एवं व्याख्यानक्रममवाप्तवान् परमगुरुपरंपरया ।
आगच्छन् सिद्धांतो द्विविधोऽप्यतिनिशितबुद्धिभ्याम् ॥१७१॥
शुभरविनंदिमुनिभ्यां भीमरथिकृष्णमेखयो: सरितो: ।
मध्यमविषये रमणीयोत्कलिकाग्रामसामीप्यम् ॥१७२॥
विख्यातमगणवल्लीग्रामेऽथ विशेषरूपेण ।
श्रुत्वा तयोश्च पाश्र्वे तमशेषं बप्पदेवगुरू: ॥१७३॥
अपनीय महाबंधं षट्खण्डाच्छेषपंचखण्डे तु ।
व्याख्याप्रज्ञप्तिं च षष्ठं खण्डं च तत् संक्षिप्य ॥१७४॥
षण्णां खण्डानामिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्य
प्राभृतकस्य च षष्ठिसहस्त्रग्रंथप्रमाण युताम् ॥१७५॥
व्यलिखत्प्राकृतभाषारूपां सम्यक्पुरातनव्याख्यां ।
अष्टसहस्त्रग्रन्थां व्याख्यां पंचाधिकां महाबन्धे ॥१७६॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार व्याख्यानक्रम (टीकादि) से तथा गुरु परम्परा से उक्त दोनों सिद्धांतों का बोध अतिशय तीक्ष्ण बुद्धिशाली श्री शुभनंदि और रविनंदि मुनि को प्राप्त हुआ। ये दोनों महामुनि भीमरथि और कृष्णमेणा नदियों के मध्य में बसे हुए रमणीय-उत्कलिका ग्राम के समीप सुप्रसिद्ध अगणबल्ली ग्राम में स्थित थे। उनके समीप रहकर श्री वप्पदेवगुरु ने दोनों सिद्धातों का श्रवण किया और फिर तज्जन्यज्ञान से उन्होंने महाबंध खंड को छोड़कर शेष पाँच खंडों पर व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम की व्याख्या बनाई। उसमें महाबंध का संक्षेप भी सम्मिलित कर दिया। पश्चात् कषायप्राभृत पर प्राकृत भाषा में साठ हजार और केवल महाबंध खण्ड पर आठ हजार पाँच श्लोक प्रमाण, दो व्याख्याएँ रचीं ॥१७१-१७६॥