दृष्ट्वा ताविति देव्यौ न देवतानां स्वभाव एष इति ।
प्रविचिन्त्य ततो विद्यामंत्रव्याकरणविधिनैव ॥११८॥
प्रस्तार्य न्यूनाधिकवर्णक्षेपापचविधानेन ।
पुनरपि पुरतश्च तयोर्देव्यौ ते दिव्यरूपेण ॥११९॥
केयूरहारनूपुरकटककटीसूत्रभासुरशरीरे ।
अग्रे स्थित्वा वदतां किं करणीयं प्रवदतेति ॥१२०॥
तावप्यूचतुरेतन्नास्माकं कार्यमस्ति तत्किमपि ।
ऐहिकपारत्रिकयोर्भवतीभ्यां सिद्धयति यदत्र परम् ॥१२१॥
किन्तु गुरूनियोगादावाभ्यां विहितमेतदिती वचनम् ।
श्रुत्वा तयोरभीष्टं ते जग्मतु: स्वास्पदं देव्यौ ॥१२२॥
अन्वयार्थ : यह देखकर मुनियों ने सोचा कि देवताओं का यह स्वभाव नहीं है-यह असली स्वरूप नहीं है। अवश्य ही हमारी साधना में कोई भूल हुई है। तब उन्होंने मंत्र व्याकरण की विधि से न्यूनाधिक वर्णों के क्षेपने और अपचय करने के विधान से मंत्रों को शुद्ध करके फिर चिन्तवन किया। जिससे कि उन देवियों ने केयूर (भुजा पर पहनने का आभरण) हार, नूपुर (बिछुए), कटक (कंकण) और कटिसूत्र (करधनी) से सुसज्जित दिव्यरूप धारण करके दर्शन दिया और समक्ष उपस्थित होकर कहा कि ''कहिये- किस कार्य के लिये हमको आज्ञा होती है?'' यह सुनकर मुनियों ने कहा कि हमारा ऐहिक पारलाौकिक ऐसा कोर्इ भी कार्य नहीं है जिसे तुम सिद्ध कर सको। हमने तो केवल गुरूदेव की आज्ञा से मंत्रो की सिद्धि की है। मुनियों का अभीष्ट सुनकर वे देवियाँ उसी समय अपने स्थान को चली गर्इं ॥११८ से १२२॥