एवं षट्खण्डागमसूत्रोत्पत्तिं प्ररूप्य पुनरधुना ।
कथयामि कषायप्राभृतस्य सत्सूत्रसंभूतिम् ॥१४९॥
ज्ञानप्रवादसंज्ञकपंचमपूर्वस्थदशमवस्तुतृतीय ।
प्रायोदोषप्राभृतज्ञोऽभूद् गुणधरमुनीन्द्र: ॥१५०॥
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वो: पूर्वापरक्रमोऽस्माभि: ।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥१५१॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार षट्खंड आगम की उत्पत्ति का वर्णन करके अब कषायप्राभृत सूत्रों की उत्पत्ति का कथन करते हैं। (बहुत करके श्री धरसेनाचार्य के समय में) एक श्री गुणधर नाम के आचार्य हुए। उन्हें पाँचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व के दशमवस्तु के तृतीय कषायप्राभृत का ज्ञान था। श्री गुणधर और श्रीधरसेनाचार्य की पूर्वापर गुरू परम्परा का क्रम हमको ज्ञात नहीं है क्योंकि उनकी परिपाटी के बतलाने वाले ग्रंथों और मुनिजनों का अभाव है। इसलिये इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता ॥१४९-१५१॥