अथ गुणधरमुनिनाथ: सकषायप्राभृतान्वयं तत्प्रायो-
दोषप्राभृतकापरसंज्ञां साम्प्रतिकशक्तिमपेक्ष्य ॥१५२॥
त्र्यधिकाशीत्या युक्त्तम शतं च मूलसूत्रगाथानाम् ।
विवरणगाथानां च त्र्यधिकं पंचाशतमकार्षीत् ॥१५३॥
एवं गाथासूत्राणि पंचदशमहाधिकाराणि ।
प्रविरच्य व्याचख्यौ स नागहस्त्यार्यमंक्षुभ्याम् ॥१५४॥
पार्श्वे तयोर्दव्योरपि अधीत्य सूत्राणि तानि यतिवृषभ: ।
यतिवृषभनामधेयो बभूव शास्त्रार्थ निपुणमति: ॥१५५॥
तेन ततो यतिपतिना तद्गाथावृत्तिसूत्ररूपेण ।
रचितानि षट्सहस्त्राग्रंथान्यथ चूर्णिसूत्राणि ॥१५६॥
तस्यान्ते पुनरूच्चारणादिकाचार्यसंज्ञकेन तत: ।
सूत्राणि तानि सम्यगधीत्य ग्रंथार्थरूपेण ॥१५७॥
द्वादशगुणितसहस्त्राग्रंथान्युच्चारणाख्यसूत्राणि ।
रचितानि वृत्तिरूपेण तेन तच्चूर्णिसूत्राणां ॥१५८॥
गाथाचुर्ण्युच्चारणसूत्रैरूपसंहृतं कषायाख्य ।
प्राभृतमेवं गुणधरयतिवृषभोच्चारणाचार्यै: ॥१५९॥
अन्वयार्थ : अस्तु श्री गुणधर मुनि ने भी वर्तमान पुरुषों की शक्ति का विचार करके कषायप्राभृत आगम को जिसे कि दोषप्राभृत भी कहते हैं, एक सौ तिरासी १८३ मूल गाथा और तिरेपन विवरण रूप गाथाओं में बनाया। फिर १५ महाधिकारों में विभाजित करके श्री नागहस्ति और आर्यमंक्षु मुनियों के लिये उसका व्याख्यान किया। पश्चात् उक्त दोनों मुनियों के समीप शास्त्र-निपुण श्रीयतिवृषभ नामक मुनि ने दोषप्राभृत के उक्त सूत्रों का अध्ययन करके पीछे उनकी सूत्ररूप चूर्णिवृत्ति छह हजार श्लोकप्रमाण बनाई। अनंतर उन सूत्रों का भलीभाँति अध्ययन करके श्री उच्चारणाचार्य ने १२००० श्लोक प्रमाण उच्चारणवृत्ति नाम की टीका बनाई। इस प्रकार से गुणधर, यतिवृषभ और उच्चारणाचार्य ने कषायप्राभृत का गाथा-चूर्णि और उच्चारण वृत्ति में उपसंहार किया ॥१५२-१५९॥