अथ तुंबुलूरनामाऽचार्योऽभूत्तुंबुलूरसदग्रामे ।
षष्ठेन विना खण्डेन सोऽपि सिद्धांतयोरुभयो: ॥१६५॥
चतुरधिकाशीतिसहस्त्रग्रंथरचनया युक्ताम् ।
कर्णाटभाषयाकृतमहतीं चूड़ामणिं व्याख्यां ॥१६६॥
सप्तसहस्त्रग्रंथां षष्ठस्य च पंचिकां पुनरकार्षीत् ।
कालान्तरे तत: पुनरासन्ध्यां पलरि तार्किकार्कोऽ भूत् ॥१६७॥
श्रीमान् समंतभद्रस्वामीत्यथ सोऽप्यधीत्य तं द्विविधम् ।
सिद्धांतमत: षट्खण्डागमगतखण्डपंचकस्य पुन: ॥१६८॥
अष्टौचत्वारिंशत्सहस्त्रसद्ग्रंथरचनया युक्तां ।
विरचितवानतिसुंदरमृदुसंस्कृत भाषया टीकाम् ॥१६९॥
विलिखन् द्वितीयसिद्धांतस्य व्याख्यां सधर्मणा स्वेन ।
द्रव्यादिशुद्धिकरणप्रयत्नविरहात्प्रतिनिषिद्धम् ॥१७०॥
अन्वयार्थ : इसके कुछ समय पश्चात् तुम्बुलूर ग्राम में एक तुम्बुलूर नाम के आचार्य हुए और उन्होंने भी छठे महाबंध खंड को छोड़कर शेष दोनों आगमों की कर्णाटकीय भाषा में ८४ हजार श्लोक प्रमित चूड़ामणि नाम की व्याख्या रची। पश्चात् उन्हीं ने छठे खंड पर भी सात हजार श्लोक प्रमाण पंजिका टीका की रचना की। कालान्तर में तार्किकसूर्य२ श्रीसमंतभद्र स्वामी का उदय हुआ। तब उन्होंने भी दोनों प्राभृतों का अध्ययन करके प्रथम पाँच खण्डों की अड़तालिस हजार श्लोक परिमित टीका अतिशय सुंदर, सुकोमल संस्कृत भाषा में बनाई। पीछे से उन्होंने द्वितीय सिद्धांत की व्याख्या लिखनी भी प्रारंभ की थी परन्तु द्रव्यादि शुद्धिकरण प्रयत्नों के अभाव से उनके एक साधर्मी (मुनि) ने निषेध कर दिया।२ जिससे वह नहीं लिखी गई ॥१६५-१७०॥