या में अक्षर कम थे और दूसरी में अधिक थे। उक्त मुनियों ने श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर की सिद्धशिला पर जाकर विधिपूर्वक विद्याओं का साधन किया। परन्तु जो अक्षरहीन विद्या साध रहा था, उसके आगे एक आँख वाली देवी और अधिक अक्षर साधने वाले के सम्मुख बड़े दाँत वाली देवी आकर खड़ी हो गई ॥११४-११७॥